भीड़ एक विवेकहीन और उन्मादित समूह होती है। यह वह स्थिति होती है जब विवेकवान से विवेकवान भी, भीड़ में अपना विवेक खो बैठते है। महाराष्ट्र के पालघर में एक हृदयविदारक घटना में दो साधुओं को एक भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला। भीड़ से न्याय हो या बदले में भीड़ खुद ही अपना न्याय कर बैठे यह एक घातक और निंदनीय परंपरा है जो उत्तरप्रदेश, झारखंड, बिहार, राजस्थान और हरियाणा सहित कुछ प्रदेशों में 2014 के बाद खूब हुयी है। इसका समर्थन भी कुछ लोगों ने किया। यूपी के बुलन्दशहर में तो एक पुलिस इंस्पेक्टर की ही भीड़ ने पीट पीट कर हत्या कर दी। और उस घटना के मुख्य अभियुक्त को धीरे धीरे बचा भी लिया गया। क्योंकि वह सत्तारूढ़ दल के करीब था। झारखंड में मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों को जेल से जमानत पर रिहा होने पर एक केंद्रीय मंत्री द्वारा माला पहना कर स्वागत किया गया। तब वे सब मित्र चुप रहे जो आज अचानक मुखर हो गये हैं। हम इस भीड़ हिंसा के तब भी खिलाफ थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।
भीड़ हिंसा से जुड़े, 2014 से 2018 तक एनसीआरबी के आंकड़ो और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए निर्देश को देखें। सरकार ने लगातार इन घटनाओं की नज़रअंदाज़ किया और जानबूझकर ऐसे अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से ऐतराज किया।
जब गौरक्षा और बीफ के नाम पर उन्मादित भीड़ द्वारा भीड़ हिंसा या मॉब लिंचिंग शुरू हुई थी तो न तो सरकार सतर्क हुयी और न ही सत्तारूढ़ दल ने इसकी कोई आलोचना की। तब वह हिंसा सत्तारूढ़ दल के एजेंडे के अनुरूप थी। देश में 2014 से 2018 तक के 4 वर्षों में मॉब लिंचिंग की 134 घटनाएं हुयी हैं। 2019 के आंकड़े नहीं मिल पाए हैं।
भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती है। उनका कोई दीन-धर्म नहीं होता और इसी बात का फायदा हमेशा मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ उठाती है। पर प्रश्न यह है कि इस भीड़ को इकट्ठा कौन करता है ? उन्हें उकसाता-भड़काता कौन है ? जवाब हम सब जानते हैं। पर फिर भी सब खामोश हैं। डर इस बात का है कि अगर कानून हर हाथ का खिलौना हो जाएगा तो फिर पुलिस, अदालत और इंसाफ सिर्फ शब्द बन कर रह जाएंगे और इनका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
अब कुछ आंकड़े देखिए
- साल 2014 में ऐसे 3 मामले आए और उनमें 11 लोग ज़ख्मी हुए।
- 2015 में अचानक यह संख्या बढ़कर 12 हो गयी। इन 12 मामलों में 10 लोगों की पीट-पीट कर मार डाला गया जबकि 48 लोग ज़ख्मी हुए।
- 2016 में गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्डी की वारदातें दोगुनी हो गई हैं। 24 ऐसे मामलों में 8 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। जबकि 58 लोगों को पीट-पीट कर बदहाल कर दिया गया।
- 2017 में तो गोरक्षा के नाम पर गुंडई करने वाले बेकाबू ही हो गए। 37 ऐसे मामले हुए जिनमें 11 लोगों की मौत हुई. जबकि 152 लोग ज़ख्मी हुए।
- 2018 में ऐसे 9 मामले सामने आ चुके हैं. जिनमें 5 लोग मारे गए और 16 लोग ज़ख्मी हुए।
कुल मिलाकर गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग के कुल 85 गुंडागर्दी के मामले सामने आ चुके हैं जिनमें 34 लोग मरे गए. और 289 लोगों को अधमरा कर दिया गया।
साल 2014 से लेकर साल 2018 तक केवल गोरक्षा के नाम पर हुए 87 मामलों में 50 फीसदी शिकार मुसलमान हुए. जबकि 20 प्रतिशत मामलों में शिकार हुए लोगों की धर्म जाति मालूम नहीं चल पाई. वहीं 11 फीसदी दलितों को ऐसी हिंसा का सामना करना पड़ा. गोरक्षकों ने अन्य हिंदुओं को भी नहीं छोड़ा.। 9 फीसदी मामलों में उन्हें भी शिकार बनाया गया,. जबकि आदिवासी और सिखों को भी 1 फीसदी मामलों में शिकार होना पड़ा।
अब कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण देखे।
- 20 मई 2015, राजस्थान – मीट शॉप चलाने वाले 60 साल के एक बुज़ुर्ग को भीड़ ने लोहे की रॉड और डंडों से मार डाला।
- 2 अगस्त 2015, उत्तर प्रदेश – कुछ गो रक्षकों ने भैंसों को ले जा रहे 3 लोगों को पीट पीटकर मार डाला।
- 28 सितंबर 2015 दादरी, यूपी – 52 साल के मोहम्मद अख्लाक को बीफ खाने के शक़ में भीड़ ने ईंट और डंडों से मार डाला।
- 14 अक्टूबर 2015, हिमाचल प्रदेश – 22 साल के युवक की गो रक्षकों ने गाय ले जाने के शक में पीट पीटकर हत्या कर दी।
- 18 मार्च 2016, लातेहर, झारखंड – मवेशियों को बेचने बाज़ार ले जा रहे मज़लूम अंसारी और इम्तियाज़ खान को भीड़ ने पेड़ से लटकाकर मार डाला।
- 5 अप्रैल 2017, अलवर, राजस्थान – 200 लोगों की गोरक्षक फौज ने दूध का व्यापार करने वाले पहलू खान को मार डाला।
- 20 अप्रैल 2017, असम – गाय चुराने के इल्ज़ाम में गो रक्षकों ने दो युवकों को पीट पीटकर मार डाला।
- 1 मई 2017, असम – गाय चुराने के इल्ज़ाम में फिर से गो रक्षकों ने दो युवकों को पीट पीटकर मार डाला।
- 12 से 18 मई 2017, झारखंड – 4 अलग अलग मामलों में कुल 9 लोगों को मॉब लिंचिंग में मार डाला गया।
- 29 जून 2017, झारखंड – बीफ ले जाने के शक़ में भीड़ ने अलीमुद्दीन उर्फ असग़र अंसारी को पीट पीटकर मार डाला।
- 10 नवंबर 2017, अलवर, राजस्थान – गो रक्षकों ने उमर खान को गोली मार दी जिसमें उसकी मौत हो गई।
- 20 जुलाई 2018, अलवर, राजस्थान – गाय की तस्करी करने के शक में भीड़ ने रकबर खान को पीट पीटकर मार डाला।
जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत के अनुसार, कोई भी अपने आप में कानून नहीं हो सकता है। देश में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने मॉब लिंचिंग पर सरकार को नसीहत देते हुए निम्न गाइडलाइंस जारी किया है।
- सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती है।
- कानून का शासन कायम रहे यह सुनिश्चित करना सरकार का कर्तव्य है।
- कोई भी नागरिक कानून अपने हाथों में नहीं ले सकता है।
- संसद इस मामले में कानून बनाए और सरकारों को संविधान के अनुसार काम करना चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भीड़तंत्र के पीड़ितों को सरकार मुआवजा दे।
- शीर्ष अदालत ने कहा कि 4 हफ्तों में केंद्र और राज्य सरकार अदालत के आदेश को लागू करें। यही नहीं, मामले में फैसले से पहले टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सिर्फ कानून व्यवस्था का सवाल नहीं है, बल्कि गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा क्राइम है। अदालत इस बात को स्वीकार नहीं कर सकती कि कोई भी कानून को अपने हाथ में ले।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी, लिंचिंग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा था कि जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है, तो प्रत्येक राज्य की जिम्मेदारी है कि वो ऐसे उपाय करे कि हिंसा हो ही नहीं। तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने यह सुनवाई की और साफ शब्दो मे कहा था कि कोई भी व्यक्ति, कानून को किसी भी तरह से अपने हाथ में नहीं ले सकता है। कानून व्यवस्था को बहाल रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और प्रत्येक राज्य सरकार को ये जिम्मेदारी निभानी होगी. गोरक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा गंभीर अपराध है।
लेकिन अफसोस कि 2018 में दिए गए उपरोक्त निर्देशो या गाइडलाइंस के अनुरूप केवल मणिपुर और राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार को छोड़ कर किसी भी राज्य सरकार ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिये कोई विशेष कानून नहीं बनाया। आज पालघर भीड़ हिंसा पर डिबेट करते हुए भी कोई भी चैनल किसी भी राज्य सरकार या भारत सरकार से यह सवाल नहीं कर रहा है कि उन्होंने 2018 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद कोई विशेष कानून क्यों नहीं बनाया।
मॉब लिंचिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक के जीवन की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है। संविधान के अनुच्छेद 21 में हर नागरिक को जीवन का अधिकार मिला हुआ है, और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी के जीवन को छीना नहीं जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर किसी ने अपराध किया है तो उसको विधिनुकूल ही दंड दिया जाएगा। भीड़ द्वारा कानून को हाथ में लेने और उग्र होकर किसी भी मामले के आरोपी या बिना किसी मामले के उनकी हत्या कर देना 2014 के बाद एक नयी परिपाटी बन गयी है। अब ताजा मामला महाराष्ट्र के पालघर जिले का जहां भीड़ ने दो साधुओं की पीट पीट कर हत्या कर दी है। महाराष्ट्र पुलिस ने त्वरित कार्यवाही की और 110 लोगों को गिरफ्तार भी किया है और घटना के षडयंत्र की भी जांच चल रही है।
अगर कोई व्यक्ति किसी मामले में आरोपी है, तो उसको केवल न्यायालय ही न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हुए दोषी घोषित कर उचित दंड दे सकता है। अदालत के सिवाय किसी अन्य व्यक्ति या संस्था या समूह को किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को दोषी ठहराने और सजा देने का अधिकार नहीं है। अगर कोई व्यक्ति, समूह या संगठन ऐसा करता है, तो वह अपराध है, जिसके लिए उसको सजा भुगतनी होगी।
कृष्णामूर्ति बनाम शिवकुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भीड़तंत्र को लेकर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि एक सभ्य समाज में सिर्फ कानून का शासन चलता है और कानून ही सर्वोच्च होता है। भीड़ या कोई ग्रुप कानून हाथ में लेकर किसी अपराध के आरोपी को सजा नहीं दे सकती है।
मॉब लिंचिंग के मामले में पुलिस सबसे पहले भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 153 A के तहत मामला दर्ज करती है। इसमें 3 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा आईपीसी की धारा 34, 147, 148 और 149 के तहत कार्रवाई भी की जा सकती है। यह घटना की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
भीड़ द्वारा किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है, तो आईपीसी कि धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज किया जाएगा और साथ में धारा 34 या 149 लगाई जाएगी। इसके बाद जितने व्यक्ति मॉब लिंचिंग में शामिल रहे होंगे उन सबको हत्या का दोषी ठहराया जाएगा और उन्हें उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार फांसी या आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा। इसके अलावा सभी पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
यदि भीड़ में सम्मिलित कोई व्यक्ति किसी अपराध को अंजाम देता है, तो उस अपराध के लिए भीड़ में शामिल सभी लोग दोषी होंगे। साथ ही सभी को उस अपराध के लिए अलग-अलग सजा भोगनी होगी।
साल 2018 में तहसीन पूनावाला केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिए गाइडलाइन जारी की थी। उक्त गाइडलाइंस पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों ने अपने अपने निर्देश जारी किये।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि
सभी राज्य सरकारें अपने यहां भीड़ हिंसा और मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति करें, जो पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी होना चाहिए।
इस नोडल अधिकारी के साथ डीएसपी रैंक के एक अधिकारी को भी तैनात किया जाना चाहिए।
ये अधिकारी जिले में मॉब लिंचिंग रोकने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन करेंगे, जो ऐसे अपराधों में शामिल लोगों, भड़काऊ बयान देने वाले और सोशल मीडिया के जरिए फेक न्यूज को फैलाने की जानकारी जुट आएगी और कार्रवाई करेगी.
पिछले पांच साल में जिन इलाकों में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुईं, उनकी पहचान की जाए और इसकी रिपोर्ट आदेश जारी होने के तीन सप्ताह के अंदर तैयार किया जाए।
सभी राज्यों के गृह सचिव उन इलाकों के पुलिस स्टेशन के प्रभारियों को और नोडल अधिकारियों को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के निर्देश जारी करें, जहां पर हाल ही में मॉब लिंचिंग की घटनाएं देखने को मिली हैं।
नोडल अधिकारी स्थानीय खुफिया ईकाई और एसएचओ के साथ नियमित रूप से बैठक करें, ताकि ऐसी वारदातों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके. साथ जिस समुदाय या जाति को मॉब लिंचिंग का शिकार बनाए जाने की आशंका हो, उसके खिलाफ बिगड़े माहौल को ठीक करने की कोशिश की जाए।
राज्यों के डीजीपी और गृह विभाग के सचिव जिलों के नोडल अधिकारियों और पुलिस इंटेलीजेंस के प्रमुखों के साथ नियमित रूप से बैठक करें. अगर किन्हीं दो जिलों के बीच तालमेल को लेकर हो रही दिक्कतों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके।
पुलिस अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 129 में दी गई शक्तियों का इस्तेमाल कर भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास करें।
केंद्रीय गृह विभाग भी मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकारों के बीच तालमेल बैठाने के लिए पहल करे।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारें रेडियो, टेलीविजन और मीडिया या फिर वेबसाइट के जरिए लोगों को यह बताने की कोशिश करें कि अगर किसी ने कानून तोड़ने और मॉब लिंचिंग में शामिल होने की कोशिश की, तो उसके खिलाफ कानून के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वो सोशल मीडिया से अफवाह फैलाने वाले पोस्ट और वीडियो समेत सभी आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए कदम उठाएं, जिससे ऐसी घटनाओं को रोका जा सके।
पुलिस को मॉब लिंचिंग के लिए भड़काने या उकसाने के लिए मैसेज या वीडियो को फैलाने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 153 ए समेत अन्य संबंधित कानूनों के तहत एफआईआर दर्ज करें और कार्रवाई करें।
इस संबंध में केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे।
मॉब लिंचिंग होने पर फौरन हो कार्रवाई
अगर तमाम कोशिशों के बावजूद मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती हैं, तो संबंधित इलाके के पुलिस स्टेशन बिना किसी हीलाहवाली के फौरन एफआईआर दर्ज करें।
मॉब लिंचिंग की घटना की एफआईआर दर्ज करने के बाद संबंधित थाना प्रभारी इसकी जानकारी फौरन नोडल अधिकारी को दे. इसके बाद नोडल अधिकारी की ड्यूटी होगी कि वो मामले की जांच करे और पीड़ित परिवार के खिलाफ आगे की किसी भी हिंसा को रोकने के लिए कदम उठाए।
नोडल अधिकारी को सुनिश्चित करना होगा कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं की प्रभावी जांच हो और समय पर मामले की चार्जशीट दाखिल की जा सके।
पीड़ितों को मुआवजा देने की स्कीम बनाए सरकार
राज्य सरकार ऐसी योजना तैयार करें, जिससे मॉब लिंचिंग के शिकार लोगों को सीआरपीसी की धारा 357A के तहत मुआवजा देने की व्यवस्था की जाए।
6 महीने में पूरी हो मामले की सुनवाई
ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए हर जिले में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई जाएं, जहां पर ऐसे मामलों की सुनवाई रोजाना हो सके और ट्रायल 6 महीने के अंदर पूरा हो सके।
मॉब लिंचिंग के आरोपी को जमानत देने से पहले पीड़ितों की सुनें बात
मॉब लिंचिंग के आरोपियों को जमानत देने, पैरोल देने या फिर रिहा करने के मामले में विचार करने से पहले कोर्ट पीड़ित परिवार की भी बात सुने. इसके लिए उनको नोटिस जारी करके बुलाया जाना चाहिए।
मॉब लिंचिंग के शिकार परिवार को मुफ्त कानूनी मदद दी जानी चाहिए. इसके लिए उनको लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट 1987 के तहत फ्री में एडवोकेट उपलब्ध कराना चाहिेए।
अगर कोई अधिकारी अपनी ड्यूटी निभाने में विफल रहता है या फिर मामले में समय पर चार्जशीट फाइल नहीं करता है, तो उसके खिलाफ डिपार्टमेंटल एक्शन लिया जाना चाहिए।
उत्तरप्रदेश राज्य विधि आयोग ने सलाह दी है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए एक विशेष कानून बनाया जाये। आयोग ने एक प्रस्तावित विधेयक का मसौदा भी तैयार किया है। राज्य विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एएन मित्तल ने मॉब लिंचिंग पर अपनी रिपोर्ट सरकार को दी है। आयोग ने स्वत:संज्ञान लेते हुये भीड़ तंत्र की हिंसा को रोकने के लिये राज्य सरकार को विशेष कानून बनाने की सिफारिश की है.। ‘ सरकार को सौंपी गई 128 पन्नों वाली इस रिपोर्ट में राज्य में भीड़ तंत्र द्वारा की जाने वाले हिंसा की घटनाओं का हवाला देते हुये कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के 2018 के निर्णय को ध्यान में रखते हुये विशेष कानून बनाया जाये।
आयोग का मानना है कि भीड़ तंत्र की हिंसा को रोकने के लिये वर्तमान कानून प्रभावी नहीं है, इसलिये अलग से सख्त कानून बनाया जाये।आयोग ने सुझाव दिया है कि
इस कानून का नाम उत्तर प्रदेश कॉबेटिंग ऑफ मॉब लिचिंग एक्ट रखा जाये तथा अपनी डयूटी में लापरवाही बरतने पर पुलिस अधिकारियों और जिलाधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाये और दोषी पाये जाने पर सजा का प्राविधान भी किया जाये।
मॉब लिंचिंग के जिम्मेदार लोगों को सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का भी सुझाव दिया गया है ।
हिंसा के शिकार व्यक्ति के परिवार और गंभीर रूप से घायलों को भी पर्याप्त मुआवजा मिलें. इसके अलावा संपत्ति को नुकसान के लिए भी मुआवजा मिले।
ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार के पुर्नवास और संपूर्ण सुरक्षा का भी इंतजाम किया जाये।
उत्तर प्रदेश में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 से 2019 तक ऐसी 50 घटनायें हुई जिसमें 50 लोग हिंसा का शिकार बने, इनमें से 11 लोगों की हत्या हुई जबकि 25 लोगों पर गंभीर हमले हुये हैं. इसमें गाय से जुड़े हिंसा के मामले भी शामिल हैं।
उल्लेखनीय है कि इस विषय पर अभी तक मणिपुर राज्य ने अलग से विशेष कानून बनाया है। यूपी विधि आयोग की रिपोर्ट में, मॉब लिंचिंग के अनेक मामलों का हवाला दिया गया है. जिसमें 2015 में दादरी में अखलाक की हत्या, बुलंदशहर में तीन दिसंबर 2018 को खेत में जानवरों के शव पाये जाने के बाद पुलिस और हिन्दू संगठनों के बीच हुई हिंसा के बाद इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या जैसे मामले शामिल हैं। न्यायमूर्ति मित्तल ने रिपोर्ट में कहा है कि ‘भीड़ तंत्र की उन्मादी हिंसा के मामले फर्रूखाबाद, उन्नाव, कानपुर, हापुड़ और मुजफ्फरनगर में भी सामने आये हैं. उन्मादी हिंसा के मामलों में पुलिस भी निशाने पर रहती है और मित्र पुलिस को भी जनता अपना शत्रु मानने लगती है।
मणिपुर के बाद राजस्थान उन्मादी भीड़ की हिंसा (मॉब लिंचिंग) को लेकर कानून बनाने वाला देश का दूसरा राज्य है। राजस्थान में नए कानून के अनुसार
उन्मादी हिंसा की घटना में पीड़ित की मौत पर दोषियों को आजीवन कारावास और पांच लाख रुपये तक के जुर्माने की सजा भुगतनी होगी।
पीड़ित के गंभीर रूप से घायल होने पर 10 साल तक की सजा और 50 हजार से 3 लाख रुपये तक का जुर्माना दोषियों को भुगतना होगा।
उन्मादी हिंसा में किसी भी रूप से सहायता करने वाले को भी वही सजा मिलेगी जो, हिंसा करने वाले को मिलेगी। राज्य में बढ़ती उन्मादी हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकार ने ‘राजस्थान लिंचिंग संरक्षण विधेयक-2019’ कानून बनाया हैै। विडंबना है कि भाजपा ने इस विधेयक का विरोध किया था।
इस कानून में
- उन्मादी हिंसा को गैर जमानती, संज्ञेय अपराध बनाया गया है।
- उन्मादी हिंसा की घटना के वीडियो, फोटो किसी भी रूप में प्रकाशित या प्रसारित करने पर भी एक से तीन साल तक की सजा और 50 हजार रुपये का जुर्माना देय होगा।
- विधेयक में प्रावधान किया गया है कि दो व्यक्ति भी अगर किसी को मिलकर पीटते हैं तो उसे उन्मादी हिंसा माना जाएगा।
- उन्मादी हिंसा के दायरे में विधेयक में धर्म, जाति, भाषा, राजनीतिक विचारधारा, समुदाय और जन्म स्थान के नाम पर भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा को उन्मादी हिंसा माना गया है।
- इसमें दो या दो से ज्यादा व्यक्ति को उन्मादी हिंसा की परिभाषा में शामिल किया गया है।
- इंस्पेक्टर रैंक का अफसर ही इससे जुड़े मामलों की जांच करेगा।
- इस तरह के मामलों की प्रदेश स्तर पर पुलिस महानरीक्षिक रैंक व जिलों में उप अधीक्षक रैंक के अधिकारी निगरानी करेंगे।
- इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति की जाएगी।
विधेयक में प्रावधान किया है कि
पीड़ित को राजस्थान विक्टिम कंपनसेशन स्कीम के तहत सहायता दी जाएगी और दोषियों से जो जुर्माना वसूला जाएगा, उसे पीड़ित को दिया जाएगा।
यह कानून सुप्रीम कोर्ट के 2018 में दिए गए निर्णय की अनुपालन में उन्मादी हिंसा रोकने के लिये बनाया गया है। सरकार ने राजस्थान विधानसभा में बताया कि, देश में 2014 से उन्मादी हिंसा के 200 से अधिक मामले सामने आए हैं, इनमें से 86 प्रतिशत राजस्थान के हैं। देश में शांत प्रदेश माना जाने वाला राजस्थान उन्मादी हिंसा स्टेट के रूप में पहचाने जाने लगा है।
पालघर की भीड़ हिंसा पर महाराष्ट्र पुलिस और सरकार, विशेष कर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की भूमिका एक संवेदनशील प्रशासक की रही है। पुलिस ने जितनी जल्दी अभियुक्तों के विरुद्ध कार्यवाही की वह प्रशंसनीय है। दो दिन के अंदर ही 110 अभियुक्तों की गिरफ्तारी दूर दराज और दुर्गम इलाक़ो में पुलिस के लिये आसान नहीं होती है। फिर भी यह काम हुआ। हालांकि पुलिस की उपस्थिति में हुयी यह घटना प्रशासन पर एक धब्बा भी है। इस घटना में भी कुछ पुलिसकर्मियों के विरुद्ध, लापरवाही बरतने के संदर्भ में कार्यवाही हुयी है। सरकार और महाराष्ट्र क्राइम ब्रांच को इस घटना के पृष्टभूमि में अगर कोई षडयंत्र है तो उसका भी पता लगाया जाना चाहिए।
इस घटना के संदर्भ में, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि उन्होंने ट्विटर और वीडियो संदेशों द्वारा जनता से निरन्तर संवाद बनाये रखा और ऐसा कोई अवसर नहीं दिया जिससे इस घटना के बारे में कोई भ्रम फैले। संवादहीनता अक्सर भ्रम और अफवाहबाज़ी को जन्म देती है। कभी कभी संवादहीनता सायास भी होती है। कभी कभी यह अफवाहबाज़ी करने के लिये एक संकेत के रूप में भी होती है। शिवसेना भी उसी हिंदुत्व की बात करती है जिसकी भाजपा करती है और दोनों ही दलों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। पर एक मुख्यमंत्री और प्रशासक के रूप में उद्धव ठाकरे ने एक परिपक्व राजनेता का परिचय दिया है, जो सराहनीय है।</p>
<p>भीड़ हिंसा या मात्स्यन्याय एक पाशविक मनोवृत्ति है और विधि द्वारा शासित राज्य व्यवस्था में इसका कोई स्थान नही है। भीड़ चाहे किसी निर्दोष को पीट पीट कर मार दे या अदालत द्वारा किसी सिद्धदोष अपराधी को, यह कृत्य दोनों ही दशा में निन्दनीय है और विधिविरुद्ध है। यह कानून की नज़र में हत्या है। ऐसी घटना का समर्थन चाहे कैसी भी भीड़ हो या कोई भी पीड़ित हो, का समर्थन नहीं किया जा सकता है और न ही समर्थन किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र के गृहमंत्री के अनुसार, इस घटना में 110 लोग गिरफ्तार किए गए हैं। सरकार को चाहिए कि, वह इस घटना में शामिल सभी के विरुद्ध कठोरतम वैधानिक कार्यवाही करे। भीड़ को हतोत्साहित करना और ऐसे उन्मादित कृत्य, भीड़ द्वारा आगे करने से रोकना बेहद ज़रूरी है। नहीं तो हम एक पाशविक समाज बन कर रह जाएंगे।
( विजय शंकर सिंह )