इस देश में हर दिन सार्वजनिक स्थलों पर संघ की शाखा लगती है जो शुद्धरूप से राजनीतिक रहती है, क्या इसकी अनुमति कभी ली जाती है? हर महीने बहुसंख्यक समाज का कोई न कोई त्यौहार आता है जिसमें सार्वजनिक स्थलों पर खूब कार्यक्रम होते हैं पर आजतक किसी ने उसपर आपत्ति नहीं उठाई बल्कि लोग इसमें मिलजुल कर शामिल होते हैं।
बनारस से लेकर इलाहाबाद, मथुरा तक हर जगह प्रतिदिन सार्वजनिक स्थलों पर बहुसंख्यक समाज के लोग अपनी आस्था एवं धार्मिक आज़ादी का जश्न मनाते हैं। पर कहीं कोई विवाद नहीं होता है। प्रत्येक वर्ष लगभग एक महीने तक कांवड़ यात्रा के दौर देश के कई सारे हाईवे बंद रहते हैं, सार्वजनिक स्थल पूरी तरह से कांवड़ियों का टेंट लगा रहता है एवं इनका जत्था आता जाता है। पर यहाँ किसी को कोई परेशानी नहीं होती, यहाँ सार्वजनिक स्थल की याद किसी को नहीं आती बल्कि उलटा प्रशासन हेलीकाप्टर से फूल माला फेंक कर स्वागत करता है।
अभी इलाहाबाद में कुम्भ होने वाला है, लगभग महीनों तक पूरा इलाहाबाद जाम में फंसा रहेगा, हर चीज ठप्प रहेगी। वहाँ लोग सार्वजनिक स्थलों पर अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक रीतरिवाज के तहत अपनी मान्यताओं का उत्सव मनाएँगे। पर कहीं कोई ये नहीं कहेगा कि ये सब सार्वजनिक स्थल है, यहाँ धार्मिक कार्य नहीं कर सकते। हर कोई इसका स्वागत करेगा, और करना भी चाहिए। यही तो खूबसूरती है इस मुल्क की, हर कोई एक दूसरे की आस्था का सम्मान करता है।
पर ऐसा क्या हो गया है कि हफ़्ते के एकदिन मात्र आधे घंटे पॉर्क में नमाज़ पढ़ने से प्रशासन को दिक्कत आ गई? क्या कुछ सार्वजनिक जगहों पर हफ़्ते में एकदिन मात्र आधा घंटा जुमे की नमाज़ अदा करना भी गुनाह है? अल्पसंख्यकों के लिए अगर सार्वजनिक स्थल पर रोक है तो वहीं बहुसंख्यकों का स्वागत क्यों?
इसे क्यों न शुद्ध रूप से स्टेट का अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार एवं गांधीवादी मूल्यों वाली धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ माना जाए। मुसलमानों को हफ़्ते में एक दिन आधा घंटे नमाज़ पढ़ने से रोककर स्टेट पूरी दुनिया में क्या संदेश चाहता है? क्या सियासत की सोच इतनी छोटी हो गई है?