सुभाष चन्द्र बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे। योद्धा शब्द सच मे केवल उन्हीं के लिये कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के खिलाफ 1857 का विप्लव एक विद्रोह था जो चर्बी मिले कारतूस के मुद्दे पर अचानक भड़क उठा था। तब अंग्रेज़ उतने मज़बूत नहीं थे संख्या भी कम थी। 1885 ई में कांग्रेस के गठन के बाद और फिर महात्मा गांधी के राजनीतिक परिदृश्य पर आने के बाद आज़ादी के लिये जो संघर्ष चला उसमें मुख्यतः चार आयाम थे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में उनके सिद्धांतों पर चलने वाला आंदोलन मुख्य धारा का संघर्ष था। भगत सिंह और साथियों द्वारा किया जा रहा संघर्ष सशस्त्र और क्रांतिकारी संघर्ष था। रासबिहारी बोस, एमएन रॉय, श्यामजी कृष्ण वर्मा, राजा महेन्द प्रताप, सावरकर आदि द्वारा किया जा रहा आंदोलन देश के बाहर था जो विश्व जनमत भी अंग्रेजी राज के खिलाफ बना रहा था। हालांकि सावरकर ने काले पानी की सज़ा के दौरान माफी मांग कर खुद को स्वतंत्रता संग्राम से अलग कर लिया और वे अंग्रेजों के हमदर्द बन गए। पर सुभाष बोस ने जो किया वह सबसे अलग और अनोखा था।
1938 में अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी, गांधी जी द्वारा ऐतराज जताने पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने एक अलग वामपंथी सोच का दल, फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। फिर वे अंग्रेजी पुलिस को चकमा देकर, कलकत्ता में अपने ही घर मे अपनी नज़रबंदी के दौरान फरार हो, काबुल के रास्ते से होते हुये रूस निकल गए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वे जर्मनी जा कर हिटलर से मिले। हिटलर की मदद से वे पूर्वी मोर्चे पर सिंगापुर पहुंचे जो अंग्रेज़ो के कब्जे से जापान, जो, धुरी राष्ट्रों का एक अंग था ने छुड़ा लिया था। फिर वहीं मोहन सिंह द्वारा गठित आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया और ब्रिटिश भारत पर हमला कर दिया। इम्फाल तक वे पहुंच गए थे। इस आधार पर हम सुभाष को आज़ादी का एक सच्चा योद्धा कह सकते हैं और वे हैं भी।
सुभाष को अक्सर गांधी विरोधी नायक के तौर पर प्रचारित किया जाता है। ऐसे लोगों का उद्देश्य, यहां सुभाष का महिमामंडन कम और गांधी को उनकी तुलना में कमतर दिखाना होता है। यह सत्य है कि गांधी जी के ही कारण सुभाष को कांग्रेस छोड़ना पड़ा और नियति ने उन्हें एक अलग भूमिका निभाने पर बाध्य कर दिया। जैसे सामान्य लोग इन महान नेताओं के वैचारिक मतभेदों को निजी समझ बैठते हैं जब कि ऐसा नहीं था।
यह एक लंबा लेख है जो सुभाष बोस और साम्प्रदायिक राजनीति पर आधारित है। सुभाष 1940 से लापता होने तक देश के सबसे चर्चित नायक थे। आज भी उनके प्रति लोगों का एक रूमानी लगाव है। दुर्भाग्य से भारत के इतिहास का 1940 से 47 तक का कालखंड स्वाधीनता संग्राम का सबसे मनहूस समय था जब देश साम्प्रदायिक आधार पर बंटा और दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक विस्थापन और साम्प्रदायिक दंगे हुए। सुभाष बंगाल के थे। बंगाल में उस समय मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ही साम्प्रदायिक दलों का प्रभाव था। भारत से पलायन करने के पहले देश और बंगाल की राजनीति में सुभाष बाबू की साम्प्रदायिक शक्तियों के बारे में क्या दृष्टिकोण था वह इस लेख और इसमें दिये गए उद्धरणों से स्पष्ट होता है।
12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम नामक एक स्थान पर बंगाल में हिन्दू महासभा के प्रचार के तरीके पर टिप्पणी करते हुये, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने निम्न पंक्तियां कहीं थीं।
” हिन्दू महासभा ने वोट लेने के लिये सन्यासियों और सन्यासिनियों का एक दल बना रखा है जो हांथो में त्रिशूल ले कर गांव गांव घूम रहा है। सन्यासी समूह को देख कर हिन्दू श्रद्धा के साथ अपने सिर झुका देते हैं, और हिन्दू महासभा के लोग उनकी धार्मिक श्रद्धा का राजनीतिक लाभ उठाने लगते हैं। इस प्रकार धर्म के आधार पर श्रद्धा का दोहन करके राजनीति में हिन्दू महासभा का प्रवेश हो रहा है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि वे इसकी निंदा करें और देशद्रोहियों को राष्ट्रीय जीवन से बहिष्कृत करें । ”
“The Hindu Mahasabha has deployed sannyasis and sannyasins with tridents in their hands to beg for votes. At the very sight of tridents and saffron robes, Hindus bow their head in reverence.By taking advantage of religion and desecrating it, the Hindu Mahasabha has entered the arena of politics. It is the duty of all Hindus to condemn it. Banish these traitors from national life.”
Netaji Subhas Chandra Bose, at a public meeting on 12th May 1940 at Jhargram in West Bengal.
( The Lost Hero A biography of Subhash bose by Mihir bose )
1940 में कांग्रेस की अंतरिम सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया था। यह त्यागपत्र उन्होंने बिना इन सरकारों से बिना पूछे ही भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन द्वारा शामिल कर लेने के कारण यह कदम उठाया था। लेकिन जब कांग्रेस के हट जाने के कारण शून्य बना तो मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने अंग्रेज़ो का साथ दे दिया। दोनों ही धर्म आधारित दलों ने एक साथ मिल कर कुछ प्रांतों में मिली जुली तो कुछ में मुस्लिम लीग ने केवल अपने दम पर सरकारें बनायी। यह धर्म आधारित राजनीति का एक ज़हरीला खेल था। दोनों ही अपने अपने धर्मो को एक एक अलग अलग राष्ट्र मान चुके थे। धर्म ही राष्ट्र है का बेतुका राष्ट्रवाद उतपन्न हो चुका था। पाकिस्तान का विचार जो अल्लामा इक़बाल और चौधरी रहमत अली के मन से होता हुआ जिन्ना साहब के तेज और उर्वर मस्तिष्क में आ चुका था, अब मूर्त रूप ले चुका था। कांग्रेस अलग थलग पड़ गयी थी। सरकार के सामने वह भले ही अलग थलग पड़ गयी हो फिर भी भारतीय जन मानस पर उसका व्यापक प्रभाव तब भी था।
दोनों ही धर्म आधारित दल अपने अपने मकसद की प्राप्ति के लिये अंग्रेजों की गोद मे जा बैठे थे। बिटिश सरकार विशेषकर इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल की महात्मा गांधी से चिढ़ जग जाहिर थी। चर्चिल गांधी को एक अराजकता फैलाना वाला नेता समझता था। 2008 में प्रकाशित आर्थर हरमन की पुस्तक Charchil and Gandhi – The Epic Rivalry that destroyed an Empire में चर्चिल और गांधी के बीच जो प्रतिद्वंदिता थी को बहुत ही अच्छे तरह से उकेरा गया है। चर्चिल अक्सर गांधी को नंगा फकीर कहता था। वायसरीगल हाउस जो आज का राष्ट्रपति भवन है कि सीढ़ियों पर चढ़ते हुये अधनंगे गांधी जी की फ़ोटो और लार्ड तथा लेडी माउंटबेटन के कंधों पर हांथ रख कर चहलकदमी करती हुई गांधी की मुद्रा उसे कोफ्त से भर देती थी। यह एक व्यक्तिगत ईर्ष्या थी, चिढ़ थी, प्रतिद्वन्द्विता थी, या शासक होने का स्वाभाविक दर्प यह बता पाना कठिन है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय परिदृश्य से अलग हो जाने और ब्रिटेन द्वारा उसे और दरकिनार कर देने के कारण धर्मों को ही राष्ट्र मानने वाले दोनों धर्मांध दल, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा एक साथ अंग्रेज़ो के साथ आ गए। अंग्रेज़ द्वीतीय विश्वयुद्ध में फंसे थे। 1939 से 42 तक जब तक रूस इस युद्ध मे मित्र देशों के साथ नहीं आ गया था तब तक जर्मनी और हिटलर ने यूरोप में तबाही मचा दी थी। लंदन पर भारी बमबारी हो रही थी। सम्राट को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया था।
ऐसे कठिन समय मे अंग्रेज़ो के साथ मिल कर जिन्ना और सावरकर ने न केवल अंग्रेज़ों की सदाशयता प्राप्त की बल्कि उन्होंने अंग्रेज़ों पर अपना एहसान भी लाग दिया। इसी एहसान के कारण मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग की तरफ अंग्रेज़ों का झुकाव हुआ। इसी झुकाव ने सावरकर को भी अपना लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र पाने के लिये लालायित कर दिया। पर जितनी पकड़ जिन्ना की मुस्लिम समाज मे थी उतनी पकड़ सावरकर की हिन्दू समाज पर नहीं हो सकी थी। इसका कारण दोनों धर्मो की मूल प्रकृति है। यहीं पर सावरकर हिन्दू मानसिकता, सनातन धर्म की मूल प्रवित्ति, धर्म और राज्य में सदियों से चले आ रहे अंतर को समझने की भूल कर गए। वे तब तक तो अंग्रेज़ों के हमसफ़र बने रहे जब तक गांधी, और अन्य कांग्रेसी नेता विश्व युद्ध के समाप्ति के थोड़ा पहले जेल से छूट कर बाहर नहीं आ गए। जैसे ही युद्ध की विभीषिका कम हुयी, कांग्रेस के बड़े नेता जेल से छोड़े जाने लगे, गांधी फिर समस्त भारत के स्वर बन गए।
अंग्रेज़ों ने सावरकर की बजाय गांधी और कांग्रेस तथा जिन्ना और मुस्लिम लीग से बात करनी शुरू कर दी।
सावरकर ने यह मंसूबा पाल रखा था कि जब अंग्रेज़ मुस्लिम हितों पर जिन्ना और मुस्लिम लीग से एक पक्ष के रूप में बात करेंगे तो वे बहुसंख्यक यानी हिन्दू हित पर हिन्दू महासभा और सावरकर से बात करेंगे। वे यह भी चाहते थे कि जिन्ना मुस्लिमों के लिये पाकिस्तान की बात करते समय काँग्रेस से न बात कर सावरकर से बात करें। सावरकर खुद को हिंदुओं का स्वयंभू प्रतिनिधि मानते थे। जब कि ऐसा था नहीं। सावरकर का हिंदुओं में कितना प्रभाव है यह न अंग्रेज़ों से छुपा था और न ही जिन्ना से। अंग्रेज़ भी यह जानते हुए कि भारत की राजनीति और स्वाधीनता समर में गांधी और कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं है जिनसे वे संवाद कर सकें, सावरकर तो एक तदर्थ साथी थे, ( आर्थर हरमैन इसी किताब में अंग्रेज़ सावरकर मित्रता को स्टॉप गैप अरेंजमेंट कहते हैं, ) से क्यों बात करते ? लेकिन जिन्ना अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता बने रहे।
इस उद्धरण में सुभाष बाबू ने धर्म के राजनीति में आगमन को अनुचित ठहराया है। उन्होंने इसी धर्मान्धता भरी राजनीतिक सोच की निंदा की है। यह उद्धरण बंगाल के संदर्भ में है जहां पर मुस्लिम लीग का प्रभाव मुसलमानों में अधिक था। हिन्दू महासभा के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी खुद भी बंगाल के एक प्रभावी नेता थे। वे एक शिक्षाविद भी थे। वे बंगाल की एक और बड़ी प्रतिभा सर आशुतोष मुखर्जी के पुत्र थे। पर अपनी मेधा, प्रतिष्ठा और पारवारिक पृष्ठभूमि के कारण भी वे कांग्रेस के लिए कोई ख़तरा नहीं बन सके। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ने ही एक दूसरे की कट्टरता का उपयोग अपने अपने दल को विकसित करने में खूब किया।
सुभाष बाबू एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व और विशाल हृदय व्यक्ति थे। आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान अनोखा था। जिस साम्राज्य से दुनिया की कोई ताक़त लड़ने की सोच नहीं सकती थी, उसी साम्राज्य के खिलाफ उन्होंने गैर पेशेवरों को ले कर एक पेशेवर फौज बनायी जो पूरी तरह से पंथ निरपेक्ष थी। यह फौज थी आज़ाद हिंद फौज। हालांकि यह फौज पहले ही बन चुकी थी पर जब नेता जी ने कमान संभाला तो इसकी तस्वीर बदल गयी। गांधी, नेहरू, आज़ाद इसकी तीन ब्रिगेड बनीं। जय हिंद इसका अभिवादन और दिल्ली चलो इसका बोध वाक्य बना। संघ के लोग सुभाष का यह रूप जान बूझ कर नहीं देखना चाहते हैं। यह रूप उन्हें असहज करता है।