कल से कांग्रेस डैमेज कंट्रोल मे जुटी है कि’ प्रणव दा ‘ ने संघ के कार्यक्रम मे जाकर” यह कह दिया , वो कह दिया ” मुझे तो ऐसा कुछ ख़ास सुनाई नही दिया कि जिससे संघ को शर्मिंदा होना पड़ा हो, जहां तक राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की बात करने का सवाल है तो यही बातें तो बदले अर्थों के साथ संघ भी करता है.
हां अगर प्रणव दा यह कह देते कि राष्ट्र,राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की असल परिकल्पना संघ की परिकल्पना से मेल नही खाती है तो मै मानता कि हां कुछ कहा है, यही बात देश की भाषाओं ,बोलियों, धर्मों विशेषकर मुसलमानों के बारे मे कही गयी बातों पर भी लागू होती है, प्रणव दा अगर यह कहते कि संघ देश की विविधता को स्वीकार करे जोकि वो नही करता है, मुसलमानों का योगदान स्वीकार करे जोकि वो नही करता है तो मै मानता कि हां कुछ कहा गया है, आप नेहरू के ज़िक्र करने को तो बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहे हैं लेकिन हेडगेवार को महान सपूत बताने की बात गोल कर रहे हैं
दूसरी बात यह कि संघ जैसे संगठन जिस पर प्रतिबंध लग चुका हो, आज भी प्रतिबंध लगने की आवाज़ें उठती रही हों, जिस संगठन की विचारधारा के लोग देश मे धमाके कराने के आरोप मे जेलों मे थे / हैं, देश मे दंगे कराने के आरोप मे जेल मे बंदथे/ हैं, उस विचारधारा के संगठन के कार्यक्रम मे एक पूर्व राष्ट्रपति का जाना ही सवाल खड़ा करता है अब इससे कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि उन्होने वहां जाकर क्या कहा? वैसे भी प्रणव दा ने क्या कहा? यह तो IT cell के फ़र्ज़ी पोस्टरबाज़ बतायेंगे,जैसा कि वो कल से बता रहे हैं.
अस्ल बात यह है कि जितनी मेहनत कांग्रेस ‘ प्रणव दा ‘ के इस क़दम को सही ठहराने मे कर रही है उससे कम मेहनत मे वो प्रणव दो को कांग्रेस से अलग करके उन लोगों का भ्रम दूर कर सकती थी जो इस भ्रम मे हैं, कि साम्प्रदायिक ताक़तें ख़ुद को हल्का धर्मनिरपेक्ष साबित करना चाह रही हैं या कांग्रेस जैसी पार्टी ख़ुद को हल्का साम्परदायिक साबित करके साम्परदायिक वोटें साध रही हैं.
बहरहाल 6 दिसम्बर 1992 के बाद मुल्क के एक बड़े तबक़े का विश्वास पूरी तरह खो चुकी कांग्रेस ने फिर से उस तबक़े को मायूस कर दिया है
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