नसीरूद्दीन शाह नालायक आदमी हैं। उन्हें जो डर अब महसूस हुआ देरी से हुआ। जब देश के सम्मानित लोग असहिष्णुता के चलते अपने अवॉर्ड वापस कर रहे थे तब वो कहां थे मुझे याद नहीं आ रहा। सच कहूं तो मुझे उम्मीद थी कि वो बोलेंगे मगर वो देर से बोले। बहरहाल बोले हैं तो हंगामा हो रहा है और इस हंगामे के होने का अनुमान उन्हें भी रहा होगा। कोई कलाकार जब इस रिस्क को लेकर बोलता है तब वो भारी हिम्मत का काम कर रहा होता है। वो जिनके प्रिय थे रातोंरात उनके निशाने पर आ गए हैं ।
न्यूज़ चैनल के औसत बुद्धि प्रोड्यूसर लिखकर पूछ रहे हैं कि उन्हें जिस देश ने इतना सम्मान दिया उसमें डर लगने की वजह क्या है, वहीं बेगार में जुटे ट्रोल उन्हें मां-बहन की गंदी गाली से नवाज़ रहे हैं। ज़ाहिर है, उन्हें वही डर था जो अब सामने आ रहा है। उनकी फिक्र समझने के बजाय शाहरुख और आमिर को जो सलाह दी गई वही दी जाने लगी है। देश का तीसरा सर्वोच्च सम्मान पानेवाला अभिनेता अगर डरने लगे तो सरकारों को धींगामु़श्ती करने के बजाय शीशे में शक्ल देख लेनी चाहिए, मगर ये लोग तो अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों से लेकर रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकारों से लड़ने में नहीं शर्माए जिनका लोहा दुनिया मानती रही, फिर इनके लिए एक “मुसलमान” एक्टर किस खेत की मूली है?
नसीर जो कह रहे हैं वो देश के सत्तर से ज्यादा पूर्व आईएएस खुली चिट्ठी लिख कर कह चुके हैं, वो शहीद इंस्पेक्टर सुबोध का परिवार रोज कह रहा है, वो हम लोग रोज कह रहे हैं पर एक मुसलमान ने कह दिया तो बुरा ज़्यादा लग रहा है। अगर योगी आदित्यनाथ बुलंदशहर में भीड़ के हाथों मारे गए इंस्पेक्टर के हत्यारों को तलाशने की जगह कथित गौकशी के आरोपियों को पहले पकड़ेगी तो सभ्य समाज सवाल करेगा। गौकशी के आरोपियों में नाबालिगों तक को नहीं बख्शा गया लेकिन इंस्पेक्टर को मारती भीड़ के वीडियो में साफ दिख रहा बजरंगलदल का संयोजक बीस दिन बाद भी मजे में घूम रहा है।
इस सरकार की प्राथमिकता छिपी हुई नहीं है। योगी आदित्यनाथ इस देश या सूबे के लोगों के लिए नया नाम नहीं है। इस आदमी के संगठन के लोग अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को कब्र से निकाल कर रेप तक की पैरवी कर चुके हैं। ये खुद हत्या के बदले हत्या का आह्वान करता रहा है। बात समाचारों की नहीं है, हमने तो इसे खुले और छिपे दोनों में ज़हर उगलते देखा है इसलिए ट्रोल्स से ज्ञान लेने की जिन्हें ज़रूरत हो वो लें हम नहीं लेंगे।
पहले ये आदमी अपनी पार्टी को चुनाव जिताने के लिए सूबा छोड़कर घूमता रहा। हैरत तो इस बात की थी कि बुलंदशहर वाली घटना के बावजूद ये तुरंत राजस्थान से यूपी नहीं लौटे बल्कि वहीं से फुनियाते रहे। उसके बाद जब लौटे तो परिवार के पास जाने के बजाय उसे अपने दरबार में बुलाया। शहीद के बेटे रोज कहते रहे कि उनके पिता की लिंचिंग हुई मगर घमंड में चूर सांप्रदायिक सीएम इसे साज़िश ठहरा रहा था। अरे महाराज जी, लिंचिंग ही साज़िश होती है। ये दो बातें अलग हैं कहां, लेकिन आपका इंटरेस्ट तो ये साबित करने में है कि कथित गौकशी बड़ा अपराध है और किसी इंस्पेक्टर को पहले पीटना और फिर सिर में गोली मार देना तो छोटी मोटी बातें हैं।
शहीद सुबोध के बेटे सरकारी मुआवज़े के मरहम के बावजूद पिता की हत्या के बदले इंसाफ मांग रहे हैं तो इतना दर्द क्यों उठ रहा है? नसीरूद्दीन शाह भी तो उतना ही मांग रहे हैं। उन्हें भी तो यही डर है कि अगर कल उनके बच्चों के साथ भीड़ यही बर्ताव करेगी तो पुलिस या प्रशासन की प्राथमिकता क्या रहनेवाली है? जो डर उन्हें है वही डर हमें भी है। हम सवर्ण भी हैं, हिंदू भी हैं और बीजेपी के वोटबैंक परिवार से भी हैं लेकिन क्या आपके द्वारा पागल की गई भीड़ किसी को मारते हुए ये सब पूछनेवाली है? सुबोध सिंह की हत्यारी भीड़ की वहशियत देखकर तो ऐसा नहीं लगा और ना आपके लगातार चलते धार्मिक दौरों के बीच पलटकर आपने एक बार भी ऐसी कोई बात कही जिससे किसी को आश्वासन मिलता। अब तो इस देश का प्रधानमंत्री कोई वाजपेयी भी नहीं जो अपने दल के मुख्यमंत्री से राजधर्म निभाने को कहेगा। अब तो देश में ऐसा प्रधानमंत्री है जो संविधान की पूजा भले कर ले लेकिन सीएम एक ऐसे इंसान को बना सकता है जिसका संगठन गोडसे के मंदिर बनाने की खुली हिमायत करता है।
हिप्पोक्रेसी के आदर्श स्थापित करनेवाले सरकार चला रहे हैं। ये बापू की मूर्ति पर फूल भी चढ़ाएंगे और गोडसे को आदर्श भी बता आएंगे। इन सांप्रदायिक वायरसों के सरकारी कुर्सी पर बैठने से कुछ नहीं बदलेगा, बल्कि सरकारी मशीनरी के तरीके बदल जाएंगे। यूपी में यही हुआ है। अगर अब उस तरीके के बदल जाने पर किसी को डर महसूस होता है तो डरनेवाले से सवाल करने के बजाय उनसे सवाल करो जिन्होंने इसे बदल डाला है। नहीं पूछ सकते तो अपने चैनलों पर कॉमेडी चलाओ। गंभीर विमर्श को कार्टून मत बनाओ। ये लाइसेंस खबर चलाने को मिले थे, सरकारों के चरण सहलाने के लिए नहीं मिले थे।
पहले जब किसी को धार्मिक पहचान के आधार पर कत्ल किया जाता था तो कम से कम इसे अघोषित सरकारी पॉलिसी बनाने की हिम्मत जुटा पाना आसान नहीं था। नेता कर भी दें तो जनता बर्दाश्त नहीं करती थी, लेकिन सालों साल की मेहनत के बाद आवाम का ब्रेनवॉश हो चुका। साढ़े चार साल में अब लिंचिंग भी सड़क हादसे की तरह आम खबर बना दी गई है। सहनशक्ति का लेवल ना सिर्फ बढ़ा दिया गया बल्कि अब तो लिंचिंग झुठला लेने की क्षमताएं भी विकसित कर ली गई हैं। ऐसे में नसीर डरे या नितिन बात गंभीर है।
एक बात और सुन लो, ये मुल्क छोड़कर कोई कहीं नहीं जानेवाला। यही तो तुम चाहते हो। यही नहीं होगा। यहीं रहकर डरेंगे भी, यहीं रहकर लड़ेंगे भी और यहीं रहकर तुम्हें सत्ता से बाहर होते देखेंगे भी। देर से ही सही लेकिन कानून की धार पर तुम भी चलोगे। ये देश किसी कांग्रेस या भाजपा के सहारे नहीं चल रहा है। इस देश का संविधान तुम्हें देर सवेर तुम्हारे मठों में वापस पहुंचा ही देगा।