मोदी सरकार के इस बिल से क्यों नाराज़ हैं पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिक

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26 जनवरी को जब दिल्ली सहित पूरे देश मे गणतंत्र दिवस 2019 मनाया जा रहा था तो इसी अवसर पर देश के सुदूर पूर्व में स्थित एक छोटे से राज्य मिजोरम में वहां के राज्यपाल के राजशेखरन मात्र 6 सशस्त्र कन्टिनजेन्ट की टुकड़ी की सलामी एक लगभग जनशून्य स्टेडियम में ले रहे थे। पूरे मिजोरम में वहां की जनता ने गणतंत्र दिवस समारोहों का बहिष्कार कर दिया था। पूरे राज्य में सभी जिले और तहसील मुख्यालयों पर ऐसे ही बहिष्कार के बीच यह समारोह मनाया गया। जन का अभाव था, पर तंत्र का प्रभाव था। उत्साह नहीं लोगों में असंतोष था। कारण था, नागरिकता संशोधन बिल 2016 का प्रबल विरोध।
गणतंत्र दिवस के समारोहों के बहिष्कार का निर्णय, एक गैर सरकारी संस्था जिसमे सिविल सोसायटी समूह और कुछ छात्र संगठन थे ने किया था। यह बहिष्कार इतना प्रभावपूर्ण था कि आइजोल में होने वाले समारोह में सिवाय मंत्रियों, और बड़े अधिकारियों के आमजनता बहुत ही कम थी। केवल मिजोरम ही नहीं बल्कि पूरे नॉर्थ ईस्ट में सरकार के नागरिकता संशोधन बिल के विरुद्ध लोग मुखर हो रहे हैं। यह अलग बात है कि यहां कोई हिंसक घटना नहीं हुयी और 26 जनवरी का समारोह शांति पूर्वक संपन्न हो गया। बहिष्कार की यह गूंज अब पूरे नॉर्थ ईस्ट में व्याप्त है। ताज़ी खबर यह है कि आसाम सहित सभी राज्य जिन्हें सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है, नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं।
भारतीय नागरिकता और राष्ट्रीयता कानून के अनुसार: भारत का संविधान पूरे देश के लिए एकल नागरिकता को प्राविधित करता है। नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भारत के संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 में दिया गया है। पहले नागरिकता अधिनियम 1955 बना जिसमे 1992, 2003 और 2005 के वर्षों में थोड़े बहुत संशोधन हुए। अब एक महत्वपूर्ण संशोधन 2016 के बिल में प्रस्तावित है, जो आज के विमर्श का विषय है। इन सुधारों के बाद, भारतीय राष्ट्रीयता कानून जूस सोली (jus soli) (क्षेत्र के भीतर जन्म के अधिकार के द्वारा नागरिकता) के विपरीत काफी हद तक जूस सेंगिनीस (jus sanguinis) (रक्त के अधिकार के द्वारा नागरिकता) का अनुसरण करता है। यह पहली बार है धर्म नागरिकता का आधार बनने जा रहा है, अगर यह विधेयक कानून बन गया तो।

भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुसार निम्न में से किसी एक के आधार पर नागरिकता प्राप्त की जा सकती है:

  • जन्म से प्रत्येक व्यक्ति जिसका जन्म संविधान लागू होने यानी कि 26 जनवरी, 1950 को या उसके पश्चात भारत में हुआ हो, अपवाद राजनयिकों के बच्चे, विदेशियों के बच्चे.
  • भारत के बाहर अन्य देश में 26 जनवरी, 1950 के बाद जन्म लेने वाला व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई भारत का नागरिक हो। माता की नागरिकता के आधार पर विदेश में जन्म लेने वाले व्यक्ति को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान नागरिकता संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा किया गया है.
  • भारत सरकार से देशीयकरण का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर भारत की नागरिकता प्राप्त की जा सकती है.

निम्‍नलिखित वर्गों में आने वाले लोग पंजीकरण के द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं:

  • वे व्यक्ति जो पंजीकरण प्रार्थना-पत्र देने की तिथि से छह महीने पहले से भारत में रह रहे हों.
  • वे भारतीय, जो अविभाज्य भारत से बाहर किसी देश में निवास कर रहे हों.
  • वे स्त्रियां, जो भारतीयों से विवाह कर चुकी हैं या भविष्य में विवाह करेंगी.
  • भारतीय नागरिकों के नाबालिक बच्चे.
  • राष्ट्रमंडलीय देशों के नागरिक, जो भारत में रहते हों या भारत सरकार की नौकरी कर रहें हों. आवेदन पत्र देकर भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं.
  • यदि किसी नए भू-भाग को भारत में शामिल किया जाता है, तो उस क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को स्वतः भारत की नागरिकता प्राप्त हो जाती है.

भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 के आधार पर भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1955 में निम्न संशोधन किए गए हैं:

  • अब भारत में जन्मे केवल उस व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान की जाएगी, जिसके माता-पिता में से एक भारत का नागरिक हो.
  • जो व्यक्ति पंजीकरण के माध्यम से भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अब भारत में कम से कम पांच सालों तक निवास करना होगा. पहले यह अवधि छह महीने थी.
  • देशीयकरण द्वारा नागरिकता तभी प्रदान की जायेगी, जबकि संबंधित व्यक्ति कम से कम 10 सालों तक भारत में रह चुका हो. पहले यह अवधि 5 वर्ष थी. नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 जम्मू-कश्मीर व असम सहित भारत के सभी राज्यों पर लागू होगा.

अब इसकी पृष्ठभूमि को देखिये। 1985 में जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे तो, असम गण परिषद और भारत सरकार के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे असम समझौता के नाम से जाना जाता है । उक्त समझौते के मुख्य विंदु थे,

  • 1951 से 1961 के बीच असम आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का निर्णय।
  • 1971 के बाद असम में आये लोगों को वापस भेजने पर सहमति बनी।
  • 1961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को नागरिकता और दूसरे अधिकार जरुर दिए गए लेकिन उन्हें वोट का अधिकार नहीं दिया गया।

असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया। विधान सभा को भंग करके 1985 में चुनाव कराये गए जिसमें नवगठित असम गणपरिषद् को बहुमत मिला और आसू के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत को मुख्यमंत्री बनाया गया. असम समझौते के बाद राज्य में शांति बहाली तो हुई लेकिन यह असल मायने में अमल नहीं हो पाया। कई साल तक मामला बस्ता ए खामोशी  में रहने के बाद साल 2005 में एक बार फिर असम में आन्दोलन तेज हुआ। इस बीच बांग्लादेश के मूल लोगों को संदिग्ध वोटर होने के आरोप में प्रताड़ित किये जाने की खबरें आती रहीं जिनमें बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं. आखिरकार 2013 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा । सुप्रीम कोर्ट ने 1971 को डेडलाइन मानकर नागरिकता के लिये सरकार को नेशनल सिटीजन रजिस्टर बनाने का निर्देश दिया जो काम अभी चल रहा है।
अब प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 को लोकसभा में ‘नागरिकता अधिनियम’ 1955 में बदलाव के लिए लाया गया है। केंद्र सरकार ने इस विधेयक के जरिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैन, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा है। इसके लिए उनके निवास काल को 11 वर्ष से घटाकर छह वर्ष कर दिया गया है। यानी अब ये शरणार्थी 6 साल बाद ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं।
इस बिल के तहत सरकार अवैध प्रवासियों की परिभाषा बदलने के प्रयास में है। यह बिल लोकसभा में 15 जुलाई 2016 को पेश हुआ था जबकि 1955 नागरिकता अधिनियम के अनुसार, बिना किसी प्रमाणित पासपोर्ट, वैध दस्तावेज के बिना या फिर वीजा परमिट से ज्यादा दिन तक भारत में रहने वाले लोगों को अवैध प्रवासी माना जाएगा। इस विधेयक पर विवाद उठ खड़ा हुआ है, जिसका आधार संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होना है। विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। यह धर्म के आधार पर भेदभाव करता है।  अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों, नागरिकों और विदेशियों को समानता की गारंटी देता है।
असम में बीजेपी की गठबंधन पार्टी असम गण परिषद ने इस बिल को स्वदेशी समुदाय के लोगों के सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के खिलाफ बताया है। कृषक मुक्ति संग्राम समिति एनजीओ और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन भी इस बिल के विरोध में मुखर रूप से सामने आ गए हैं। इसके अलावा विपक्षी दल कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट ने भी किसी शख्स को धर्म के आधार पर नागरिकता देने का विरोध किया है। यह भी विवाद है कि बिल को लागू किया जाता है तो इससे पहले से अपडेटेड नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) प्रभावहीन हो जाएगा।
फिलहाल असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया जारी है। एजीपी ने बिल के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत की है। पार्टी के सदस्यों ने कहा कि वह राज्य के लोगों से बिल के खिलाफ 50 लाख हस्ताक्षर इकट्ठा करने करेंगे जिसे जेपीसी के पास भेजा जाएगा। कांग्रेस ने भी बिल को 1985 के असम समझौते की भावना के खिलाफ बताकर इसका विरोध किया है। इनका दावा है कि यह 1985 के ‘ऐतिहासिक असम करार’ के प्रावधानों का उल्लंघन है जिसके मुताबिक 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी अवैध विदेशी नागरिकों को वहां से निर्वासित किया जाएगा भले ही उनका धर्म कुछ भी हो।
उल्लेखनीय है कि 7 मई को बिल को लेकर विभिन्न संगठन और व्यक्तियों की राय जानने के लिए जेपीसी की एक टीम राज्य के दौरे पर थी लेकिन यहां उसका जमकर विरोध हुआ। इस टीम की अध्यक्षता बीजेपी सांसद राजेंद्र अग्रवाल की ने किया था। इस समिति पर विधेयक में विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों की राय शामिल करने के लिए जनता की तरफ से बेहद दबाव है। गौरतलब है कि असम पब्लिक वर्क नागरिकता संशोधन विधेयकनाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने साल 2013 में राज्य में अवैध शरणार्थियों मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। असम के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ था, जिसके बाद गत 30 जुलाई में एनआरसी का फाइनल ड्राफ्ट जारी किया गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने, जिन 40 लाख लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उन पर किसी तरह की सख्ती बरतने पर फिलहाल के लिए रोक लगाई है।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, असम में वर्तमान में नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) को अपडेट किया जा रहा है। इसे उन बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान करने के लिए अपडेट किया जा रहा है जो 24 मार्च 1971 के बाद भारत-बांग्लादेश बंटवारे के समय अवैध रूप से असम में घुस आए थे। 1985 असम समझौते में तारीख तय की गई थी जो प्रधानमंत्री राजीव गांधी और ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के बीच समझौता हुआ था।
दरअसल, एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल एक-दूसरे के विरोधाभासी है। जहां एक ओर बिल में बीजेपी धर्म के आधार पर शरणार्थियों को नागरिकता देने पर विचार कर रही हैं वहीं एनआरसी में धर्म के आधार पर शरणार्थियों को लेकर भेदभाव नहीं है। इसके अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद अवैध रूप में देश में घुसे प्रवासियों को निर्वासित किया जाएगा। इस वजह से असम में नागरिकता और अवैध प्रवासियों का मुद्दा राजनीतिक रूप ले चुका है। नागरिकता की डेड लाइन 24 मार्च 1971 रखी गयी है जिसका कारण है भारत पाक युद्ध 1971 के बाद बांग्लादेश का निर्माण हो जाना है। उस तिथि के बाद जो भी व्यक्ति बांग्लादेश से भारत मे आकर बसा है वह अवैध नागरिक माना जायेगा, चाहे उसका धर्म कोई भी हो। पर नए संशोधन में मुस्लिमों को नागरिकता देने का निषेध प्रस्तावित है जबकि हिन्दू, बौद्ध पारसी, ईसाई आदि को नागरिकता प्रदान करने की बात की गयी है। भाजपा के नेतागण इसे प्रचारित भी कर रहे हैं।
भारत के संवैधानिक इतिहास में संभवतः यह सबसे अधिक विवादास्पद बिल होगा जो संविधान की मूल भावना और भारत की अवधारणा के विपरीत लाया जा रहा है। पहली बार देश मे नागरिकता का आधार धर्म बनने जा रहा है जो जिन्ना और सावरकर के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर आधारित है जिसे भारत ने बहुत पहले ही रद्द कर दिया है। यह संविधान के अनुच्छेद 15 , जो समानता का अधिकार सभी नागरिकों को देता है , का स्पष्ट उल्लंघन है।इस प्रकार यह भारत की महानतम विरासत सर्वधर्म समभाव और आज़ादी के आंदोलन के सबसे मौलिक विंदु धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत के सर्वथा विपरीत है। यह भी हैरानी की बात है कि ऐसा संविदा विरोधी बिल लोकसभा से कैसे पारित हो गया और अब राज्यसभा मे पेश किया जाने वाला है।
इस बिल की दो गम्भीर प्रतिक्रियाएं होंगी। सबसे पहले इसकी प्रतिक्रिया और प्रभाव और नार्थ ईस्ट के राज्यों में होगा, जहां लंबे समय तक पलायन और विस्थापन होता रहा है। दूसरा इसका असर पूरे भारत मे होगा, जहां पहली बार नागरिकता के पैमाने बदल दिए गए हैं। नागरिकता का आधार धर्म कभी भी किसी भी धर्मनिरपेक्ष राज्य में नहीं रहा है। यह अवधारणा ही थियोक्रेटिक यानी धर्म आधारित राज्य की है। जिसे अब 1937 के सावरकर के सिद्धांत कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए और पाकिस्तान मुसलमानों के लिये होगा, पर आधारित मान लिया जा रहा है। पिछले अनेक वर्षों से सोशल मीडिया पर धर्मनिरपेक्षता को एक अपशब्द के रूप में जो प्रचारित किया जा रहा है उसे अब एक ऐसे कानून द्वारा स्थापित करने की यह साज़िश है जो संविधान के मूल ढांचे के ही विपरीत है।
जहां तक नॉर्थ ईस्ट राज्यों का सवाल है वहां इसका असर अधिक और अलग तरह से पड़ेगा। जैसा कि ऊपर लिखा चुका है यह बिल 1985 के असम समझौते का खुला उल्लंघन है, जिसमे 24 मार्च 1971 को नागरिकता के लिये अंतिम तिथि तय की गयी है। यह बिल सरकार के उस आश्वासन को खंडित कर देता है जो भारत सरकार ने असम के नागरिकों से किया था। इससे असम और नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्यों को शेष भारत से मनोवैज्ञानिक रूप से दूर कर देगा। आज ही के अखबार में इसकी बेहत तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है जब मिजोरम के बाद असम ने भारत संघ से अलग होने की बात की है। असम, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड में इस बिल की प्रतिक्रिया में जो स्वर उठ रहे हैं उनसे इसे बखूबी समझा जा सकता है। इससे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में जो बहुत पहले से अलगाववाद के वायरस से पीड़ित रह चुके हैं और अनेक प्रयासों के बाद हुए विभिन्न समझौतों से जहां शान्ति की बयार चली है वहां फिर से अशनि संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। यह साम्प्रदायिकता को भी भड़कायेगा और फिर अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चल रही एनआरसी की कार्यवाही का यह बिल विरोधाभासी है। एनआरसी ने 24 मार्च 1971 की डेटलाइन तय कर रखी हैं। जिसमे कोई धार्मिक विभेद नहीं है। उक्त के संबंध में जो आंकड़े हैं, उसके अनुसार 40 लाख वे लोग हैं जो अवैध रूप से भारत मे रह रहे हैं, जिनमे से 25 लाख मुस्लिम है और शेष 15 लाख हिन्दू हैं, जिन्हें असम समझौते के अनुसार विदेशी माना जा सकता है। अगर यह बिल कानून बन जाता है तो धर्म के आधार पर सभी हिन्दू भारत के नागरिक तो बन जाएंगे पर उन्हीं के साथ के विदेशी घोषित मुस्लिम अवैध घोषित हो जाएंगे। यह सुप्रीम कोर्ट के एनआरसी के निर्देशों के सर्वथा विपरीत है। इसका असर पूरे भारत मे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रूप में पड़ेगा जो देश की एकता के लिये एक आघात होगा। एनआरसी के दिशानिर्देश स्पष्ट हैं कि उक्त डेटलाइन के अनुसार कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म का हो, भारत के लिये अवैध प्रवासी माना जायेगा।
यह बिल अब राज्यसभा में जायेगा लेकिन इसका व्यापक विरोध शुरू हो गया है। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों द्वारा विरोध तो हो ही रहा है, भाजपा की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड ने भी इसके खिलाफ मतदान करने का निर्णय लिया है। जदयू ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के साथबैठक के उपरांत असमी ‘‘अस्मिता’ को समर्थन देने का फैसला किया है। इस बिल का विरोध इल्लिगल माइग्रेशन डिटेक्शन बाई ट्राइब्यूनल (आईएमडीटी) मामले में सुनवाईके दौरान सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से रेखांकित होता है, “बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से आने वाले लोगों के खतरनाक असर, असम के लोगों और समूचे राष्ट्र पर, को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसा करते में किसी तरह की भ्रमित धर्मनिरपेक्षता को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए।”
यह बिल मूलतः भाजपा की साम्प्रदायिक सोच को ही उजागर करता है। भारत कभी भी एक धर्म विशेष का देश  नहीं रहा है है और न ही कभी धर्म आधारित राज्य की यहां  परिकल्पना की गयी। यह बिल उस सामाजिक ताने बाने को कमज़ोर करता है जिसके टूटने से देश के बिखरने का खतरा है। सरकार को भी यह पता है कि धर्म के आधार पर बनाया गया कोई भी कानून संविधान के मूल ढांचे के सर्वथा विपरीत है और अदालत में यह कानून असंवैधानिक घोषित हो जाएगा। पर अदालत जब करेगी तब करेगी, पर यह बिल या कानून तब तक विवाद, बहस, आरोप, प्रत्यारोप का विंदु बना रहेगा और सत्तारूढ़ दल का चिरपरिचित राजनैतिक एजेंडा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को पूरा करता रहेगा। चुनावी वर्ष में संवैधानिक मान्यताओं के अधिक वोटखींचू ट्रिक्स अधिक काम आते हैं। यहां वही नियम लागू हो जाता है कि युद्ध और प्रेम में सभी कुछ जायज़ हैं। यह चुनाव भी तो पानीपत का तीसरा युद्ध घोषित ही हो चुका है ! यह बिल संविधान, देश की अस्मिता, एकता, अखंडता और भारत की आत्मा के सर्वथा विपरीत है।

© विजय शंकर सिंह