भारत के इतिहास और राजनीतिक दांव पेंच के पिछले 160 बरस अगर आप नजदीक से देखना चाहते हैं, तो ग्वालियर के महल की खिड़की से देखिए। यहां पर शो की फ्रंट सीट लगी है। सब नजदीक से साफ साफ दिखता है।
शो 1857 से शुरू होता है।तब तक लुटेरी कम्पनी सरकार ने, दीवानी पर कब्जे जमाये थे, और फौजदारी अधिकार अधीनस्थ रजवाड़ो के हाथ में छोड़ रखा था। ऐसे मे पब्लिक डीलिंग रजवाड़ो के हाथ थी। जब 1858 में कम्पनी को हटाकर सीधे ब्रिटिश क्राउन ने सत्ता हाथ मे ली। उन्होंने 1857 के ग़दर से गहरे सबक लिए।
पहला- इस ग़दर में हिन्दू मुस्लिम जनता शिद्दत से, साथ साथ लड़ी थी। इसे डिवाइड करना था। दूसरा- राजाओ नवाबों का कोई भरोसा नही है, पब्लिक डीलिंग सीधे सरकार को हाथ मे लेना होगा। बांटने के लिए अंग्रेजो ने मुस्लिम रजवाड़ों से कड़ा और हिन्दू रजवाड़ो से नरम बिहेव करना शुरू किया। मुस्लिम नवाब और उच्च वर्ग हाशिये में फील करने लगे। हिन्दू मुस्लिम एकता टूटी।
अंग्रेजो का ये नरम गरम बर्ताव नैचुरल था। तब उत्तर भारत में या तो मुगल बिखराव से उपजे मुस्लिम रूलर थे, या मराठा खंडहरों पर उगे हिन्दू रजवाड़े। ग़दर में मुस्लिम रजवाड़े, और वहाबी आंदोलन से उपजे जननायक कहीं ज्यादा मजबूती से आगे थे। सिंधिया आदि मराठा मूल के रजवाड़े कम्पनी सरकार के साथ गए। असल मे, विद ड्यू रिस्पेक्ट टू रानी लक्ष्मीबाई.. 1857 की क्रांति का मंच झांसी नही, बेगम हजरत महल का लखनऊ था। ये हमे आज नही पता, मगर तब अंग्रेजो को पता था।
तो सत्ता से बेदखल होते मुस्लिम वर्ग में जो होशियार थे, उन्होंने सामाजिक सुधार और शिक्षा की ओर ध्यान दिया। अगर नवाबी न रहे, तो समाज के लोग पढ़ लिखकर अफसर ही बन जाएं। सत्ता में भागीदारी रहेगी। नतीजतन अलीगढ़ का कालेज आया, मुस्लिम बुद्धिजीवी साथ आये। नवाबो ने कॉलेज के लिए दान दिया। इसी में से मुस्लिम लीग निकलने वाली थी।
इधर डायरेक्ट पब्लिक डीलिंग के लिए अंग्रेजों ने बनाई कांग्रेस। देश भर के एनजीओ, वकील टाइप लोगो की सालाना सभा। इसमे पढ़े लिखे प्रगतिशील लोग थे। कोई दिक्कत हो, तो सरकार से आवेदन निवेदन करके निपटा लें, न कि ग़दर विद्रोह की सोचे। तिलक द्वारा कांग्रेस की तासीर बदल देने के पहले ये सिस्टम काफी सफल हुआ।
कांग्रेस प्रगतिशील लोगो की संस्था थी। अनुनय विनय अक्सर देशी राजा के टैक्स, कानून अत्याचारों के खिलाफ होते थे। जब जब कांग्रेस की सुनी जाती, राजा नवाबों की जेब कटती। तो राजाओ नवाबों इसे काउंटर करने के लिए जनसंगठन चाहिए था। मुस्लिम नवाबों ने पहले एक्ट किया, मुस्लिम सेंट्रिक बुद्धिजीवीयो से मुस्लिम लीग बनवाई।
पीछे पीछे हिन्दू रजवाड़े थोड़ा लेट से जागे। सेम प्रोसेस से बीएचयू बना, मदनमोहन मालवीय ने राजाओ से दान लिया। सिंधिया ने भी दिया। मालवीय जी सबको साथ लिए। उनके संगत के हिन्दू सेंट्रिक बुद्धिजीवियों से धीरे से हिन्दू महासभा बन गयी।
अब तीन टीमें खेल रही थी। समय के साथ कप्तान बदलते हैं। हिन्दू राजाओ की टीम हिन्दू महासभा, कप्तान सावरकर। नवाबों की टीम मुस्लिम लीग, कप्तान जिन्ना। और आम पब्लिक की टीम कांग्रेस, कप्तान गांधी। आगे चुनाव आते हैं। तीनो में मैच चलता है। अंपायर अंग्रेज हैं, कभी इसके फेवर में रोंठाई करते है, कभी उंसके फेवर में रोंठाई करते है। मगर दरअसल हमेशा अपने फेवर में रोठाई करते हैं। रोठाई बोले तो बेईमानी। खैर ..
यहां पब्लिक की टीम कांग्रेस मजबूत है। तो कई बार राजा और नवाबो की टीम मिलकर उसका मुकाबला करती हैं। फिर आपस मे भी लड़ती है। किस्सा चलता रहता है।
फिर अंपायर छोड़कर निकल लेता है। जाते जाते नवाबों की टीम को पाकिस्तान दे जाता है। भारत पब्लिक की टीम, याने कांग्रेस के हाथ लगता है। राजाओ की टीम याने हिन्दू महासभा टापते रह जाती है। नेहरू सम्विधान और धर्मनिरपेक्षता ले आते हैं। इनके हिन्दू राज्य, बाबा, पंडे, सब खिसियाये रह जाते हैं। अभी ये 70 साल खिसियायें रहने वाले हैं।
हिन्दू महासभा के सबसे बड़े पोषक और फ़ंडर महाराज सिंधिया थे। विलय के बाद नेहरू ने चाहा कि जीवाजी कांग्रेस जॉइन कर लें। सेंट्रल प्रान्त का राज्यपाल भी बनाया। मगर जीवाजी तन मन धन से महासभाई थे।
नेहरू के लिहाज में पत्नी को कांग्रेस में भेजा। विजयाराजे कांग्रेस सांसद हुई। मगर ध्यान दें, की पत्नी भले कांग्रेस में थी, लेकिन जनसंघ को जो भी सीटें आती रही, वे पूर्व ग्वालियर राज्य से ही आती रही। इसे ड्युअल गेम कह सकते हैं क्या?
1967 में डीपी मिश्र, इंदिरा, विजयाराजे के ईगो क्लैश में, डीपी की सरकार जाती है। राजमाता सिंधिया जनसंघ के विधायकों के समर्थन से कॉंग्रेस तोड़कर पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनवाती है। अभी नेहरू की बेटी, जो राजमाता से बेहद जूनियर है, पीएम हो चुकी।
राजमाता मुहिम छेड़कर सारे रजवाड़ो को फिर एक कर रही हैं। मिशन- महासभा वाली टीम/जनसंघ को पुनर्जीवित करना फंडिंग करना, उसे सत्ता में लाना। लेकिन इंदिरा तो इंदिरा थी, सारे मास्टरस्ट्रोक की अम्मा थी।
पैसा राजाओ की ताकत थी। पैसा जो सरकार से मिलता था, अपना राज्य भारत मे विलय करने के बदले। ये प्रिवीपर्स कहलाता था। इंदिरा 8 बजे टीवी पर हाथ नही हिलाई, मगर राजाओ का धनस्रोत सूख गया। प्रिवीपर्स खत्म हो चुका था। जयपुर में छापा पड़ा, मिला कुछ नही। 1500 डॉलर मिले, विदेशी मुद्रा कानून में राजमाता रानी गायत्री देवी डिटेन हुई। रजवाड़ो ने सरेंडर कर दिया।
मगर राजमाता भी शेरनी थी। जनसंघ के साथ खुलकर रही।इमरजेंसी में राजमाता सिन्धिया को जेल भेजा जाता है। बेटे माधवराव नेपाल भाग जाते हैं। फिर कोई सेटिंग होती है। बेटा कांग्रेस जॉइन कर लेता हैं। कांग्रेस सांसद हो जाता है। इंदिरा की हत्या हो जाती है।
राजीव और माधव विदेश की पढ़ाई के वक्त दोस्त थे। व्हाट्सप गल्प है कि सोनिया से राजीव माधवराव के मार्फ़त मिले थे। कौन जाने। जानिए इतना कि जीवाजी के खिलाये पढ़ाये बढ़ाये अटल से, राजीव माधवराव को सीधे भिड़ा देते हैं। अटल खेत रहते हैं। ये 1985 था। भाजपा दो सीटों पर सिमट गई।
परिवार में सम्पत्ति और दूसरी वजहों से मतभिन्नता है। माधव की बहने मा के साथ हैं। परिवार की स्वाभाविक तासीर के अनुरूप भाजपा में जाती हैं। एक वंसुन्धरा दो बार सीएम हो चुकी। दूसरी एमपी में सीनियर विधायक हैं।
इधर माधव को कॉन्ग्रेस में ऊंची जगह मिलता हैं। राजीव के बाद गांधी परिवार के निर्वासन के दौर में वे कांग्रेस छोड़ते हैं। भाजपा में नही जाते, अपनी पार्टी बनाकर जीतते हैं। परिवार का दौर लौटते ही कांग्रेस में लौट आते हैं। विधि का विधान, कांग्रेस की सत्ता लौटने के ठीक पहले देहांत हो जाता है।
ज्योतिरादित्य उनकी जगह लेते हैं। मंत्री, सांसद, सीएम कैंडीडेट (2013) सब होते हैं। उन्हें पिता की लिगेसी और खानदान की तासीर में से एक का चुनाव करना था। ताजा खबरे यही हैं कि उन्होंने अपने दादाजी की टीम का बारहवां खिलाड़ी होना तय किया है। मगर शो अभी बाकी है। देखते रहिये।
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