आज 24 अक्टूबर 2017 को आखिरी मुग़ल बादशाह, और 1857 भारत की पहली जंग-ए-आज़ादी के नेता, बहादुरशाह ज़फर, की 242वी जयंती है।
सिर्फ दो हफ्ते बाद, 7 नवंबर 2017 को,ज़फर की 155 वीं पुण्यतिथि भी आ जाएगी. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी म्यांमार यात्रा के दौरान रंगून में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर श्रृद्धांजलि अर्पित की थी।
बहादुर शाह ज़फर के अवशेष भारत लाये जाएं
1862 में एक निर्वासित ब्रिटिश युद्धबंदी के रूप में बहादुर शाह ज़फर का रंगून में निर्धन हो गया था. उन्हें इस बात का अफ़सोस और रंज था, कि उनके जिस्म को अपनी ज़मीन हिन्दुस्तान पर नहीं दफ़नाया जायेगा:
“कितना बदनसीब है ज़फर दफ्न के लिए…दो गज़ ज़मीन भी न मिली कुए यार में”.
1943 में दिल्ली की ओर आईएनए मार्च की शुरुआत करने से पहले, सुभाष चंद्र बोस बहादुर शाह ज़फर की कब्र को सलामी देने के लिए रंगून गए थे। यह भारतीय राष्ट्रवादियों की एक लंबे समय से मांग है कि ज़फर की अस्थियां-अवशेषों को भारत में वापस लाया जाए। और 1857 का एक पूर्ण पैमाने पर स्मारक बनाया जाए। विशेषकर विभाजन के बाद, यह महसूस किया गया था कि भारत को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक चाहिए।
1857 की ख़ासियत
- 1857 में मुख्यतः एक हिंदू किसान सेना ने दिल्ली के सिंहासन पर एक मुस्लिम राजा की स्थापना की।
- कानपुर में ब्राह्मण नाना साहब को विशेषकर एक मुस्लिम घुड़सवार सेना ने सत्ता पर आसीन किया।
- एक ओबीसी-दलित सैन्य बल ने, सुन्नी मुसलमान अहमद उल्लाह शाह के नेतृत्व में, बेगम हजरत महल (लखनऊ के शिया शासक वाजिद अली शाह की पत्नी) और उनके बेटे बिरजीस कदर को गद्दी पर बिठाया।
- दिल्ली, कानपुर और लखनऊ में हुई क्रांतिकारी घोषणाएं 1857 के बहु-धार्मिक, बहु-जाति, प्रगाही-बहुवचन (plural) प्रकृति को दर्शाती हैं। भारत के एक संवैधानिक गणराज्य बनने के 93 साल पहले, लखनऊ घोषणापत्र ने ऊपरी और निचली जातियों के बीच समानता की बात की थी।
भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश की राजनीतिक शक्तियां 1857 को अपने महान औपनिवेशिक विरोधी लड़ाई की आवाज़ के रूप में स्वीकार करती हैं। लेकिन, सभी तीनों देशों में 1857 की विरासत उपेक्षित रहती है।