अमरीका के 17 राज्यों में किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत बाकी किसी अन्य पेशे के मुक़ाबले 5 गुना ज़्यादा हो गया है। वरिष्ठ सैनिकों की आत्महत्या दर से भी दुगना।
आस्ट्रेलिया में हर चार दिन पर और ब्रिटेन में हर सात दिन पर एक किसान आत्महत्या करता है। फ्रांस में हर दूसरे दिन एक किसान आत्महत्या करता है। भारत में 1995 से अब तक 2 लाख 70,000 आत्महत्या कर चुके हैं।
2013 से अमरीका में किसानों की कुल आमदनी में 50 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। 2017 के लिए किसानों की आमदनी प्रोजेक्ट की गई है जो निगेटिव में है। 1325 डॉलर। ज़्यादातर जींसों यानी उत्पाद के दाम लागत से कम हैं। लिहाज़ा किसानों के पास पैसा नहीं है। वह अपनी दवाइयों के दाम नहीं दे पा रहा है। अगली फ़सल कहां से उगा पाएगा।
गार्डियन और न्यूज़वीक किसानों की आत्महत्या पर विस्तार से छाप रहे हैं। गार्डियन में Debbie Weingarten ने इस पर लंबा और अच्छा लेख लिखा है।
डेब्बी ख़ुद भी किसान रही हैं। जब उन्होंने देखा कि अमरीका में किसानों के काम को काफी सराहा जाता है, शायद भारत की तरह जय जवान जय किसान टाइप होता होगा।
डेब्बी ने देखा कि किसानों की सच्चाई कुछ और है। उनकी ज़िंदगी के भीतर बहुत सारी अनकहीं तकलीफें हैं, जो उन्हें मार रही हैं। किसानों की व्यथा को दर्ज करने के लिए डेब्बी ने किसानी छोड़, उनसे मिलकर लिखना शुरू कर दिया। डेब्बी अमरीका में घूम घूम कर किसानों की आत्महत्या को समझने का प्रयास कर रही हैं।
डेब्बी ने अपनी रिपोर्ट के लिए रॉसमैन से बात की है। रॉसमैन अमरीका के अग्रणी मनोवैज्ञानिक हैं, जो किसानों के behavioural health पर काम करते हैं। उन्होंने किसानों के मन को समझने में चालीस साल लगा दिए। क्या भारत में कोई ऐसा होगा? रॉसमैन भी खेती करते हैं और उन्होंने ऐसा सिस्टम पैदा किया है जो किसानों की बीच उम्मीद पैदा करता है।
गार्डियन की इस रिपोर्ट में एक किसान ब्लास्के से बातचीत है। ब्लास्के ने बताया है कि जब उसकी फसलों में आग लग गई तो बैंकों ने ताड़ लिया कि अब वह कर्ज़ लेने आएगा। बैंकों ने झट से ब्याज़ दर बढ़ाकर 17 प्रतिशत कर दिया। ब्लास्के ने कई बैंकों के चक्कर लगाए मगर किसी को फर्क नहीं पड़ा। उसे अपनी 265 एकड़ की ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और ख़ुद को दिवालिया घोषित करना पड़ा। ब्लास्के ने कहा है कि ज़मीन जाने से किसान पर क्या गुज़रती है, कोई नहीं समझ सकता है।
रॉसमैन ने किसानों के बीच रहकर एक सिद्धांत बनाया है जिसे वे agrarian imperative theory कहते हैं। वे कहते हैं कि वही लोग खेती में जाते हैं जिनके बीच इंसानों के लिए पैदा करने का भाव बहुत मज़बूत होता है। इतना कि वह इंसानी ज़रूरत की चीज़ों को किसी भी कीमत पर उगाने का बोझ उठा लेते हैं। इन बातों को पढ़कर भारत के किसानों की याद आ रही है। जब किसान अपने इस मकसद में कामयाब नहीं होता है, उसे लगता है कि वह लोगों के लिए उगा नहीं पा रहा है तो वह टूट जाता है।
यही चीज़ तमाम घाटों के बाद भी किसानों को खेती में फंसाए रखती है। वो आपूर्ति करने के भाव से खुद को अलग नहीं कर पाता है। अब समझ में आया कि क्यों भारत के किसान भी लगातार घाटे को बर्दाश्त कर लेते हैं मगर खेती से अलग हो जाना उनसे सहन नहीं होता है।
अमरीका में किसान अकेला महसूस करता है, आर्थिक बोझ ने मानसिक रूप से परेशान कर दिया है और मौसम में आने वाले अचानक बदलावों ने उसे डरा दिया है। एरिज़ोना की एक किसान ने बताया है कि वह सब्ज़ियां उगाती थी। खेती से कर्ज़ बढ़ गया है। अनाज उगाती थी मगर अनाज खरीदने की स्थिति में कभी नहीं हुई। सप्ताह में अस्सी घंटे के काम करने के बाद भी कभी इतने पैसे नहीं हुए कि डेंटिस्ट के पास जा सकें।
अमरीका में लंबे समय तक किसानों के बीच काम करने के बाद एक सिस्टम तो बन गया है कि उन्हें कैसे भावनात्मक सहारा दिया जाए। इस बारे में भी यह रिपोर्ट बात करती है। अपनी ज़मीन गिरवी रखने वाले ब्लास्के कहते हैं कि जब भी तनाव होता है वह पेंटिंग करने लगते हैं। अपनी ज़मीन की डिटेल तस्वीर बनाने लगते हैं। अपनी तरह परेशान दूसरे किसानों से बात करने लगते हैं।
ब्लास्के की बात ने भावुक कर दिया।
हम सबके मित्र गिरिंद्रनाथ झा की बातों से कितनी मिलती जुलती है ब्लास्के की बातें। लगता है ब्लास्के भी पूर्णिया का किसान है, अमरीका का नहीं। कुछ तो है इस सिस्टम में जो दुनिया भर के किसानों को तोड़ रहा है। किसानों को उठना होगा इस सिस्टम को तोड़ देने के लिए।
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