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खाने के मामले में बच्चों को नखरैल न बनने दें

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क्या आपके बच्चे के पसंदीदा मेन्यू में घर की सब्ज़ियों/डिशेज़ के बस चुनिंदा नाम हैं? क्या नखराले बच्चों के पोषण को लेकर चिंता रहती है? अलग अलग वैरायटी, रंग बिरंगे खाने, बढ़िया गार्निशिंग सब कोशिश कर ली, पर बच्चे चखने को तैयार हों तब न बात आगे बढ़े।
समाधान कई हैं पर समस्या की जड़ पर बात बहुत कम। कुछ बहुत मूलभूत और सरल बातों की जानकारी आपके बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण की नींव मज़बूत कर सकती है-

  • उम्र महत्वपूर्ण है – यदि आपका बच्चा 6-24 माह के आयु वर्ग में है तो यक़ीन मानिये ये खाने की पसन्द तय करने का स्वर्णिम काल है। इसे मत चूकिये। इस समय जितना हो सके उतने नये नये स्वादों से बच्चे का परिचय कराएं। इस समय जितना ज़्यादा अलग अलग स्वादों के सम्पर्क में आएगा बच्चा, उतने नखरे कम होंगे आगे चलकर। पर अगर बच्चा बड़ा हो गया है तो भी कोई बात नहीं।लेकिन जितना बड़ा बच्चा उतनी ज़्यादा मेहनत।
  • उनके टेस्ट बड्स आपसे ज़्यादा हैं और सक्रिय भी – स्वाद कलिकाएं या टेस्ट बड्स उम्र के साथ कम होते जाते हैं। हमें जो गन्ध या स्वाद अच्छा लगे हो सकता है बच्चे को वह परेशान कर रहा हो। ‘मीठा भला है कड़वा-तीखा बुरा’ शुरुआत में बच्चों का टेस्ट सेन्स इसी नियम का अनुसरण करता है। यह प्रकृति प्रदत्त होता है। चूंकि माँ का दूध मीठा होता है, दूषित, विषैली चीज़ों का स्वाद कड़वा कसैला, तो बच्चा मीठे स्वाद के प्रति आकर्षित होता है। दूसरे स्वाद नहीं भाते। अतः खाने की गंध और स्वाद सुग्राह्य बनाना आवश्यक है।
  • एक बार ना, हर बार की ना नहीं होता – जो सब्ज़ियां या स्वाद बच्चे को एक बार पसन्द नहीं आए, ज़रूरी नहीं कभी पसन्द नहीं आएगा बशर्ते आपने कोशिश करना न छोड़ा हो। जब भी बच्चा कुछ नापसंद करे, थोड़े परिवर्तन के बाद उसे दुबारा दें, बार बार देते रहें, कुछ समय बाद शरीर उसे स्वीकार कर ही लेगा।
  • बच्चे को एहसास होने दें कि खाना नहीं बल्कि खाना न मिलना सज़ा है – खाने की थाली को बच्चे दण्ड के तौर पर न देखें इसका ख़्याल रखें। भूख न होने पर ज़बर्दस्ती कभी न खिलाएं नहीं तो बहुत सी शारीरिक और मानसिक समस्याएं उसे घेर लेंगी। उल्टी, अपच, पेटदर्द, भूख न लगना, अरुचि, एनोरेक्सिया, वज़न घटना या ज़्यादा बढ़ना आदि ज़बर्दस्ती खिलाने के परिणाम हैं। खाने के लिये मारपीट कभी न करें। नहीं तो बच्चा पनप नहीं पाएगा।भूख का एहसास होने पर ही खाना दें। खाने से पहले या खाने के विकल्प के तौर पर जूस, फ्रूट्स, दूध आदि न दें। इनसे भूख मर जाती है।
  • याद रखें, बच्चे खुद कमाने नहीं जाते – जी हाँ। आपकी ये शिकायत ग़ैर वाजिब है कि बाहर का सब चटपटा तीखा खा लेते हैं बच्चे, घर का पसन्द नहीं आता। उनको बाहर का खाने के पैसे घरवालों से ही मिलते हैं जो उनकी ईटिंग हैबिट्स बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चों को घर के खाने पर कुछ पॉइंट्स दीजिये। हरी पत्तेदार सब्ज़ियों पर सबसे ज़्यादा पॉइंट रखिये। इन पॉइंट्स के बदले बच्चा हफ्ते में एक बार उसका पसंदीदा फ़ास्ट फ़ूड खा सकता है, रोज़ रोज़ नहीं। उसे अहसास हो कि जो वह खा रहा है उससे उसकी सेहत को नुक़सान होगा।
  • प्रोत्साहन दीजिये लालच नहीं – खिलाने के लिये टीवी, कार्टून्स, गेम, आइसक्रीम, घुमाने फिराने आदि का लालच न दें। बल्कि जो बच्चा अच्छे से खाता है उसकी तारीफ़ करें, जो नहीं खाता, उससे एक बार पूछकर उसके मना करने पर थाली हटा दें। उसके सामने बैठकर खाएं पर उससे न पूछें न ही उसके लिये कुछ अलग से बनाएं ,वह बाहर या कहीं और कुछ खा ना आए इसका भी ध्यान रखें। ये कुछ दिनों की सख्ती, उसकी भूख खुलकर आगे से जो भी बना हो वह सबके साथ बैठकर खाने की आदत डलवा देगी।
  • अपना मास्टरशेफ ख़ुद बनने दें – अगर थोड़े बड़े बच्चे हैं तो उनसे पूछकर खाना बनाइये, बनाते समय उनकी मदद लीजिये, अलग अलग प्रयोग उन्हें करने की आज़ादी दें। छोटे हों तो उन्हें साथ लेजाकर उनकी पसन्द से खरीदी करें। जगह हो तो छोटा सा किचन गार्डन बना लें। बच्चे जो ख़ुद उगाते/खरीदते/बनाते हैं, अमूमन उन्हें खुशी खुशी खाते हैं। मतलब यह कि सक्रिय सहयोग भोजन में रुचि जगाता है, बस एक बात का ध्यान रखें शुरुआत में एक दिन में एक ही तरह का खाद्यान्न या फल सब्ज़ी दें ताकि उससे किसी किस्म की एलर्जी या तक़लीफ़ तो नहीं हो रही, पता लगाया जा सके।
डॉ नाज़िया नईम
इन्क्रेडिबल आयुर्वेद
भोपाल