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करुणा और ममता के सागर से भरी होती है "मां"

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एक ऐसा शब्द जिसमे संसार की करुणा और ममता का सागर भरपूर मात्रा में हमेशा भरा रहता है । जिसकी कीमत न कोई चुका पाया है और न चुका पायेगा । माँ भी वही  इंसानी हाड़ की एक शाखा है  जो वही  दो आँख, दो पैर , नाक,  रूप व चाल ढाल ,शारीरिक संरचना , बुद्धिमत्ता और अनेको समान संरचना का जीता जागता उदहारण है । माँ शब्द के किसी भी सन्दर्भ में आने से साफ़ तोर पर ये  बोध हो जाता है और वो ये की सबकी फ़िक्र करने वाली , सबका ख्याल रखने वाली , दिल की बहुत साफ़ , अपनों के प्रति अपना समर्पण करनी वाली , एक छोटे दिल में भावनाओ का अंबार, फ़िक्र, त्याग से पूर्ण महिला जिसे माँ  दर्जा दिया गया है । उसकी चित्र आँखों के सामने उभर कर साफ़ तोर पर आ जाता है ।
हर कोई  उस प्यारे बन्धन और खुशनुमा इंसान का प्यार पाता है परन्तु कुछ एक को छोड़ कर जिनके भाग्य में वो प्यार नही था या है वो उससे अछूते रह जाते है जो काफी दर्दनीय प्रतीत होता है ।  व्यक्तिगत स्तर पर सबके अलग अलग सन्दर्भ होते है  जिसके आधार पर अपना जीवन बिताना होता है । अब चाहे मां  साथ में हो या न हो ।
इसमें एक और बात महत्वपूर्ण ये है की समाज में माँ के कुछ अलग सन्दर्भ और वास्तविकता अपने अनुसार निश्चित होते है जिसे हर कोई मानता है अपने स्तर पर । माँ के दो रूप जो व्यवहारिक होते है एक माँ जो हमारे पैदा होने से पहले ही हमारी माँ है क्योंकि उसके  गर्भ में  बिताये 9 महीने में ही वो रिश्ता बन जाता है जो अटूटनीय है । दूसरा बात ये है की माँ का एक और दूसरा भी सन्दर्भ निकलता है , और वो ये कि जिसने जन्म नही दिया है हमे जिसे आमतौर पर सौतेली माँ का दर्जा दिया जाता है। लेकिन में मानता हूँ की “माँ “माँ होती है पर हो सकता है । इस का समाज में बहुत बड़ा हस्तक्षेप है जिससे नदारद लोग  समाज में  है। जिससे को कभी नकारा नही जा सकता है ।
शुरुआत से ही एक बेटी के रूप में  पैदा होने के साथ साथ वो अपना हक और मुकद्दर अपने  साथ लाती है , धीरे धीरे वह बड़ी हो जाती है और हर एक काम में हाथ बताने लग जाती है , और जब एक लड़की किसी के घर ब्याह कर जाती है तो वह अपना और अपने ससुराल का भविष्य साथ लिए जाती है , उससे जुड़े हर चीजो का जो  इसके और उससे सम्बंधित कल्याण के लिए जरूरी है सब साथ लिए जाती है जो सब गोपनीय रूप में होता है ।
शादी के पश्चात माँ बनने पर उसके पैरो तले जन्नत रख दी जाती है। जो माँ के मुकाम का बहुत बड़ा सिद्ध चिन्ह होता है । बच्चे के बड़े होने तक बच्चा वो मजबूत रिश्ता किसी पर के साथ में नही बन पाटा है जो उसका माँ के साथ में बन जाता है,और इसिलिये बच्चे के मुह से निकलने वाले पहले शब्दों में  माँ सबसे पहला होता है । बच्चे के बोलने  से लेकर चलने तक से लेकर ऑफिस के भाग थमाने तक के  पीछे माँ की बहुत कड़ी मेहनत छिपी होती है जिसे समाज के किसी भी तराजू में अगर तोला जाये बशर्ते वो पलड़ा भारी होगा। बच्चे के खुद  बोलने से पहले उसकी शब्दकोश और कोई नही पहली उसकी माँ ही होती है जो उसे समाज में लाती है उसका हाथ थाम कर उसका कदम इस समाज में रखवाती है उस रुपरेखा में ढाल कर।
बड़े बूढो का कहना था की जिसके माँ और पिता जिस बच्चे से राजी है जिससे खुश है उसको कामयाब होने से कोई नही रोक सकता है । उसके  पीछे  बहुत बड़ी शक्ति की प्रार्थना लगी है जो कभी अस्वीकार नही होती है।
इधर उधर भटकने से पहले ये ध्यान कर लेना चाहिए की मेरी माँ तो मुझसे नाराज नही है पहले उसे मनाओ वरना सब होकर भी नही होगा ।
माँ शब्द में संसार की वो सब खुशियां आ जाती है जिनके अभाव में व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करता है । सभी की जीवन में माँ के लिए एक पूर्व निर्धारित मुकाम होता है जिसका स्थान कोई नही ले सकता है। न कोई उसके लायक बन पाता है कहने को चाचा “पिता” समान औधा रखता है और जिस तरह मौसी माँ का वैकल्पिक दर्जा रखती है परन्तु जो व्यवहारिक और वास्तविकता का बोध उस रूप से होता है वो भावना और संवेदना दुसरे सम्बन्धो से नही मिल पाता है ।
शुरुआत से ही बहूत ज्यादा परिश्रमी होने  एवम् भावनाओ का सागर होने के कारण एक बेटी , एक बहन , एक मौसी के रूप में सभी पदों पर ये महिला रूपी शरीर और उसकी भावनाएं बहुत ही अधिक प्रासंगिक होती है और रहेगी भी क्योंकि किसी भी समाज का हिस्सा बनने से पहले अपने माँ के आस पास के  वातावरण का हिस्सा बनना सामज की अवधारणाओं और उसकी भूमिका को समझने का पहला पड़ाव साबित होता है ।
माँ सामज में हर जगह मौजूद है अब चाहे वो मानव रुपी हो, पशुओ के रूप में हो या किसी भी काल्पनिक रूप में मौजूद हो । जिसका मतलब हर एक जगह माँ से ही होता है । हर वक्त हमें माँ की जरूरत होती है अब चाहे वो कोई भी काम हो बचपन के बिस्तर से लेकर ऑफिस का बेग थमाने में उसकी भरपुर परिश्रम छिपा होता है । जिसे कभी भी नकारा नही  जा सकता है ।
माँ के चेहरे को ध्यान से देखने  पर जरूर आपको ममता और दया , सम्वेदना , भावना  सभी का पूर्ण रूप से बोध हो जाएगा । माँ की ममता, दुआ  किसी भी नामुमकिन चीज को बदलने की ताकत रखती है । जिस तरह से प्राचीनकाल से माँ का जो अस्तित्व बना आया है जो हमारी पारम्परिक रूप रेखा है कि माँ अगर अपना रूप बदले तो वो माँ काली , माँ दुर्गा, अम्बे का रूप भी धारण कर सकती है ।
जिसके आगे सब नगण्य साबित होते है । वही इसके उल्ट माँ का अलग रूप भी है जिसके लिए वो अधिक प्रसिद्ध है ।
छत्रछाया वही है जो अपने आँचल में इस सामज के हर एक को समेटे हुए है हर कोई उस आँचल का भागीदार है । जो उस प्रक्रिया से होकर हर कोई गुजा रहा है तब कही जा क्र समाज का निर्माण हुआ है । माँ हमेशा अपना कर्तव्य भलीभाँति निभाती है जिसमे कोई संदेह की अवशयकता कही से कही नही जोड़ी जा सकती है ।
माननीय प्रेमचन्द  जी की  एक लघुकथा दूध का कर्ज जिसमे उस माँ के बहुमूल्य दूध की कीमत का मोल लगाया गया या कहे की उसका एक उदाहरण पेश किया गया कि किस तरह से दूध अहम था और उसका कर्ज चुकाया गया ।
कहानी में  उस महिला के दूध की अहमियत को बताया गया जो काफी पहले की कथित  है तो बात अब ये आती है महिलाये शुरुआत से ही समाज के लिए प्रासंगिक रही है और मूल रूप   से समाज निर्माता वही है । जिसे नाकारा नही जा सकता है ।