कमाल के योगी हैं। न नागरिक की इज़्ज़त का ख़याल, न अपनी सरकार का, न पार्टी का – और तो और गेरुआ बाने का भी नहीं।
विधायक आया और शान में चौड़ा होता लौट गया। कहता है, सरेंडर किसलिए। मैं तो आरोपी ही नहीं हूँ। पीड़िता के मुख से आरोप सारी दुनिया सुन चुकी। बाप को पीट-पीट कर मार डाला। आरोप विधायक के भाई पर है। बलात्कार की शिकायत में भी उसका नाम है। विधायक के नाम के साथ। पर सींकिया (बाहुबली!) विधायक कहता है – मेरे ख़िलाफ़ नामज़द शिकायत अर्थात् एफ़आइआर कहाँ है?
सच में योगी के रामराज्य ने विधायक को अभी तक एफ़आइआर से बचाए रखा है। अपनी नाकारा पुलिस को भी। जिसने बलात्कार के मामले में कुछ नहीं किया। पिता की हत्या भी हो जाने दी। एफ़आइआर इन पुलिस वालों के ख़िलाफ़ भी होनी चाहिए। विधायक के साथ वे भी सींखचों के पीछे जाने के पात्र हैं।
ऐसा माहौल रच दिया है जिसमें अपराध और भय ही व्याप्त नहीं हैं, हद दरज़े की हैवानियत अस्पताल तक में देखी जाती है। मैं गोरखपुर में बच्चों को मौत के मुँह में धकेलने की दास्तान नहीं दुहरा रहा। क्या आपने उन्नाव की पीड़िता के पिता के मेडिकल वाला वीडियो देखा है? कैसे थुलथुल डाक्टर और पुलिस वाले हँस रहे हैं। उनके बीच ज़िंदा लाश की तरह सर से पाँव तक हिंसा के हज़ार निशान अपने नंगे बदन पर ओढ़े जो बाप बैठा है, उसे इस बेरुख़ी और अमानवीयता ने मौत के और क़रीब न पहुँचा दिया होगा?
फिर भी लोकतंत्र में आशा चुकती नहीं। कल हाईकोर्ट शायद अक़्ल ठिकाने ले आए। वे लोग शायद ऐसी ‘शहादत’ का मौक़ा चाहते होंगे। पत्रकारों को डराने के लिए सरेंडर के बहाने जैसे आधी रात को जुलूस निकाला, एक जुलूस कल और निकाल लेंगे। फिर अंततः अंदर। पाप का घड़ा कभी तो फूटता होगा।