जोशीमठ आपदा ( पार्ट – 1 ) विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की रिपोर्ट्स की लगातार अनदेखी का नतीजा है जोशीमठ त्रासदी

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सरकार और विशेषज्ञों की सलाह में अक्सर टकराव होता रहता है और इसका कारण, दोनो के उद्देश्य और क्रियाकलाप में है। सरकार एक प्रसासनिक निकाय भी है और उसके उद्देश्य, जनता से किए वायदे या लोकलुभावन एजेंडे से प्रभावित होते हैं, जबकि विशेषज्ञों की रिपोर्ट, शोध, अध्ययन और तथ्यों पर आधारित होती है। बात जोशीमठ की ही करें तो, जोशीमठ बद्रीनाथ धाम का मुख्य द्वार है और इसी के बाद बद्रीनाथ तक का रास्ता जो दुर्गम और अपेक्षाकृत संकरा है, आगे जाता है। बद्रीनाथ से वही मार्ग, देश के इस उत्तरी सीमा के आखिरी गांव माणा तक जाता है। वहां एक हेलीपैड बना है। हेलीपैड भी बड़ा है। गांव से फिर यही सड़क आगे चली जाती है जो माणा दर्रा से होते हुए तिब्बत को जाती है। तिब्बत से आने जाने का यह पुराना मार्ग है। मैं माणा या उससे कुछ किलोमीटर तक आगे तो, तीन बार गया हूं पर उसके आगे नहीं जा पाया हूं। उसके आगे आईटीबीपी, भारत तिब्बत सीमा पुलिस की चौकियां हैं। इनमे कुछ तो इतनी दुर्गम हैं कि, वहां जाने के लिए खच्चर या पैदल का ही प्रयोग होता है। 

जोशीमठ, न केवल बद्रीनाथ धाम का द्वार है बल्कि वह हेमकुंड साहिब जाने का भी मार्ग, वहां से निकलता है। हेमकुंड साहिब भी, मुझे जाने का एक बार सौभाग्य मिला है पर वह पुरानी बात है। जोशीमठ में बद्रीनाथ जी का विग्रह, जब मंदिर, हिमपात के कारण सर्दियों में बंद हो जाता है तो, जोशीमठ लाया जाता है और शंकराचार्य मठ में ही उसकी पूजा अर्चना आदि होती है। ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य का, जोशीमठ एक तरह से मुख्यालय भी है। जोशीमठ में सेना, आईटीबीपी, सीमा सड़क संगठन आदि की इकाइयां हैं और यहां हेलीपैड भी है। जोशीमठ से थोड़ा ऊपर औली नामक स्थान पर स्कीइंग और अन्य बर्फ पर होने वाले खेल होते हैं। उसे भी सरकार ने विकसित किया है। साथ ही बड़ी बड़ी जल विद्युत परियोजनायें भी वहां बन रही हैं। इस प्रकार देखें तो जोशीमठ जो, शंकराचार्य के मठ के रूप और बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब के द्वार के रूप में, एक छोटा सा अस्थाई कैंप शहर के रूप कभी था, वह अब एक बड़े शहर के रूप में विकसित किया जाने लगा।

जोशीमठ में सेना और आईटीबीपी की इकाइयों का रखना और इनकी लॉजिस्टिक सुविधाओ को व्यवस्थित करना एक सुरक्षागत सामरिक मजबूरी है। क्योंकि चीन की सीमा नजदीक है। हालांकि चीन ने, उधर से कभी अतिक्रमण की कोशिश नहीं की है, पर चीन के फितरत भरे आचरण को देखते हुए, उसकी तरफ से कोई गफलत की भी नहीं जा सकती है। जब सड़कें बेहतर हो गई और, हरिद्वार से सुबह निकल कर शाम तक, जोशीमठ पहुंचना आसान हो गया तो निश्चित ही, बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब की तीर्थ यात्राएं बड़ी होने लगीं। यात्रियों की संख्या बढ़ने लगीं और बद्रीनाथ धाम तक गाड़ियों की पहुंच ने, इस यात्रा को और सुगम बना दिया। फिर इन यात्रियों के रात्रि विश्राम के लिए, जोशीमठ में छोटे बड़े होटल खुलने लगे तो जाहिर है एक शांत और छोटा सा धार्मिक शहर जो शंकराचार्य के मठ और फौज के कैंप के लिए जाना जाता था, वह विकसित होने लगा। अब वहां जमीन तो पहाड़ को काट कर ही निकाली जा सकती थी। पहले की जो खाली जमीन थी उन पर अधिकतर सेना, आईटीबीपी, बीआरओ और अन्य सरकारी दफ्तर डाक बंगले स्थापित हो चुके थे। इस प्रकार पहाड़ खुरच कर, निजी होटलों के लिए जो, जमीन तैयार की गई, उसका अनावश्यक बोझ जोशीमठ की धरती पर पड़ा। 

1976 की मिश्र कमेटी की रिपोर्ट में, इस खतरे को भांप लिया गया था, इसीलिए पचास साल पहले ही बहुमंजिली इमारतों के बनने पर रोक लगा दी गई थी। तब सड़के भी सिंगल लेन थीं और जगह जगह, जहां थोड़ी जगह मिल जाती थी, सड़कें चौड़ी कर दी गई थीं ताकि आने जाने वाले वाहन एक दूसरे को पास दे सकें। बद्रीनाथ धाम तक तो सड़क 1976 के पहले ही बन गई थी और बसें, कार, ट्रक आने जाने लगे थे। लेकिन तब यात्री भी कम थे और यातायात भी कम था तो, जोशीमठ में भी भीड़ कम होती थी और सड़को पर दबाव भी कम था। अब यातायात तो बढ़ा ही और यात्रियों की भीड़ के कारण शहर पर दबाव भी बढ़ा और इसी के साथ साथ निर्माण भी बढ़े और सबसे बड़ा सवाल कि, जब मिश्र कमेटी ने साफ साफ यह चेतावनी दी थी कि, बहुमंजिली इमारतें नहीं बननी चाहिए तो फिर वे इमारतें, किसकी अनुमति से बन गई और क्यों विशेषज्ञों की सलाह को नजर अंदाज किया गया। आज यही सवाल वहां के लोग भी पूछ रहे है। पर यह भी तब जब आधा जोशीमठ लगभग डूबने के कगार पर है। 

ऐसा नहीं है कि, सरकार ने केवल मिश्र कमेटी और गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ कोटलिया के अध्ययन और सलाह को नजर अंदाज किया बल्कि अन्य स्रोतों से भी जो विशेषज्ञ सलाह आई उनको भी डस्टबिन में फेंक दिया गया। देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के प्रमुख, प्रोफेसर डॉ कालाचंद सेन ने, जोशीमठ की भूगर्भ परिस्थितियों का अध्ययन किया और अपनी राय दी कि, “जोशीमठ जो समुद्र तल से 2,000 मीटर ऊपर बसा हुआ एक शहर है, भूवैज्ञानिक दृष्टि से, सदैव, संवेदनशील रहा है क्योंकि यह एक पुराने भूस्खलन के मलबे के ऊपर टिका हुआ है, जो हाल के वर्षों में बहुमंजिली इमारतो के निर्माण की होड़ को रोकने में विफल रहा है। गैर-योजनाबद्ध निर्माण के कारण, धरती लगातार अस्थिर हो रही है। जिससे अंदर ही अंदर भू क्षरण और आंतरिक भू स्खलन लगातार जारी है। इससे, भूमिगत जल चैनल, जो दिखते नहीं है पर आंतरिक जल प्रवाह प्रणाली के मुख्य प्रवाह मार्ग हैं, बाधित हो जा रहे हैं। रुका और बाधित जल प्रवाह, पुनः धरती में रिसने लगता है जिससे भूमि का दरकना जारी रहता है। इसके कारण, धरती में ऊपर जगह जगह दरार आने लगती है।” 

सरकार ने, इस शहर में अनियोजित निर्माण,  सड़कों के बड़े पैमाने पर चौड़ीकरण, और जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी और ऐसा करते समय, कई विशेषज्ञ चेतावनियों को भी नजरअंदाज किया गया, और अब इसका परिणाम सामने है। 

यह सारे अध्ययन, चाहे वह, मिश्र कमेटी द्वारा किए गए हो, या देहरादून के वाडिया संस्थान द्वारा या किसी अन्य विशेषज्ञ एजेंसी द्वारा, यह सभी सरकार द्वारा स्थापित या मान्यता प्राप्त शोध संस्थान द्वारा किए गए है। जोशीमठ के वर्तमान खतरे के बारे में, विशेषज्ञों की सलाह या चेतावनियों की कोई कमी नहीं रही है, पर,  जोशीमठ आपदा के संदर्भ में, इन चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और उन्हें बार बार नजर अंदाज किया गया। हिमालय में एक और तीर्थस्थल बद्रीनाथ तक सड़क को चौड़ा करने का काम, तमाम चेतावनियों के बावजूद, कई गुना तेज कर दिया गया है। यह सड़क चार धाम (चार तीर्थस्थल) सड़क चौड़ीकरण परियोजना का हिस्सा है। इसका भी विरोध हुआ और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, तब सरकार ने सेना और सीमा सुरक्षा का तर्क दिया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रोजेक्ट पर लगाई अपनी बंदिश खत्म कर दी और विशेषज्ञों की सारी की सारी चेतावनियां, शोध और अध्ययन, धरे के धरे रह गए। फिर ऐसी कई रिपोर्टें सामने आई, कि पेड़ काटे जा रहे हैं और प्राकृतिक जल चैनल बाधित हो गए हैं, क्योंकि इस परियोजना में, पहाड़ी क्षेत्र में सड़क बनाने के तरीके पर सरकार, अपने ही सिद्धांतों और दिशा निर्देशों का पालन करने में विफल रही है। यह विफलता नहीं है, यह जानबूझकर किया जा रहा कृत्य है। अब जब जोशीमठ की साठ प्रतिशत आबादी के विस्थापन और पुनर्वास की बात होने लगी तो, अब सड़क चौड़ीकरण के उसी प्रोजेक्ट पर चल रहा काम, रोक दिया गया है। 

सड़क निर्माण तो सतह पर हो रहा है और सतह के पहाड़ तोड़ कर जमीन ढूंढी जा रही है। इसके लिए हल्के विस्फोटक या बड़ी मशीनों का उपयोग किया जाता है। इसका असर सतह पर पड़ता है पर उससे बड़ा खतरा, वहा चल रही जल विद्युत परियोजनाओं से हो रहा है। फिलहाल तो सबसे बड़ा खतरा  एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के कारण होने लगा है। यह एक रन-ऑफ़-द-रिवर बिजली उत्पादन परियोजना है, जिसमें पहाड़ी के नीचे, 12 किलोमीटर लंबी एक सुरंग खोदी जाती है, और बिजली उत्पादन के लिए, उसी सुरंग के माध्यम से धौली गंगा नदी के पानी को प्रवाहित कर, उपयोग में लाया जाता है। जब यह परियोजना शुरू हुई तो कहा गया कि, सुरंग ड्रिल तकनीक से बनेंगी और विस्फोटक का प्रयोग नहीं किया जायेगा। पर अब यह पता लगा कि, विस्फोटक का भी प्रयोग किया गया। 

एनटीपीसी ने 5 जनवरी को यह सफाई देने की कोशिश की कि, “उस परियोजना की सुरंग जोशीमठ के नीचे से नहीं गुजरती है, और इसे आपदा के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए।”  लेकिन यह सुरंग उसी जलभृत से होकर गुजरती है जो जोशीमठ के नीचे है। एनटीपीसी का कहना है कि, “सुरंग, जोशीमठ के नीचे से नहीं निकल रही है। उससे हट कर निकल रही है।” भूमिगत गतिविधियों का विस्तार सीमित नहीं होता है और सुरंग कहीं से भी निकले, उसे बनाने में जो भी आघात भूमि के अंदर किया जायेगा, उसकी तरंग या कम्पन का असर वृत्ताकार पड़ता है। अब जब जोशीमठ शहर जो खुद भी किसी ठोस धरातल के बजाय स्खलित भू के परतों पर टिका है तो, वह एक सामान्य कम्पन से भी प्रभावित हो जायेगा। और ऐसा हो भी रहा है। 

पीयूष रौतेला, जो अब उत्तराखंड राज्य सरकार के उत्तराखंड आपदा न्यूनीकरण और प्रबंधन केंद्र के कार्यकारी निदेशक हैं, ने 2010 में करंट साइंस जर्नल में एक पत्र लिखा था। 24 दिसंबर, 2009 को लिखे उक्त पत्र में उन्होंने चेतावनी दी थी कि, “एनटीपीसी द्वारा इस्तेमाल की जा रही टनल बोरिंग मशीन ने एक जलभृत को पंचर कर दिया, जिससे पानी जमीन के नीचे एक अलग दिशा में चला गया, जिससे झरने सूख गए, जिस पर जोशीमठ के कई निवासी अपने घरेलू पानी की आपूर्ति के लिए निर्भर हैं।” पीयूष रौतेला ने अब कहा है कि “जोशीमठ का डूबना “संभावित रूप से जलभृत के टूटने के कारण हुआ है क्योंकि हम गंदे पानी को बाहर निकलते हुए देखते हैं।” हालांकि, उन्होंने कहा, “इसे हाइडल सुरंग से जोड़ने या हटाने के लिए अभी तक कोई सबूत नहीं है।” 

एक अन्य विशेषज्ञ, हेमंत ध्यानी ने कहा, “केवल एक जल परीक्षण ही बता सकता है कि क्या शहर में बहने वाली धाराएँ हाइडल सुरंग से निकल रही हैं।” उन्होंने महसूस किया कि “एनटीपीसी जोशीमठ आपदा के साथ किसी भी संबंध को अस्वीकार करने में जल्दबाजी कर रहा था।” यह वही जलविद्युत परियोजना है, जहां 7 फरवरी, 2021 को सुरंग के भीतर अचानक आई बाढ़ में फंसने के बाद लगभग 200 श्रमिकों की मौत हो गई थी। यह बाढ़ एक बर्फ की दीवार के गिरने के कारण हुई थी, जिसे विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए जिम्मेदार मानते हैं। ऋषि गंगा जो, धौली गंगा की एक सहायक नदी के ऊपर की ढलानों पर है, वहां यह दुर्घटना हुई थी। ये सभी नदियाँ भारत के सबसे बड़े नदी बेसिन गंगा बेसिन का हिस्सा हैं। उस दुर्घटना की जांच की गई या नहीं यह मुझे ज्ञात नहीं है। जांच से मेरा आशय, आपराधिक या प्रशासनिक विफलता की जांच से नहीं है, क्योंकि जब दो सौ मजदूरों की हादसे में हुई है तो यह जांच तो होनी ही चाहिए, पर भू वैज्ञानिक और अन्य दृष्टिकोण से इसकी जांच क्यों नहीं की गई और क्यों नहीं, विशेषज्ञों की रिपोर्ट के आधार पर परियोजना को दुबारा नहीं परखा गया। आखिर आज परियोजना रोकनी पड़ गई है। जबकि इस जल विद्युत परियोजना को लेकर सभी विशेषज्ञों ने गहरी आशंका जताई थी। 

यह दुर्भाग्य है कि, जोशीमठ के प्राचीन तीर्थ नगर के निवासियों को जनवरी 2023 के ठंड के मौसम में अपने घरों से भागने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। शहर में लगभग 2,500 इमारतों में से एक चौथाई में नींव झुक रही है, जबकि दीवारें खुल रही है। मकान कभी भी गिर सकते हैं। भारत और उत्तराखंड राज्य सरकार ने, सड़क चौड़ीकरण और जलविद्युत परियोजना पर सभी तरह के काम को रोकते हुए, जोशीमठ के हजारों निवासियों को, सुरक्षित जगहों पर ले जाने की कार्यवाही कर रहे हैं। विशेषज्ञ बताते हैं, कि “यह एक ऐसी आपदा है, जो घटित होने की प्रतीक्षा कर रही थी, क्योंकि सरकारी अधिकारियों ने सड़कों और जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के तरीकों के बारे में,  दशकों से, मिल रही कई चेतावनियों को, लगातार नज़रअंदाज़ किया है।” 

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पुनर्वास की जांच करने के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से बात की, जबकि प्रधान मंत्री कार्यालय ने जोशीमठ को “भूस्खलन-अवतलन क्षेत्र” घोषित किया और विशेषज्ञों से कहा कि, अब उसका क्या करना है, इस पर छोटी और लंबी अवधि की योजना वे तैयार करें। विशेषज्ञ सोचेंगे भी और अपने अध्ययन तथा शोध के आधार पर, कुछ न कुछ हल सुझाने की कोशिश भी करेंगे, पर इस बात की क्या गारंटी है कि, नौकरशाही, जो अक्सर विशेषज्ञों को, दोयम दर्जे की नज़र से देखने की अभ्यस्त हो गई है, उस सलाह मशविरे पर गंभीरता से आगे कार्यवाही करेगी। कुछ ही दिन पहले, जोशीमठ के निवासियों का एक प्रतिनिधिमंडल, उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में निर्माण कार्य के कारण अपने घरों में दरारें आने की शिकायत करने गया था। कहते हैं, उस प्रतिनिधिमंडल को, मुख्यमंत्री के साथ बात करने के लिए, केवल पांच मिनट का समय ही मिल पाया था। ‘द थर्ड पोल’ के अनुसार, “मुख्य्मंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को बताया कि, उनके डर निराधार हैं और उन्हें बिना उनकी पूरी बात, सुने ही वापस लौटा दिया।” 

अखबारों के अनुसार, 4 जनवरी को, जोशीमठ के घरों और सड़कों में दरारें इतनी तेजी से चौड़ी होती गईं कि निवासियों ने स्थानीय तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के प्रबंधकों को सभी सुरंग बनाने के काम को रोकने के लिए मजबूर कर दिया।  उसी रात, जिला अधिकारियों ने प्रभावित इमारतों की गिनती की। 8 जनवरी की शाम तक गिनती बढ़ गई थी। जबकि अधिकारी उत्तराखंड के अचानक बेघर हुए लोगों को फिर से बसाने की कोशिश कर रहे हैं और इसके द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों का इंतजार कर रहे हैं, स्थानीय लोग परेशान हैं।  एक स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता, अतुल सत्ती ने द थर्ड पोल को बताया, “हम सरकार से तत्काल कार्रवाई की मांग करते हैं जिसमें 

  • एनटीपीसी परियोजना को तत्काल रोकना 
  • चारधाम ऑल वेदर रोड (हालेंग-मारवाड़ी बाईपास) को बंद करना 
  • एनटीपीसी के समझौते को लागू करना शामिल है 

जो सुनिश्चित करता है  जोशीमठ के पुनर्वास के लिए एक निर्धारित समय सीमा के भीतर एक समिति का गठन कर, सभी प्रभावित लोगों को तत्काल सहायता प्रदान की जाय। जिसमें मुआवजा, भोजन, आश्रय और अन्य बुनियादी सुविधाएं शामिल हों। साथ ही, विकास परियोजनाओं का निर्णय लेते समय, विशेषज्ञों के साथ साथ, स्थानीय प्रतिनिधियों की भागीदारी” भी शामिल हो। 

(विजय शंकर सिंह) 

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