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जब 500 दलितों ने 28000 पेशवा सेना को दी थी शिकस्त

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महाराष्ट्र में “बवाल” हो रहा है और भरपूर हो रहा है,अगर कुछ दिनों पहले के हालातों पर गौर करें तो स्थिति बदतर हो गयी थी और स्कूल, कॉलेजेस से लेकर काफी सरकारी कार्यालय बन्द रहें । लेकिन इसके पीछे वजह क्या? क्या है ये कोरेगांव विवाद और कोनसी जीत का जश्न मनाया जा रहा था जिससे समस्याएं उतपन्न हुई और बवाल हुआ है और शांत होंने न नाम नही ले रहा है।
कोरेगांव भीमा में आज से 200 साल पहले 1818 में पेशवाओं पर अपनी जीत का जश्न दलित मनाते है। ये जश्न विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है जहाँ एक अद्भुत विजय दलित समाज को पेशवाओं पर मिली थी।ये एक ऐतिहासिक लड़ाई जिसके जैसी मिसाल और हिम्मत की गाथा इतिहास में मौजूद नही है।
वही अगर इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो ये एक और साक्ष्य है कि पेशवाओं ने सत्ता मराठों से हथियाई थी।और पेशवाओं का शासन सबसे क्रूरतम शासन माना जाता है दलितों को दिन में निकलने की मनाही थी। उन्हें अपने पीछे झाड़ू बांध कर चलना पड़ता था।और उनकी परछाई भी लोगों के लिए श्राप था।
इन्ही यातनाओं और अपमान को झेलते हुए ही एक अपमान की भावनाओं का जमाव हों रहा था। इसी कारण कारण महार (दलित)समाज ने अंग्रेज़ी सेना में भर्ती होने का एलान किया। इसी के बाद एक घटनात्मक तौर पर दलितों का सामना पेशवाओं से हुआ और फिर जो हुआ वो इतिहास में दर्ज है।
इस भीमा कोरेगांव की जंग में सिर्फ 500 दलितों को फौज 28 हज़ार पेशवाओं पर आफत की तरह टूटी और उन्हें सबसे बड़ी हार दी।इसी जीत को मद्देनजर अंग्रेज़ो ने “विजय स्तम्भ” बनवाया जहां हर बार इस ऐतिहासिक जीत का जश्न मनाया जाता है।
यही जश्न यहाँ पर 1 जनवरी को मनाया जा रहा था,और उसी के बाद दलित समाज पर हमला हुआ और उसके पीछे कथित “हिंदुत्व” के संगठनों का हाथ बताया जा रहा है। और दूसरा तबका कुछ और संगठनों पर ये आरोप लगा रहा है बहरहाल जो भी है वो जांच के बाद सामने आएगा। फ़िलहाल शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के जाने माने नेता संभाजी भिड़े और समस्त हिंदू आघाडी के मिलिंद एकबोटे के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है।

असल मे ये हिंसा या आरोप सभी उस चीज़ के लिए जिसकी वजह ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध होना कई दलित संगठनों का एक साथ खड़ा होना और उसके साथ साथ कई अल्पसंख्यक समुदायों का एक प्लैटफॉर्म लाने की बात का करना है और उसको लेकर और भी बातें होना है।इसलिए ही ये तमाम विवाद बारी बारी हो रहें है ।यहाँ पर एक और बात भी है कि उन लोगों की बड़ी तादाद है जो दलितों और अल्पसंख्यकों को आगे नही आने देना चाहतें है।
मगर अब जब तमाम राजनीतिक दल और संगठनों ले बीच मे आने के बाद अब आने वाले दिनों में क्या स्थिति बनती है ये अभी गौर करने लायक होगा।

असद शेख