गुजरात चुनाव नहीं यह है विजय रूपानी के इस्तीफे की असली वजह

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गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रुपानी को चुनाव से पहले हटाने की कई कयास हैं लेकिन मेरा मानना है की रुपानी ने केंद्र सरकार की मर्जी के विपरीत गुजरात में पीएम कृषि बीमा योजना को जो इस साल बंद कर दिया वह इसका मूल कारण है।

फसल बीमा असल मने निजी बीमा कंपनियों की कमाई का जरिया हैं- आज के हिंदुस्तान के सम्पादकीय पेज पर मेरा लेख इसी मसले पर है

साल 2016 में शुरू हुई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से इस साल आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य खुद को अलग कर चुके हैं। यदि गहराई से आंकड़ों का आकलन करें, तो पाएंगे कि किसानों का फसल सुरक्षा बीमा असल में निजी कंपनियों के लिए मुनाफे की मशीन हैं। महज दो वित्तीय वर्ष 2018-19 से 2019-20 के बीच किसानों ने 31,905 करोड़ रुपये का प्रीमियम चुकाया और उन्हें मुआवजे में मिले 21,937 करोड़ रुपये।

जाहिर है, दो वर्ष में ये 10,000 करोड़ रुपये निजी बीमा कंपनियों की जेब में चले गए। महाराष्ट्र में इस अवधि में 4,787 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया और फसल नुकसान की भरपाई पर मिले 3,094 करोड़ रुपये। पश्चिम बंगाल में किसानों ने जमा किए 281 करोड़ और उन्हें महज 59 करोड़ के दावे का भुगतान हुआ।

उत्तर प्रदेश में प्रीमियम भुगतान था 1,895 करोड़ रुपये व दावे का भुगतान महज 595 करोड़ रुपये। वर्ष 2016 से 2019-20 तक 2307.4 लाख किसानों ने बीमा कराया, इनमें से 772.1 लाख यानी 33.46 प्रतिशत को ही लाभ मिला।

फसल बीमा योजना के तहत किसान को बुवाई के दस दिन के भीतर आवेदन देना होता है। खरीफ की फसल में दो प्रतिशत व रबी की फसल में डेढ़ फीसदी प्रीमियम का भुगतान करना पड़ता है। खरीफ में महज चार फसलें ही बीमा में आती हैं- धान, मक्का, कपास और बाजरा, जबकि रबी में गेहूं, चना, जौ, सरसों और सूरजमुखी को शामिल किया गया है।

देश में कुल बुवाई के 30 फीसदी क्षेत्र से अधिक को बीमा कवर देने में कंपनियां असमर्थता दिखा चुकी हैं। किसानों व राज्य सरकारों का इस योजना से मोहभंग होने का कारण इस अवधि के 2,286.6 करोड़ रुपये के दावे का लटके रहना है। यह जानकारी 6 जुलाई, 2021 तक की है। इसमें झारखंड, तेलंगाना और गुजरात में सबसे अधिक मामले लंबित हैं।

यह सभी जानते हैं कि बाढ़ हो या सूखा, दोनों हालात में किसान ही सीधे प्रभावित होता है। किसानी महंगी होती जा रही है, साथ ही, कर्ज से उस पर दबाव बढ़ रहा है। सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बांटकर सोच रहे हैं कि इससे खेती का दशा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिल जाए।

यह विडंबना ही है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को नजरअंदाज किया जाता रहा। कहने को सरकारी स्तर पर फसल बीमा की कई लुभावनी योजनाएं सरकारी दस्तावेजों में मिल जाएंगी, लेकिन अनपढ़, सुदूर इलाकों में रहने वाले किसान अनभिज्ञ होते हैं। सबसे बड़ी बात कि योजनाओं के लिए इतने कागज-पत्तर भरने होते हैं कि किसान उनसे मुंह मोड़ लेता है।

देश की आजादी के साथ ही किसानों को सुरक्षित भविष्य के सपने दिखाए जाने लगे थे। साल 1947 में डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा प्रस्तुत किए गए केंद्रीय विधान में फसल बीमा पर राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत का उल्लेख किया गया था। इस बाबत मसौदा तैयार करने में पूरे 18 साल लगे।

1965 में केंद्र सरकार ने फसल बीमा पर पहला बिल पेश किया। इसे लागू करने के तरीके खोजने की बात पर फिर से लंबा सन्नाटा छा गया। 1970 में धरमनारायण कमेटी ने फसल की वास्तविक कीमत के अनुरूप बीमा की किसी योजना के क्रियान्वयन को असंभव बताया था। इसके जवाब में प्रो वी एम दांडेकर ने फसल बीमा योजना को व्यावहारिक रूप देने की एक विस्तृत रिपोर्ट बनाई थी। खैर, साल 1985 में फसल बीमा योजना को खेती के वास्ते कर्ज लेने वालों के लिए अनिवार्य कर दिया गया। इसमें बीमा राशि को कर्ज का तीन गुना कर दिया गया, ताकि नुकसान होने पर किसान के पल्ले भी कुछ पड़े। जून-1999 में तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नए सपनों के साथ ‘राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना’ राष्ट्र को समर्पित की थी।

जुलाई 2000 में तत्कालीन कृषि मंत्री नीतीश कुमार ने संसद में ‘राष्ट्रीय कृषि नीति’ की चर्चा की थी। फसल बीमा योजना से किसान किस तरह लाभान्वित हुआ है, इसकी हकीकत तो किसान आत्महत्या के आंकड़े बयान कर ही देते हैं। अफसोस की बात है, देश में आज भी ऐसी बीमा योजना नहीं है, जो निजी कंपनियों की नहीं, बल्कि आम किसानों की रक्षा कर सके।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

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