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अनिल अग्रवाल की वेदांता लोगों को मार रही है या सरकार अपने नागरिकों को मारने पर तुली है?

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एक कैपिटलिस्ट मुल्क है नॉर्वे. पश्चिमी योरोप का स्कैंडेनेवियन देश है. वहां पेंशन स्कीम के लिए सरकार कॉरपोरेट्स से फंड लेती है. पिछले साल वहां की सरकार ने वेदांता से फंड लेने से मना कर दिया. एथिक्स कमेटी ने कहा कि ये लुटेरी कंपनी है. दुनिया के तमाम मुल्कों में क़ानूनों का उल्लंघन करती है. भारत का भी नाम लिया. तूतीकोरीन का भी.
2007 में भी नॉर्वे ने वेदांता को बैन किया था. कई बार कर चुका है. कैपिटलिज़्म के भीतर की भी जो न्यूनतम नैतिकता होती है, भारत में वो भी नहीं है. नॉर्वे की सरकार तूतीकोरीन पर नियम तोड़ने के लिए वेदांता को बैन करती है, भारत की सरकार तूतीकोरीन के लोगों को गोली मार देती है
ये बंदूक़ आम तौर पर पुलिस के पास नहीं होती। स्टरलिंग सबमशीन गन कहते हैं इसे। जब चुनकर निशाना लगाना होता है तब इसका इस्तेमाल होता है। वेदांता के इशारे पर सरकार ने अपने नागरिकों की हत्या इसी बंदूक़ से की। पुलिस हमेशा सत्ता की सुरक्षा के लिए होती है। कई नादानों को लगता है कि पुलिस का काम उनकी सुरक्षा है।
स्टरलाइट के लिए स्टरलिंग का इस्तेमाल.
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1992 में महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में सरकार ने वेदांता को स्टरलाइट के लिए 500 एकड़ ज़मीन दी। प्लांट से भयानक प्रदूषण फैला। लोगों ने विरोध किया तो सरकार ने कमेटी बना दी। समिति ने प्रदूषण की बात कबूली। प्लांट कैंसिल हो गया।
1994 में इसी प्लांट को तमिलनाडु में जगह मिली। तमिलनाडु पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने no objection certificate मांगी। environment impact assessment (EIA) के लिए कहा गØया। रिपोर्ट में कहा गया कि मन्नार की खाड़ी से 25 किलोमीटर दूर ये प्लांट बने।
उधर, केंद्र सरकार ने EIA की रिपोर्ट से पहले ही 16 जनवरी 1995 को प्लांट को हरी झंडी दे दी। प्लांट बना तो सारे नियम-क़ायदों को तोड़कर बना। मन्नार की खाड़ी से महज़ 14 किलोमीटर दूर।
ख़ुद पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने जो नियम बताए थे, प्लांट ने उन्हें नहीं माना। 1996 में प्लांट चालू हो गया। चालू करने से ठीक पहले जो शर्तें रखी गईं थी, वेदांता ने उन्हें भी नहीं माना। इनमें भूजल प्रदूषण रोकने और आस-पास के इलाक़े में हरित क्षेत्र विकसित करने जैसी शर्तें थीं।
दर्जनों लोग बीमार पड़ने लगे। विरोध बढ़ा तो सरकार कंपनी के पक्ष में उतर गई। क्लीन चीट दे दी गई।
इसके बाद मामला पहुंचा हाई कोर्ट। 1998 में हाई कोर्ट ने प्लांट बंद करवा दिया। वेदांता ने दर्जनों नियम-क़ायदों का खुल्लमखुला उल्लंघन किया था।
कंपनी ने फिर अपील की। कुछ ही दिनों बाद जिस अध्ययन को आधार बनाकर प्लांट बंद किया गया था, कोर्ट ने उसी संस्था को फिर से अध्ययन करने को कहा। प्लांट चालू हो गया। इस बार वेदांता को संस्था का पता था। संस्थान ने हैप्पी-हैप्पी रिपोर्ट दी।
इसके बाद प्लांट ने हाहाकारी तरीके से उत्पादन शुरू किया। सालाना जितने की लिमिट थी उससे दोगुनी-तिगुनी। आस-पास के नदी-नालों में ज़हर भरने लगा। लोग शिकायत करते रहे, सरकार अनसुनी करती रही।
वेदांता का मन यही नहीं भरा। प्लांट को और फैलाने की योजना बनी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो 2004 में कोर्ट ने इस विस्तार पर रोक लगा दी। पुराने मामले भी उखड़े। सुप्रीम कोर्ट ने नियमों के उल्लंघन की जांच के आदेश दे दिए।
इस बार पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने भारी अनिमितता की रिपोर्ट सौंपी। बिना परमिशन के ही कंपनी ने कई निर्माण पूरे कर लिए थे। अब निर्माण हो चुका था, तो सरकार ने उसे मंजूरी दे दी।
प्लांट और फैला। 2008 में और भी ज़्यादा। मामला फिर से कोर्ट में पहुंचा। 2010 में मद्रास हाई कोर्ट ने फिर से प्लांट बंद करने का आदेश दिया। फिर पहले वाली कहानी दोहराई गई और प्लांट कुछ ही दिनों में फिर से चालू हो गया।
इसके बाद कई बार गैस लीक हुई। कई लोग मारे गए। विरोध होता रहा, प्लांट चलता रहा। सरकार वेदांता के पक्ष में खड़ी रही।

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