भारत को गोल्ड जिताने वाले नीरज चोपड़ा के कोच मुसलमान हैं?

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नीरज चोपड़ा (Neeraj Chopra) ने टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympics) भालाफेंक प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतकर हर भारतीय का सपना पूरा कर दिया है। उन्होंने अपने भाले को 87.58 मीटर दूर फेंक कर यह पदक अपने नाम किया।

वजन घटाने के मकसद से स्टेडियम में पहुंचे नीरज ने कभी सोचा भी नहीं था कि वह कभी इतने बड़े मंच पर पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे और गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच देंगे। पर अब उनके जीतते ही हर कोई अलग ही नशे में डूब चुका है।

जश्न का नशा होता तो भी ठीक था। लेकिन जतिवाद और धर्म के नशा ने हमारे भारत की जड़ों को इतना खोखला कर दिया है कि चाहें जीत हो या हार उसे किसी न किसी धर्म या जाति से जोड़कर देखा जाता है।

अब जब नीरज चोपड़ा गोल्ड जीत गए हैं, तो जाहिर है कि हर कोई किसी न किसी तरह से उनसे जुड़ना चाह रहा है। चाहें वह क्षेत्रवाद के जरिए हो या उनकी जाति खोज कर यह दिखाना कि देखिये हमारी जाति का लड़का भारत के लिए गोल्ड जीतकर लाया है।

कोच मुसलमान भी हैं तो क्या?

यहां नहीं, लोगों ने तो उनके पहले कोच का धर्म ढूंढ कर इसी पर सीना चौड़ा करना शुरू कर दिया कि उनके कोच मुसलमान थे। अपनी इसी सोच कि वजह से हम भारतीय हर जगह पिछड़े हुए से नजर आते हैं।

न तो खिलाड़ी का धर्म मायने रखता है न कोच का मजहब
जब एक व्यक्ति खिलाड़ी बनने की राह पर निकलता है तो उसे केवल अपना खेल और ट्रेनिंग दिखाई देती हैं। न कि अपने कोच (गुरू) का धर्म या जाति।

इसी तरह एक कोच के लिए उसके शिष्य का बेहतर प्रदर्शन सबसे ज्यादा मायने रखता है। न कि यह कि वह किस धर्म, क्षेत्र और जाति से आता है। लेकिन, हमारे देश में संकीर्ण मानसिकता वाले लोग हार और जीत दोनों को इन सभी चीजों से जोड़ कर देख ही लेतें हैं।

पहले भी हो चुका है ऐसा

इससे पहले भी जीतने वाले खिलाडियों की जाति खोज कर लोगों ने अपनी ओछी मानसिकता का प्रदर्शन किया है। और अब नीरज के पहले कोच का धर्म खोज कर यह ढिंढोरा पीटना कि देखिए नीरज चोपड़ा ने एक मुस्लिम कोच से ट्रेनिंग ली।और एक मुस्लिम कोच की वह कितनी इज्जत करते हैं, यह भी लोगों के मानिसक दिवालियेपन को दर्शाता है।

क्योंकि कोच की इज्जत कोई भी शिष्य या खिलाड़ी मजहब देखकर नहीं करता। वो उसका सम्मान और गुरू के प्रति आदर है, जिसे किसी भी धर्म और जाति में बांधकर नहीं देखा जा सकता। फिर चाहें कोच मुस्लिम हो, हिंदू हो, सिख हो, ईसाई हो या दुनिया के किसी भी धर्म का व्यक्ति।

पहले भी खोजी गई विजेताओं की जाति

इससे पहले भी ओलंपिक में मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों की जाति गूगल पर खोजी गई थी। जिसमें मीराबूाई चानू, पीवी सिंधु, और लवलीना की जाति के साथ धर्म भी खोजे गए थे। ये पहला मौका नहीं था जब सिंधु की जाति जानने में लोगों ने इतनी दिलचस्पी दिखाई थी, इससे पहले भी 2016 के रियो ओलंपिक और विश्व चैंपियनशिप में जीतने के बाद भी जाति खोजकों ने अपना काम बखूबी निभाया था।

द लल्लनटॉप की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिंधु की जाति खोजने में सबसे आंध्र प्रदेश के लोग सबसे आगे थे। जबकि नंबर दो पर तेलंगाना और नंबर तीन पर कर्नाटक के लोग थे। और जब जाति धर्म की बात आए तो उत्तर भारत के लोग भी कहां पीछे रह सकते हैं। इसीलिए सिंधु की जाति खोजने के काम में हरियाण बिहार के लोगों ने भी सिंधु की जाति खोज थी।

अगर सिंधु के अलावा बात करें तो गूगल ट्रेंडस के अनुसार लोगों ने हाल ही में ब्रॉन्ज़ मेडल जीतने वाली करने वाली लवलीना बोर्गोहेन की जाति पर भी खूब रीसर्च की थी। 30 जुलाई को जैसे ही लवलीना ने क्वॉर्टर फाइनल में जीत दर्ज की, जातिखोजकों ने अपना काम शुरू कर दिया।

गूगल पर लोग धड़ाधड़ लवलीना की जाति खोजी जाने लगी। ट्रेंड्स के मुताबिक सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में लोगों ने गूगल पर लवलीना की जाति खोजी। जबकि असम, गोवा, पश्चिम बंगाल के बहुत से यूजर्स लवलीना का धर्म खोज रहे थे।

वंदना कटारिया सबसे नई मिसाल

वंदना कटारिया की जाति के कारण परिवार के साथ की गई अभद्रता
वंदना कटारिया राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम की बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक हैं। उन्होंने सेमीफाइनल और ब्रॉन्ज मेडल जीतने में अपनी जान लगा दी, हालांकि टीम कोई मैच नहीं जीत पाई। लेकिन वंदना कटारिया का प्रदर्शन कोई भी भारतीय शायद ही भुला पाए।

लेकिन सेमीफाइनल में मैच हारने के बाद कथित तौर पर सर्वण जाति द्वारा जश्न मनाने की बात सामने आई थी। इस मामले में वंदना के भाई चंद्रशेखर कटारिया ने लिखित शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें जातिसूचक शब्द कहे जाने की बात भी कही गई थी।

हालांकि बीबीसी के हवाले से वंदना के दूसरे भाई ने वंदना के भाई लाखन ने जातिसूचक शब्दों के मामले में बीबीसी के हवाले से कहा कि “इसमें एससी/एसटी एक्ट का कोई मतलब नहीं है और यहाँ जातिसूचक शब्द की भी कोई बात नहीं।

कुछ लोगों ने इसे मुद्दा बनाया है। मामला सिर्फ़ पटाखे फोड़े जाने को लेकर था।”लेकिन बात सिर्फ वंदना कटारिया की नहीं है। बात समाज के सोच के दायरे की है। जो देश की या किसी खिलाड़ी सफलताओं को जाति धर्म में बांध कर ही देख पाता है।