क्या यूपी की राजनीति में मायावती का दौर ख़त्म हो चुका है ?

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बहुजन समाज पार्टी के लिए क्या ये चुनाव करो या मरो का चुनाव है? क्या बसपा की जड़ें अब खोखली हो गयी हैं? एक वक़्त में राष्ट्रीय दल जितनी अहमियत रखने वाली बसपा क्या अब सिर्फ क्षेत्रीय दल जितनी अहमियत में आ गयी है? ये बहुत बड़े बड़े सवाल हैं जो बसपा के लिए अब उठना शूरू हो गए हैं।
बसपा 1984 में बनी वो राजनीतिक पार्टी है जिसने सब कुछ ज़मीनी स्तर पर मेहनत करते हुए हासिल किया है, खुद मायावती जिस लोकसभा सीट से चुनाव लड़ कर जीती यानी बिजनोर लोकसभा वहां पर 1989 में वो गलियों में मोहल्लों में जाकर प्रचार किया करती थी,आज भी उस वक़्त के लोगों के दिलों में ये यादे हैं।

लेकिन अब बसपा सिर्फ लखनऊ और दिल्ली के पार्टी कार्यालयों तक सिमट गई है,पार्टी ने हाल ही में रामअचल राजभर और लाल जी वर्मा को पार्टी से निकाल उन आखिरी चेहरों का रिश्ता भी पार्टी से खत्म कर दिया है जिन्होंने मान्यवर कांशीराम के साथ काम किया था,अब कहा जाने लगा है कि पार्टी में सतीश मिश्र सब कुछ तय करते हैं।

बसपा का गिरता ग्राफ ज़मीनी स्तर पर मेहनत न करना और पार्टी का कमज़ोर हो जाना

मायावती ने अपना पहला चुनाव 1984 में लड़ा था तब से अब तक उन्हें राजनीति में 37 साल हो गए हैं,लेकिन कोई ये नहीं बता सकता है कि पार्टी में उनके अलावा और कोई दिग्गज नेता उनके बाद पनप पाया है,स्थितियां कोई भी हो कैसी भी हो, मायावती की पार्टी न सड़क पर उतरती है और न अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।

इस एबसेंट पॉलिटिक्स ही का कारण हैं कि 2007 में पूर्ण बहुमत पाकर सत्ता हासिल करने वाली मायावाती के 403 विधानसभा वाले सदन में कुल 7 विधायक हैं,क्योंकि करीबन 11 को उन्होंने 5 साल के अंदर “पार्टी से बाहर” कर दिया,और लोकसभा में 10 सांसद वो इसलिए आ पाए थे क्योंकि सपा से उनका गठबंधन था,वरना 2014 की तरह ये गिनती भी 0 हो सकती थी।

बसपा का परम्परागत अनुसूचित जाति वोट उससे दूर हो चुका है।

बसपा के मज़बूत समर्थक रहे अनुसूचित जाति का वोट उनसे छिटक कर बहुत दूर जा चुका है,हाल ये है कि उन्होंने कितनी रिज़र्व सीटें जीती या वोट हासिल किया पिछले तीन चुनाव यानी 2014,2017 और 2019 को उंगलियों पर गिना जा सकता है।
बसपा ने 2017 में 85 में से सिर्फ 2 रिज़र्व विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी,ये एक चौंका देने वाला सच है जिसे बहन जी शायद समझना ही नहीं चाहती हैं,उनका परम्परागत वोट बड़ी तादाद में भाजपा को मिल रहा है और यही कारण है कि रिज़र्व सीटें बुलन्दशहर (लोकसभा) पर योगेश वर्मा के होते हुए उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

2012 से लेकर 2021 तक बीते 9 सालों में बसपा का ग्राफ सिर्फ गिरा है,और वो सत्ता से बाहर हैं2017 में उन्हें 22.23 फीसदी वोट मिला था लेकिन ये सीटों के मामले पर सिर्फ 19 पर रह गया था,और अब बसपा के पास सिर्फ 7 विधायक बाकी हैं,जिसमें से 11 “पार्टी से नाराज़” बताए गये थे जिन्हें पार्टी से निकाला भी गया था।

कोई जादुई चेहरा नहीं,कोई नई रणनीति नहीं

2022 की तैयारियों में बिज़ी नज़र आ रही बहन जी ने ऐलान कर दिया है कि “वो किसी से गठबंधन नहीं करेंगी” यानी अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेंगी,और ये तो जगजाहिर है कि उनके पास कोई नया या जादुई चेहरा भी नही है ।

जिस को आगे रख कर ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने को लेकर नई रणनीति अपनायी जाए यानी कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो बसपा बिना नीति और रणनीति के साथ ही 2022 का चुनाव लड़ेंगी,तभी तो ये सवाल भी पूछा जा रहा है कि क्या ये चुनाव उनके लिए करो या मरो का चुनाव है।

क्यूंकि जिस दौर में भाजपा जैसी नीति,रणनीति और शानदार ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने वाले जैसे दलों से मुकाबला हो वहां बसपा कैसे मुकाबले में होगी ये सोचा जाना चाहिए।

चन्द्रशेखर क्या बहन जी का विकल्प बन रहे हैं?

बीतें कुछ सालों से बार बार ये सवाल उठ रहा है कि क्या बहन जी का विकल्प चंद्रशेखर आज़ाद बन सकते हैं? लेकिन इसका जवाब भी जनता खुद ही देगी,क्योंकि जिस तरह से आज़ाद समाज पार्टी बनी है वो मान्यवर “कांशीराम” की विचारधारा को फ़ॉलो करते हुए आगे बढ़ रही है और ज़मीनी स्तर पर भरपूर मेहनत भी कर रही है।

वहीं मौजूदा पंचायत चुनावों में कुछ सीटें जीत कर बहन जी और उनकी पार्टी को ये बता दिया है कि ” बहुजन” राजनीति अब लखनऊ या दिल्ली से नहीं ज़मीनी स्तर पर मेहनत करके ही चल पाएगी,और हो न हो बहन जी को भी अब ये नज़र आ रहा है।

क्यूंकि खबर ये भी है कि चंद्रशेखर की पार्टी अखिलेश यादव से गठबंधन कर सकती है और अगर ऐसा होता है तो “बहुजन समाज” के सामने जब दो तरह के उम्मीदवार होंगे जिसमें एक बसपा का उम्मीदवार होगा जो “पैराशूट” से आया होता है और दूसरा ज़मीन पर मेहनत करके उसके हक़ की आवाज़ बुलंद करता रहा है तो वो फिर आखिर किस वोट देगा ये सब वो ज़रूर सोचेगा।

बहरहाल…. बसपा के लिए आगे की राजनीति बहुत मुश्किल है, और अगर उसने सुधार नहीं किये तो राजनीति नामुमकिन भी हो सकती है ।

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