नज़रिया – क्या चुनाव आयोग पक्षपात कर रहा है ?

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चुनाव आयोग द्वारा, पश्चिम बंगाल में सातवें चरण के चुनाव प्रचार का समय एक दिन घटाने का आदेश विधि विरुद्ध है। 19 मई को आखिरी चरण का चुनाव है और नियमतः 48 घन्टे पहले यानी 17 मई को सायं 5 बजे तक सभी दल चुनाव प्रचार कर सकते हैं। सातवें चरण के लिये जो अधिसूचना लागू की गयी है उसमें यही समय सीमा प्रचार के लिये दी गयी है।  लेकिन आज 15 मई को चुनाव आयोग ने यह प्रचार सीमा एक दिन के लिये कम कर दिया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आयोग के इस आदेश को अनैतिक, असंवैधानिक और गलत बताया है।
आयोग के उप निर्वाचन आयुक्त चंद्रभूषण कुमार ने आज जल्दीबाजी में बुलाये एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस आदेश की घोषणा की। आयोग ने राज्य के प्रमुख सचिव गृह अत्रि भट्टाचार्य और एडीजी सीआईडी राजीव कुमार को अपने पद से हटा दिया है। मुख्यमंत्री ने आयोग के इस कदम को भाजपा नेतृत्व के इशारे पर लिया गया कदम बताया है। आयोग का यह आदेश, 16 मई को रात्रि 10 बजे तक का है। कल प्रधानमंत्री की दो रैलियां भी कोलकाता में हैं। आयोग के अनुसार, उसने यह कदम संविधान की धारा 324 के अंतर्गत उठाया है।
अगर आयोग को लगता है कि चुनाव के दौरान और व्यापक हिंसा हो सकती है तो वह इंटेलिजेंस रिपोर्ट के आधार पर उपद्रवी तत्व के विरुद्ध निरोधात्मक कार्यवाही कर सकता है। कल की हिंसा में जांच कर के वह दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही भी कर सकता है। पर इस प्रकार का कदम आयोग का निकम्मापन ही साबित करता है। अगर आयोग को लगता है कि राज्य की कानून व्यवस्था की मशीनरी फेल हो गयी है तो, वह अतिरिक्त व्यवस्था करे और यह भी जांच करे कि अचानक यह सारी व्यवस्था गड़बड़ कैसे हो गयी ?
जनता को चुनाव प्रचार की निर्धारित अवधि जो चुनाव की अधिसूचना में स्पष्तः घोषित है, अपने प्रत्याशियों से बात करने, उनकी सभा मे जाने, प्रचार करने का कानूनन अधिकार मतदान की तिथि से मतदान समाप्त होने के 48 घँटे पहले तक का है। उसके इस लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार को छीना नहीं जा सकता है। संविधान अनेक प्राविधानों के अनुसार संवैधानिक संस्थाओं को उनके दायित्व निर्वहन के लिये असीमित अधिकार देता है। अनुच्छेद 324 ऐसा ही प्राविधान है। पर अधिकार और शक्तियां कितनी भी असीमित हों उन्हें सनक के साथ नहीं लागू किया जा सकता है।
चुनाव निष्पक्ष और शांतिपूर्ण हों, यह बेहद ज़रूरी है और यही आयोग का कर्तव्य और दायित्व है। पर आयोग ने इस पूरे चुनाव काल मे प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष को आचार संहिता के अंकुश से जानबूझकर कर बचाये रखा। हर आपत्तिजनक बयान चाहे वह सेना के दुरुपयोग का मामला हो, या धर्म के आधार पर उन्माद फैलाने का, आयोग ने अपने ही एक सदस्य के मन्तव्य को दर किनार और राज्यों से प्रतिकूल रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद भी प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष को क्लीन चिट दी है।
भारत के निर्वाचन के इतिहास में यह पहला अवसर है जब आयोग और मुख्य निर्वाचन आयुक्त को आचार संहिता हनन के मामलों में सुप्रीम कोर्ट में पेश होना पड़ा। आयोग को भी, जितने अधिकार और शक्तियां उसके पास हैं, की याद जब सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नम्बर एक मे, जज साहबान ने याद दिलाया तो याद आया। चाहे उम्मीदवारों की पर्चा निरस्ती का मामला हो, या आचार संहिता के उल्लंघन का हर विंदु पर विवाद उठा है और आयोग बेबस नज़र आया है। आयोग अगर विधिवत कार्य कर रहा है और वह एक रेफरी की तरह खेल के नियमों के प्रति सचेत और सजग है तो यह चेतनता और सजगता,  प्रत्यक्ष दिखनी भी चाहिये।
निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का इतना पतन और गैरकानूनी रवैय्या कभी नहीं रहा है । इसके लिये जिम्मेदार मुख्य निर्वाचन आयुक्त हैं। उनकी क्या मज़बूरी है कि वे अपना ही मेरुदंड टटोल नहीं पा रहे हैं वह तो वही बता पाएंगे। 16 मई को प्रधानमंत्री की कोलकाता में दो रैलियां हैं। अगर स्थिति सामान्य है तभी तो आयोग ने इन रैलियों की इजाज़त दी है। पर क्या पीएम की दोनों रैलियों के बाद वहां अशांति फैल जाएगी, ऐसी कोई खुफिया सूचना है क्या ? आखिर क्यों पीएम की रैली के बाद ही दूसरे दिन से प्रचार पर रोक लगा दी गयी है ? आयोग को इन असहज सवालों से रूबरू होना पड़ेगा। चुनाव में हार जीत होती रहती है। सरकारें बनती बिगड़ती रहतीं है। यह संसदीय लोकतंत्र की एक खूबसूरती है। पर चुनाव आयोग की इस क्लीवता को वे सभी याद करेंगे जिन्होंने 2019 का यह चुनाव देखा है।

© विजय शंकर सिंह