यह भी पहली बार ही हम देख रहे हैं कि कुछ लोग शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वसुलभ करने की मांग के बजाय उसे महंगी किये जाने के सरकारी निर्णय पर सरकार के साथ हैं। जैसे लगता है कि इन दो मूलभूत आवश्यकताओं से उनका न तो उनका कोई सरोकार रहा है और न ही आगे कोई सरोकार पड़ेगा। उनका कहना है, शिक्षा पर टैक्स का धन व्यय करना दुरुपयोग है। आज हम ऐसी मानसिकता में आ गए हैं कि हमें सरकार द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य पर धन व्यय करना दुरुपयोग लग रहा है। यह मानसिक दरिद्रता के लिये किसे दोषी माना जाय ? आज का विमर्श शिक्षा बजट के संदर्भ में है।
सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज बेंगलुरू के वरिष्ठ शोध सलाहकार, ज्योत्सना झा और मधुसूदन राव ने नयी शिक्षा नीति के आलोक में शिक्षा के बजट और सरकार की प्राथमिकता पर एक अध्ययन किया है। यह लेख उसी शोध पत्र के आंकडो और निष्कर्ष पर आधारित है। शिक्षा का अधिकार और नयी शिक्षा नीति, सरकार के शिक्षा के संबंध में दो महत्वपूर्ण निर्णय हैं। पर सरकार क्या अपने इन दोनों महत्वपूर्ण फैसलों को लेकर गंभीर है ? आइए इसे देखते हैं।
मई, 2019 में जारी, सरकार की नयी शिक्षा नीति के मसौदे में यह सुझाव दिया गया है कि, सभी सरकारी खर्च का 10 % शिक्षा पर आज जो व्यय हो रहा है उसे 2030 तक बढ़ा कर 20 % कर दिया जाय। लेकिन बजट में शिक्षा के लिये धन के प्रावधान को देख कर ऐसा लगता है कि इस लक्ष्य को पाना अभी तो असंभव है। अगर 2015 से अब तक सरकार द्वारा शिक्षा बजट की राशि का मूल्यांकन, मुद्रा स्फीति के अनुपात में, किया जाय तो, यह निष्कर्ष निकालता है कि, वह निरंतर घटती जा रही है, और यह स्थिति न केवल केंद्रीय बजट की है, बल्कि राज्यों के बजट की भी है। शिक्षा एक उपेक्षित क्षेत्र बनता जा रहा है।
सबको अच्छी शिक्षा मिले यह हमारा संवैधानिक अधिकार है। शिक्षा के उन्नयन से, बाल विकास और सशक्तिकरण सहित मानव विकास के सभी कारक तत्व एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। बेहतर शिक्षा, बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। उदाहरण के लिये केरल और हिमाचल प्रदेश जो बच्चों की शिक्षा पर अधिक धन खर्च करते हैं, उनके यहां बाल विकास और सशक्तिकरण का स्तर, उन राज्यों की अपेक्षाकृत अधिक है जो शिक्षा पर कम धन व्यय करते हैं। शिक्षा पर अधिक धन खर्च करने वाले उपरोक्त दोनों राज्यों में प्राइमरी, सेकेंडरी और उच्च शिक्षा में छात्रों की उपस्थिति भी अधिक है और शिक्षा के प्रसार के कारण, लैंगिग अनुपात, बाल विवाह जैसी कुरीतियों में भी वहां कमी आयी है।
स्कूली शिक्षा पर सरकार के व्यय का आंकड़ा जो सेंटर फ़ॉर बजट एंड पालिसी स्टडीज, द्वारा एकत्र किया गया है
2012 – 13 से 2018 – 19 तक स्कूली शिक्षा पर सरकार के व्यय का आंकड़ा जो सेंटर फ़ॉर बजट एंड पालिसी स्टडीज, द्वारा एकत्र किया गया है को देखें तो आप पाएंगे, कि 2014 के बाद शिक्षा के बजट में निरंतर कमी आती गई है। सरकार के इस वादे के बावजूद, कि, शिक्षा बजट बढ़ाया जाएगा, केंद्रीय बजट में शिक्षा के लिये आवंटित धन 2014 -15 में बजट का 4.14% था, और 2019 – 20 में यह घट कर, 3.4 % हो गया। जबकि वादा, बजट का 10 % शिक्षा पर व्यय करने और उसे बढ़ा कर, 2030 तक, 20 % तक करने का है। 2014 के बाद से पारित हर केंद्रीय बजट में शिक्षा के लिये आवंटन धन क्रमशः कम होता गया है। 2019 – 20 के बजट में भी यह राशि 3.4 % से बढ़ी नही है। स्कूली शिक्षा के लिये ही नही बल्कि, शिक्षा के अन्य विभागों के लिये भी बजट में लगातार कटौती की गई है। स्कूली शिक्षा के लिये 2014 – 15 के बजट में जहां कुल धनराशि, 38,600 करोड़ रुपये थी, वही 2018 – 19 के बजट में यह राशि कम हो गयी, जो 37,100 करोड़ रुपये थी। इस अवधि में मुद्रा स्फीति और महंगाई के आंकडो से अभी इस कमी की तुलना नहीं की जा रही है।
सरकार का यह वादा, कि वह 2030 तक 20 % बजट की राशि शिक्षा पर व्यय करेगी, के लक्ष्य को पाने के लिये, राज्यों को भी अपना शिक्षा बजट बढ़ाना पड़ेगा। फिलहाल, राज्यो का शिक्षा बजट में व्यय का कुल भाग, 70 से 80 % तक होता है। अगर हम नयी शिक्षा नीति की बात करें तो, राज्य सरकारें शिक्षा पर जितना व्यय करती हैं, वह चौदहवें वित्त आयोग की 2014 – 15 से 2019 – 20, की पंचसाला अवधि में आनुपातिक रूप से कम हुआ है। राज्यों को धन का आवंटन तो बढ़ा है, पर राज्यो ने शिक्षा पर वास्तविक व्यय कितना किया है। यह तो 2020 – 21 के बजट से ही जाना जा सकेगा। नयी शिक्षा नीति का मसौदा, यह तो कहता है कि राज्य, शिक्षा पर अधिक धन व्यय करेंगे, पर यह स्पष्ट नहीं हैं कि बिना केंद्रीय सहायता के राज्य अपना शिक्षा का बजट बढ़ाएंगे कैसे ?
वर्ष, 2012 – 13 से लेकर 2019 – 20, कुल आठ वर्षों के बजट दस्तावेजों के आधार पर स्कूली शिक्षा में व्यय का विश्लेषण करें तो यह पता चलता है, कि केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, और हिमाचल प्रदेश में, सम्पूर्ण सरकारी व्यय के अनुपात में शिक्षा पर व्यय कम हुआ है, जबकि वहां व्यय अधिक होता था। 2014 – 15 में स्कूली शिक्षा पर व्यय, 16.5 % था, जो घटकर 2019 – 20 में उपरोक्त राज्यो का 13.52 % हो गया है। 2014 – 15 के बाद राज्यो में कर संग्रह तो बढ़ा है, पर शिक्षा में केंद्रीय सहायता कम होने से क्रमशः शिक्षा पर व्यय भी कम होता गया है। ऐसा चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद हुआ है।
उपरोक्त छह राज्यों में शिक्षा पर व्यय जो 2014 – 15 में 16.05 % था, से घटकर 2018 -19 में 13.52 % हो गया और कमी का यह सिलसिला 2014 के बाद शुरू हुआ है। वर्ष 2018 – 19 से वर्ष 2019 – 20 में शिक्षा व्यय में थोड़ी वृद्धि हुयी है, लेकिन यह वृद्धि बजट के अनुमानों में थी, न कि वास्तविक व्यय में। सभी राज्यो ने अपने कर संग्रह में वृद्धि के बावजूद शिक्षा बजट में वृद्धि नहीं की बल्कि उसे कम ही किया है। उदाहरण के लिये केरल का शिक्षा व्यय जहां, 2012 – 13 में 14.45 % था वहीं वह 2018 – 19 में गिर कर 12.8 % हो गया। जबकि वार्षिक वृद्धि दर 12.8 % इस अवधि में रही है।
उपरोक्त छह राज्यो में से पांच राज्यों, केरल, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और ओडिशा में शिक्षकों के वेतन में वॄद्धि हुयी है, जिससे शिक्षा में व्यय अधिक दिख रहा है। शिक्षकों की वेतन वृद्धि के अतिरिक्त शिक्षा में अन्य कार्य जैसे नए स्कूलों का खोलना, पुराने स्कूलों का स्तर बढ़ाना, विद्यार्थियों को किताबे, तथा अन्य संसाधन उपलब्ध कराना, आदि महत्वपूर्ण विन्दुओं पर व्यय बहुत ही कम हुआ है। जहां तक वित्त आयोग द्वारा धन आवंटन की प्रक्रिया का प्रश्न है वह पूर्णतः पारदर्शी है, पर सरकार उक्त आवंटित धन में से कितना धन राज्यो को वास्तविक रूप से देती है, उसका कोई स्पष्ट विवरण पब्लिक डोमेन पर उपलब्ध नहीं है। केंद्रीय सरकार की शिक्षा से जुड़ी जो योजनाएं होती हैं उनमें कितना व्यय हुआ या किस किस मद पर व्यय हुआ इसका भी विवरण नहीं मिलता है।
सभी राज्यों के लिये शिक्षा पर एक समान व्यय की नीति नहीं बनायी जा सकती है
सभी राज्यों के लिये शिक्षा पर एक समान व्यय की नीति नहीं बनायी जा सकती है। ऐसा अलग अलग राज्यों की अलग अलग समस्याओं के कारण है। कुछ राज्य शिक्षा पर 15 से 20 % तक बजट की राशि का व्यय करते हैं, कुछ इतना नहीं कर पाते हैं। हालांकि आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्य अपने बजट का कम प्रतिशत धन शिक्षा पर व्यय करते हैं पर उनके यहां प्रति छात्र व्यय आधिक होता है । संपन्न राज्यों को और अधिक धन व्यय करने के लिये कहा जाय, इससे बेहतर होगा कि, उन राज्यो को आर्थिक सहायता अधिक उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाय जो गरीब है और शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े भी है।
सरकार का कहना है कि, नयी शिक्षा नीति के अनुसार, अगर सम्पूर्ण बजट के आनुपातिक शिक्षा बजट मे, जैसे जैसे सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) में वृद्धि होती जाएगी उसी के अनुपात में शिक्षा बजट में भी वृद्धि होती जाएगी । सरकार के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 2025 में 5 ट्रिलियन और 2030 तक 10 ट्रिलियन की हो जाएगी। लेकिन अर्थव्यवस्था में लगातार दिख रही मंदी, गिरता कर संग्रह, विभिन्न कोर सेक्टरों में गिरावट आदि चिंतित करने वाले आर्थिक सूचकांकों को देखते हुये फिलहाल तो यही लगता है कि यह लक्ष्य पाना मुश्किल है।
नयी शिक्षा नीति में निजी निवेश और कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) की भूमिका और योगदान का भी उल्लेख है और इस पर भरोसा भी जताया गया है। सीएसआर एक नयी अवधारणा है। यह कॉरपोरेट घरानों को अपने लाभ का कुछ अंश लोकोपकारी कार्यो पर व्यय करते हैं। इसमे उन्हें कर लाभ भी मिलता है। हालांकि इसमें भी लाभभक्षी कॉरपोरेट ने अपना धन बचाने और लोक को लोकोपकारी कार्य मे भी ठगने का काम कर रखा है। कॉरपोरेट द्वारा व्यय किये गये, सीएसआर के आंकड़े देखने से ज्ञात होता है कि कॉरपोरेट ने 2016 – 17 में अपने सीएसआर कोष का कुल 37 % शिक्षा पर व्यय किया है, लेकिन जब इस राशि को रुपयों में बदलेंगे तो, यह धनराशि, केवल 2,400 करोड़ रुपये ठहरती है। यह धनराशि सरकार द्वारा शिक्षा पर कुल व्यय की गयी धनराशि का केवल 0.5 % है। अगर समस्त राज्य और केंद्र द्वारा भी व्यय की गई राशि को जोड़ा जाए तो यह प्रतिशत 0.1 % ही ठहरती है। कॉरपोरेट क्षेत्र के आकार और सुविधाओं को देखते हुये यह धनराशि कम है।
निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट अपनी सीएसआर योजना के अंतर्गत शिक्षा पर व्यय तो करते हैं पर उस व्यय पर सरकार द्वारा किसी भी प्रकार की निगरानी या नियंत्रण नहीं है।
निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट अपनी सीएसआर योजना के अंतर्गत शिक्षा पर व्यय तो करते हैं पर उस व्यय पर सरकार द्वारा किसी भी प्रकार की निगरानी या नियंत्रण नहीं है। निगरानी और नियंत्रण के अभाव में सीएसआर की मॉनिटरिंग ठीक से नहीं हो पाती है। सरकार को जन आवश्यकता के अनुसार सीएसआर के धन व्यय होने के संबंध में कोई न कोई नियमावली या ऐसा दिशा निर्देश बनाना चाहिये, जिससे इस योजना का लाभ जनता तक पहुंच सके।
यह बात अपनी जगह दुरुस्त है कि, सीएसआर से कितने मनोयोग और निष्ठा से, लोकोपकारी कार्य किये जांय पर यह सरकारी शिक्षा बजट का विकल्प नहीं हो सकता है। क्योंकि सीएसआर की धनराशि न केवल कम होती है बल्कि कॉरपोरेट इसका भी उपयोग निवेश – लाभ से प्रेरित होकर लगाते हैं। उदाहरण के लिए कोई भी कॉरपोरेट और कंपनी अपने सीएसआर का धन, ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में स्थित अंडर ग्रेजुएट कॉलेज या पिछड़े क्षेत्रों के विकास में नहीं लगाते हैं।
सीएसआर से संचालित होने वाली सारी परियोजनाएं शहरी क्षेत्रों में और वह भी अधिकतर माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में होती हैं। इसकी पुष्टि सीएसआर जर्नल से की जा सकती है। अब तो कॉरपोरेट ने कहीं कहीं इसे भी कर बचाने के मार्ग के रूप में भी देखना शुरू कर दिया है।
लोकोपकारी कार्यो का अगर इतिहास देखा जाय तो शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अधिकतर लोकोपकारी संस्थाएं धार्मिक संस्थाओं की हैं।
इसाई मिशनरी संस्थाओं ने कैथोलिक और मेथोडिस्ट स्कूलों की एक संगठित श्रृंखला न केवल भारत मे है बल्कि जहां जहां यूरोपीय उपनिवेश रहे वहां वहां स्थापित है। इसी की तर्ज़ पर इस्लाम के धर्मानुयायियों ने मदरसे स्थापित किया। आर्य समाज के आंदोलन के बाद डीएवी कॉलेज भी उत्तर भारत के राज्यो में स्थापित किये गये। विभिन्न क्षेत्रीय और जातिगत संघटनो नें भी अपने अपने समाज के लिये लोकोपकारी शिक्षा संस्थान खोले हैं, जिन्होंने न केवल उक्त धर्म, जाति या समाज का भला किया, बल्कि उसने सभी को उसका लाभ मिला।
शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक सक्रियता ईसाई मिशनरी संगठनों की रही है। भारत मे सबसे पहले यूरोपीयन, या अंग्रेज जब आये तो ईसाई मिशनरियां भी सक्रिय हुयीं और उन्होंने तब शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना कदम रखा। आज भी हर बड़े शहर में सबसे अच्छे और लोकप्रिय स्कूल ईसाई मिशनरी संगठनों के हैं। अधिकतर धर्मादा या दान पर आधारित संस्थाएं ईसाइयों की है। इनके शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान मिलते हैं। नयी शिक्षा नीति में, जनता से प्राप्त धनराशि का भी शिक्षा के क्षेत्र में उपयोग करने की योजना को प्रोत्साहित किया गया है।
सरकार ने 2004 में शिक्षा में धन की कमी दूर करने के लिये 2 % से या अधिभार लगाने का निर्णय किया था। इसे लगाने का उद्देश्य सभी स्कूलों में मिड डे मील की के लिये धन की व्यवस्था करना था। 2007 – 8 के बजट में माध्यमिक और उच्चशिक्षा के लिये इसे 1 % बढ़ा दिया गया । 2018 – 19 के बजट में सभी शिक्षा अधिभार को बढ़ा कर, शिक्षा और स्वास्थ्य अधिभार के रूप में इसे 4 % कर दिया और साथ ही, सकल इम्पोर्ट ड्यूटी पर, 10 % का एक नया समाज कल्याण अधिभार लगा दिया।
बजट में लगाया जाने वाला अधिभार, जिस मद के लिये लगाया जाता है उसका उपयोग उसी मद में होना चाहिये
बजट में लगाया जाने वाला अधिभार, जिस मद के लिये लगाया जाता है उसका उपयोग उसी मद में होना चाहिये। जैसे शिक्षा पर लगाया गया अधिभार, सरकारी बजट में शिक्षा के लिये आवंटित बजटीय धनराशि के ही उपयोग के लिये होना चाहिये। यह धनराशि सरकार द्वारा प्रारंभिक शिक्षा कोष और माध्यमिक तथा उच्चतर शिक्षा कोष में स्थानांतरित की जाती है। प्रारंभिक शिक्षा कोष में जमा की जा रही धनराशि का विवरण तो उपलब्ध है पर माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा कोष में भेजी गयी धनराशि का विवरण नहीं मिलता है।
अधिभार या सेस, सरकार के नियमित कर व्यवस्था का अंग नहीं है। बल्कि आवश्यकता पड़ने पर वह धन की अतिरिक्त व्यवस्था है, जिसे, जिस मद के लिये जनता से उगाहा जाता है, उसी मद में उसका व्यय किया जाना चाहिये। 2015 तक शिक्षा के लिये बजटीय धन आवंटन मे अधिभार का अंशदान लग्भग 70 % हो गया था। इससे यह स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति सरकार की नियमित बजट राशि धीरे धीरे कम होती गयी और सेस बढ़ता गया। अब अधिकतर व्यय अधिभार द्वारा ही चलाया जा रहा है।
एक अनुमान के अनुसार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर लिये जा रहे अधिभार से 64 % तक के धन की कमी पूरी की जा रही है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि सेस या अधिभार नियमित कर नहीं है, और यह कर सीधा केंद्रीय कोष में जाता है तो राज्य सरकारों के लिये अतिरिक्त राजस्व जुटाने का कोई भी ऐसा रास्ता नही बचता है जिससे वह अपने शिक्षा बजट के लिये अतिरिक्त धन की व्यवस्था कर सकें। सेस या अधिभार की उगाही, नियंत्रण और आवंटन केंद्र सरकार करती है। उच्चतर शिक्षा के लिये जो बजट होता है उसमें से एक बड़ा हिस्सा, बड़े तकनीकी संस्थान, आईआईटी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों आदि के लिये चला जाता है। अन्य विश्वविद्यालय औऱ संस्थान के लिये कम ही धन बचता है। अंडर ग्रेज्युएट कॉलेजों के लिये तो धन बचता ही नहीं है।
कई शिक्षण संस्थानों में फीस वृद्धि को लेकर हो रहे हैं आंदोलन
देश के अन्य शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में एलीट समझी जाने वाली जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी ( जेएनयू ) में हॉस्टल सहित अन्य शुल्कों में वृद्धि कर दी गयी है, जिसे लेकर वहां के छात्र आंदोलित हैं। जेएनयू का चरित्र मूलतः सत्ता विरोधी रहा है। न सिर्फ जेएनयू ही बल्कि लगभग सभी शिक्षा संस्थान का चरित्र सत्ता विरोधी रहा है। यह आंदोलन न केवल फीस वृद्धि तक सीमित रहना चाहिये बल्कि यह आंदोलन देश की शिक्षा व्यवस्था के बाजारीकरण के खिलाफ भी मुड़ जाय तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। जेएनयू की फीस तो आज बढ़ी है, पर इसके पहले आईआईटी, आईआईएम जैसे उच्च तकनीकी संस्थानो की फीस सरकार पहले ही बढ़ा चुकी है। लोगों ने इसे चुपचाप सह भी लिया।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, जेएनयू के फीस वृध्दि के खिलाफ आंदोलन के पहले से ही उत्तराखंड के सोलह आर्युवेदिक कॉलेज के हज़ारों छात्र 45 दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। वे धरना दे रहे हैं और मार्च निकाल रहे हैं। सरकार के कोपभाजन बने हुये हैं। पर दिल्ली से दूर होने के कारण, उन्हें वह ध्यानाकर्षण नहीं मिला जो जेएनयू को मिला है। उत्तराखंड में भी, बिना नियमों का पालन किए मेडिकल फ़ीस 80,000 सालाना से बढ़ाकर 2 लाख 15 हज़ार कर दी गई। अगर आप चौथे साल में हैं तो बाक़ी तीन साल की फ़ीस का भी अंतर देना होगा। यह मामला अदालत गया और हाईकोर्ट के एकल पीठ बेंच से छात्रों के पक्ष में निर्णय आया । आयुर्वेदिक कॉलेज ने अपील की लेकिन दो जजों के बेंच से भी यही निर्णय बरकरार रहा। लेकिन इसके बाद भी बढ़ी फ़ीस वापस नहीं हुई है।
निजी स्कूलों और महा विद्यालयों पर सरकार का कोई नियंत्रण इसलिए नहीं है कि अधिकतर स्कूल कॉलेज या तो राजनेताओं के हैं या राजनेता उनमे हिस्सेदार है। कॉलेज बनाना एक फैक्ट्री की तरह हो गया है। अब यह कोई मिशन नहीं रहा बल्कि एक व्यापार हो गया है। मिशन रहा होगा कभी। पर अब यह एक प्रकार का निवेश है जो लाभांश देखता है। सरकारी स्कूल, कॉलेज और अस्पताल कुप्रबन्धित होते हैं, यह एक आम धारणा है। पर कुप्रबंधन करना और उसे जानबूझकर प्रचारित किया जाता है, एक साजिश है। जब ये कुप्रबन्धित होंगे तभी राजनेताओं और पूंजीपतियों के स्कूल कॉलेज और अस्पताल धन कमाने के टकसाल बनेंगे।
मोदी सरकार के पाँच सालों में जीडीपी के अनुपात में शिक्षा पर ख़र्च में कमी आयी है
दरअसल, एक रिपोर्ट के अनुसार, ” भारत उन देशों में है, जो शिक्षा व स्वास्थ्य पर सबसे काम ख़र्च करते हैं. इस साल के बजट का सिर्फ़ 2.32% स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के मद में आवंटित हुआ है, जो जीडीपी का सिर्फ़ 0.34% है। स्वास्थ्य पर सार्वजनिक ख़र्च अभी जीडीपी के सवा फ़ीसदी के आसपास है। मोदी सरकार के पाँच सालों में जीडीपी के अनुपात में शिक्षा पर ख़र्च में कमी आयी है। सरकार 2014-15 से 2018-19 के बीच चार लाख करोड़ से अधिक आवंटित राशि का इस्तेमाल ही नहीं कर सकी। कई सालों से जीडीपी के अनुपात में तीन फ़ीसदी के आसपास शिक्षा के मद में ख़र्च हो रहा है। साठ के दशक में कोठारी आयोग से लेकर आज के ठसक में नीति आयोग तक ने इसे छह फ़ीसदी करना ज़रूरी बताया है। ”
मुद्दा केवल जेएनयू के फीस वृध्दि का ही नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि सरकार का दृष्टिकोण शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी के इतने विरोध क्यों है। आखिर देश के बच्चों और युवाओं को सरकार किस कीमत पर शिक्षा देना चाह रही है। पिछले दस साल में आईआईएम की फ़ीस पाँच गुना तक बढ़ गयी है। आईआईटी के एमटेक की फ़ीस इस साल दस गुना तक बढ़ा दी गयी है। आईआईटी में बीटेक की फ़ीस पाँच साल में चार गुना बढ़ कर दो लाख हो गयी है। प्राइवेट सेक्टर के अच्छे संस्थान की बात करें तो, अशोका यूनिवर्सिटी की फ़ीस ₹ 7.5 लाख सालाना है। सिम्बायोसिस संस्थान की एमबीए की फ़ीस भी ₹ 7.5 लाख सालाना है।
इससे यह स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि, अच्छी पढ़ाई लिखाई आम भारतीय नागरिकों की पहुँच से बाहर होती जा रही है। हैरानी की बात है कि, बहुत से लोग, जिनमें बहुत से प्रतिष्ठित लोग भी, हैं फ़ीस वृध्दि को औचित्यपूर्ण ठहराने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लोगों में मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले वे लोग भी हैं, जो आज सस्ती शिक्षा के कारण ही सफल हुए हैं।
ऐसे लोगों का एक तर्क यह भी है कि दुनियाभर में छात्र शिक्षा ऋण लेकर पढ़ते हैं और महंगी फीस भी देते हैं। दुनिया के विकसित देशों, कनाडा और अमेरिका में शिक्षा ऋण की क्या स्थिति है, इसे देखें। एक आकलन के अनुसार, ” कनाडा में युवाओं को औसतन दस साल अपना स्टडी लोन चुकाने में लग जाते हैं। अमरीका में कुल स्टडी लोन 1.5 ट्रिलियन डॉलर, अर्थात, 100 ट्रिलियन रुपए से अधिक हो गया है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था ही तीन ट्रिलियन डॉलर की है। अमरीका के राष्ट्रपति के चुनाव में स्टडी लोन माफ़ी सबसे बड़ा मुद्दा बन गयी है। बर्नी सैंडर्ज़ इसका वायदा कर रहे हैं और ये मुद्दा वहाँ की दोनों पार्टियों का मुख्य मुद्दा बनता जा रहा है। ”
भारत में तो आज़ादी के बाद, अच्छी शिक्षा ही तरक़्क़ी की सबसे बड़ी गारंटी रही है। सस्ती और अच्छी शिक्षा जाति और जाति आधारित रोज़गार व्यवस्था को तोड़ने का भी सबसे कारगर हथियार बना है। अच्छी शिक्षा समानता का सबसे बड़ा हथियार है। इसलिए माँग उच्च शिक्षा न केवल अच्छी हो, बल्कि सस्ती भी हो। तभी दुनिया से मुक़ाबला कर पाएँगे, तभी जाति की जकड़न कम होगी, तभी लोगों समान अवसर मिल पाएँगे।
जेपी आंदोलन गुजरात में फीस वृद्धि के मुद्दे से ही शुरू हुआ था
छात्र असंतोष और आंदोलन को किसी भी सरकार द्वारा हल्के में नही लेना चाहिये। 1974 का जेपी आंदोलन जो सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है वह गुजरात मे एक छोटे से मुद्दे फीस वृध्दि से शुरू हुआ था। भारतीय परंपरा में शिक्षा कभी भी दूसरे स्थान पर नही रही है। आश्रम व्यवस्था में प्रथम पचीस वर्ष जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है वह शिक्षा को ही समर्पित है। गुरुकुल परंपरा से लेकर, तक्षशिला, नालंदा आदि विश्वविख्यात शिक्षा केंद्रों के नाम शिक्षा के बारे में हमारी प्राथमिकता को बताते हैं।
अंग्रेजों ने भी आने के बाद सबसे पहले शिक्षा पर ही ध्यान दिया। सारे समाज सुधारकों ने चाहे वे ज्योतिबा फुले हों या ईश्वरचंद्र विद्यसागर, या स्वामी विवेकानंद या स्वामी दयानंद सबने शिक्षा के महत्व को समझा और शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये महान कार्य किये। बहुत से राजाओं, सामंतों, और धनपतियों ने भी अच्छे शिक्षा संस्थान की नींव डाली। यह सब एक मिशन और लोकोपकार के उद्देश्य से किया गया था। अब अब यह मिशन नहीं रहा, बल्कि एक व्यवसाय बन गया है, जहां मूल उद्देश्य शिक्षा नहीँ, धन कमाना है।
सरकार को चाहिये कि, शिक्षा को उच्च प्राथमिकता में रखते हुये आम जनता के लिये सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये हर संभव प्रयास करे। शिक्षा संस्थान, शिक्षक, और छात्र सरकार की नीतियों के आलोचक और विरोधी तो हो सकते हैं पर वे देश के शत्रु नही है और सरकार देश नहीं है। वह देश के बेहतर प्रबंधन के लिये जनता द्वारा चुनी गयी है औऱ जब भी सरकार, अपने उद्देश्य, वायदों औऱ प्राथमिकताओं से विचलित होगी तो यह जनता का संवैधानिक दायित्व है कि वह सरकार के विरोध में खड़ी हो जाय। लोकतंत्र की यही विशिष्टता है कि, यहां जनता ही जनार्दन है।
© विजय शंकर सिंह