मैं अपने बयान पर अडिग हूँ, मैं माफ़ी नही मागूंगा

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प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में और जटिलता आ गयी है। कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जा सकता है न कि कानून के इतर तरीके से। अदालत, मुल्ज़िम से कह रही है कि, खेद व्यक्त कीजिए, और कुछ समय हम दे रहे हैं, उस पर पुनर्विचार कीजिए।

मुल्ज़िम का कहना है कि, न तो मूझे मेरा जुर्म बताया गया, न शिकायत की कॉपी दी गयी, न तो मेरे जवाब पर चर्चा हुयी न उस पर जिरह और बहस हुयी, और सीधे माफी के लिये कह दिया जा रहा है !

मुल्ज़िम ने कहा कि, मैं अपनी सफाई के बयान पर अडिग हूँ और माफी नहीं मांगूंगा। यानी, न च दैन्यम न पलायनम।

प्रशांत भूषण के अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेच द्वारा जिस तरह से यह मुकदमा सुना गया है वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि कहीं कहीं इसमे हास्यास्पद विरोधाभास भी है।

  • पहले तो मुकदमे की बुनियाद ही त्रुटिपूर्ण हैं। महक माहेश्वरी की याचिका को बिना अटॉर्नी जनरल की सहमति से स्वीकार कर लिया गया। महक माहेश्वरी सुप्रीम कोर्ट के एक वकील हैं, जिन्होंने प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर अवमानना की याचिका दायर की थी।
  • अवमानना कानून के अनुसार, यह याचिका पर तब तक सुनवाई नहीं हो सकती, जब तक इस पर अटॉर्नी जनरल की लिखित सहमति न प्राप्त हो जाय। अदालत ने इस अधूरी और डिफेक्टिव याचिका पर ही सुनवाई शुरू कर दिया जो नियमविरुद्ध है।
  • इसके साथ ही, इसी याचिका के आधार पर, नियम विरुद्ध जा कर स्वतः संज्ञान से सुनवाई शुरू कर दी गयी।
  • आरोपी को आरोप और शिकायत क्या है, इसकी कोई प्रतिलिपि भी नहीं दी गयी, जो न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतो के विपरीत है।
  • आरोपी के द्वारा 134 पेज की सफाई पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी।
  • सफाई में कुछ ऐसे विन्दुओ पर चर्चा से कतरा कर निकल लिया गया जो न्यायपालिका को असहज कर सकते थे।
  • जब अटॉर्नी जनरल से उनकी सहमति के संदर्भ में पूछा जाना चाहिए था तब अदालत ने यह कह दिया कि, हम इसकी जरूरत नहीं महसूस करते हैं।
  • अचानक, अटॉर्नी जनरल, से यह पूछ बैठना कि, इस मामले में क्या सज़ा देनी चाहिए, और अटॉर्नी जनरल का यह कह देना कि, सज़ा नहीं देनी चाहिए।
  • इसका सीधा अर्थ यह है कि अटॉर्नी जनरल की राय ली गयी होती तो हो सकता है वे इसे अवमानना मानते ही नही और यह मामला यही खत्म हो जाता।
  • बार बार आरोपी से यह कहना कि, पुनर्विचार के लिये कुछ समय ले लिजिये, और आरोपी का बार बार इनकार करते रहना, क्या यह सब एक बेबसी जैसी अवस्था नहीं लगती है ?

दरअसल, अक्सर अवमानना मामलों में आरोपी माफ़ी मांग लेते हैं और इस संकट से मुक्त हो जाते हैं। अदालत को भी लग रहा था कि, या तो प्रशांत भूषण सीधे माफी मांग लेंगे या अपने बचाव में कुछ ऐसा कहेंगे जो अफसोस जताते हुए दिखेगा। वे इस मामले के पटाक्षेप के लिये एक सरल मार्ग अपनाएंगे।

पर ऐसा नहीं हुआ और उन्होंने जो जवाब दाखिल किया, उसमें कुछ ऐसे तथ्य उन्होंने दिए जिसे प्रशांत भूषण के ही वकील दुष्यंत दवे ने, फैसले के पहले, सुनवाई के दौरान, यह कह कर पढ़ने से मना कर दिया था, कि इससे कुछ लोग असहज हो सकते हैं, और इसे जज साहबान खुद ही पढ़ लें।

आज भी जब इसी विंदु पर प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन ने उस अंश को पढ़ना शुरू कर दिया तभी जस्टिस अरुण मिश्र ने उन्हें रोक दिया। आरोपी के बचाव पर फिर न तो कोई बहस हुयी और न ही चर्चा और न ही 14 अगस्त के इस मुकदमे के फैसले में इसका कोई उल्लेख किया गया।

जस्टिस अरुण मिश्र का यह कहना कि ” आपने अपने जवाबी हलफनामे में अपना बचाव किया है या हमे उकसाया है ” बहुत कुछ कह देता है।

अटॉर्नी जनरल ने भी जब पांच जजों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की आलोचना का उल्लेख करना शुरू किया तो जस्टिस अरुण मिश्र ने उन्हें रोक दिया कि आप मेरिट पर न कुछ कहें। इसके पहले, अटॉर्नी जनरल, के वेणुगोपाल यह कह चुके थे कि, आरोपी को सज़ा नहीं देनी चाहिए।

मेरिट पर कुछ न कहें यानी मुकदमा, मेरिट पर नहीं न्यायपालिका के जिद और हठ पर सुना जाएगा ! कानुनी जानकर, इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं और दुनियाभर के कानूनविद इस पर नज़र रखे हैं। यह मुकदमा, लीगल हिस्ट्री में एक चर्चित मुकदमे के लिये जाना जाएगा। शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी यह नहीं सोचा होगा कि यह केस अब उलझ जाएगा। सज़ा मिले या न मिले यह अब महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने सारी कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए, एक पारदर्शी सुनवाई की है ?

यह सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही थी, अन्यथा अगर यह नियमित और वास्तविक न्यायालय कक्ष में होती तो और बेहतर होता। प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में अदालत में आज 20 अगस्त को जो बयान दिया, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

Statement by Prashant Bhushan, Respondent 1

I have gone through the judgment of this Hon’ble Court. I am pained that I have been held guilty of committing contempt of the Court whose majesty I have tried to uphold — not as a courtier or cheerleader but as a humble guard – for over three decades, at some personal and professional cost. I am pained, not because I may be punished, but because I have been grossly misunderstood.

I am shocked that the court holds me guilty of “malicious, scurrilous, calculated attack on the institution of administration of justice. I am dismayed that the Court has arrived at this conclusion without providing any evidence of my motives to launch such an attack. I must confess that I am disappointed that the court did not find it necessary to serve me with a copy of the complaint on the basis of which the suo motu notice was issued, nor found it necessary to respond to the specific averments made by me in my reply affidavit or the many submissions of my counsel.

I find it hard to believe that the Court finds my tweet “has the effect of destabilizing the very foundation of this important pillar of Indian democracy”. I can only reiterate that these two tweets represented my bonafide beliefs, the expression of which must be permissible in any democracy. Indeed, public scrutiny is desirable for healthy functioning of judiciary itself. I believe that open criticism of any institution is necessary in a democracy, to safeguard the constitutional order. We are living through that moment in our history when higher principles must trump routine obligations, when saving the constitutional order must come before personal and professional niceties, when consideration of the present must not come in the way of discharging our responsibility towards the future. Failing to speak up would have been a dereliction of duty, especially for an officer of the court like myself.

My tweets were nothing but a small attempt to discharge what I considered to be my highest duty at this juncture in the history of our republic. I did not tweet in a fit of absence mindedness. It would be insincere and contemptuous on my part to offer an apology for the tweets that expressed what was and continues to be my bonafide belief. Therefore, I can only humbly paraphrase what the father of the nation Mahatma Gandhi had said in his trial: I do not ask for mercy. I do not appeal to magnanimity. I am here, therefore, to cheerfully submit to any penalty that can lawfully be inflicted upon me for what the Court has determined to be an offence, and what appears to me to be the highest duty of a citizen.

Prashant Bhushan

सुप्रीम कोर्ट ने माफी के बारे में एक बार फिर 24 अगस्त तक सोच लेने का वक़्त दिया है। अदालत ने प्रशांत भूषण को अपमानजनक ट्वीट के लिये क्षमा याचना से इंकार करने संबंधी अपने बगावती बयान पर पुनर्विचार करने और बिना शर्त माफी मांगने के लिये 24 अगस्त तक का समय दिया। न्यायालय ने अवमानना के लिये दोषी ठहराये गये भूषण की सजा के मामले पर दूसरी पीठ द्वारा सुनवाई का उनका अनुरोध ठुकराया दिया है।

हालांकि, प्रशांत ने कोर्ट में ही कहा कि मुझे समय देना कोर्ट के समय की बर्बादी होगी, क्योंकि यह मुश्किल है कि मैं अपने बयान को बदल लूं। इस बीच अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल भी सुप्रीम कोर्ट से प्रशांत भूषण को सजा न देने की अपील की।

प्रशांत भूषण ने सुनवाई के दौरान कहा कि

” उन्हें अवमानना मामले में कोर्ट की तरफ से खुद को दोषी ठहराए जाने पर चोट पहुंची है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में खुली आलोचना संवैधानिक अनुशासन को स्थापित करने के लिए है। मेरे ट्वीट सिर्फ नागरिक के तौर पर अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी को निभाने की छोटी कोशिश थे। ”
प्रशांत भूषण ने अपने बयानों को लेकर कोर्ट से माफी मांगने से इनकार कर दिया।

अवमानना के इस मामले में अवमाननाकर्ता को अधिकतम छह महीने की साधारण कैद या दो हजार रुपए तक का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।

अब प्रशांत भूषण ने कितनी अवमानना की है और कितनी नहीं की है यह विंदु अब नहीं रहा, बल्कि अब यह सवाल है कि क्या खुद की अवमानना से निपटने के लिये, अदालत, स्थापित और आवश्यक कानूनी प्रक्रिया को भी बाय पास कर सकती है ? अगर ऐसा है तो, नियम, कायदा, कानून, गवाही, जिरह, बहस, रूलिंग, आदि का कोई मतलब ही नहीं रहा।

( विजय शंकर सिंह )

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