जल्दबाजी में टीकाकरण का हो सकता है भारी नुकसान

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संसदीय समिति को दी गई जानकारी के अनुसार 2021 से पहले कोरोना का टीका संभव नहीं है। यह जानकारी सरकार ने ही प्रोवाइड की है तो फिर 15 अगस्त को वेक्सीन लॉन्च का इतना बवाल क्यो मचाया गया । लेकिन अब यह सवाल कोई नही उठाएगा।

जैसा कि ICMR ने कहा था, अब तक ह्यूमन ट्रायल होना शुरू हो जाना था पर शुरू होने की कोई खबर नहीं आयी है। लेकिन यह सिर्फ भारत सरकार की बात नही अमेरिका की ट्रम्प सरकार भी ‘ऑपरेशन वार्प स्पीड’ चलाने की जानकारी दी गई है। यह अभियान कोविड-19 का टीका जनवरी 2021 तक तैयार करने के मकसद से चलाया गया है। अगर ऐसा होता है तो वह टीका तैयार होने में लगने वाले मानक समय से काफी कम होगा।

लेकिन टीकाकरण जैसे विषय मे जल्दबाजी घातक ही होती है,फरवरी 1976 में अमेरिका की गेराल्ड फोर्ड सरकार ने यह पाया गया कि फोर्ट डिक्स में तैनात जवानों से लिए गए नमूनों से स्वाइन फ्लू वायरस के दो एकक थे और यह 1918 में कहर बरपाने वाली महामारी स्पैनिश फ्लू वायरस की नस्ल से मेल खाता है। इसके बाद स्वास्थ्य जगत में काफी हंगामा खड़ा हो गया।

कमाल की बात यह है जैसे इस अमेरिका में चुनाव है वैसे वह साल भी राष्ट्रपति चुनाव का ही था टीकाकरण संबंधी सलाहकार समिति ने 10 मार्च को यह निष्कर्ष निकाला था कि महामारी आ सकती है। लिहाजा एक प्रतिरक्षीकरण कार्यक्रम चलाने का सुझाव दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति फोर्ड ने बड़े वैज्ञानिकों की सलाह मानते हुए जिसमे पोलियो के टीका बनाने वाले साल्क भी शामिल थे 24 मार्च,1976 को इस टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत कर दी।

टीके के प्रतिकूल असर संबंधी दावों पर मुआवजे का भी कुछ प्रावधान होना चाहिए लेकिन सर्जन जनरल के कार्यालय ने इसे ठुकरा दिया था। लेकिन बाद में यह उस समय मुद्दा बना जब टीका बनाने वाली कंपनियों ने मुकदमेबाजी से बचाव की गुहार लगाई। लेकिन फोर्ड पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। उनकी योजना तो सर्दियां आने तक रोजाना 10 लाख लोगों को टीका लगाने की थी। सीडीसी में राष्ट्रीय इन्फ्लूएंजा टीकाकरण कार्यक्रम इकाई गठित की गई और संघीय सरकार एवं राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से टीकाकरण किया जाना था। टीका बनाने वाली कंपनियों ने अक्टूबर के अंत तक टीका बना लिया और कार्यक्रम के पहले 10 हफ्तों में 4.5 करोड़ लोगों को टीके लगा जा चुके थे।

उसी समय आपदा ने दस्तक दे दी। यह देखा गया कि टीका लगवा चुके लोगों में से करीब 1 लाख लोगों में न्यूरोलॉजिकल समस्या गिलेन-बेयर सिन्ड्रोम के लक्षण दिखाई देने लगे। इस बीमारी से प्रभावित लोगों की बाह्य स्नायु प्रणाली पर असर पड़ा और उन्हें सनसनी एवं झनझनाहट का अहसास होने के अलावा नसों में कमजोरी भी हो रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि पीडि़तों को सांस लेने में तकलीफ और लकवा भी होने लगा।

दिसंबर 1976 आते-आते अमेरिका में लकवा के शिकार होने के 94 मामले सामने आ चुके थे और 16 दिसंबर को इस टीकाकरण कार्यक्रम को पूरी तरह बंद कर दिया गया। फिर ऐसे आरोप लगने अपरिहार्य ही थे, कि इस कार्यक्रम को महज राजनीतिक लाभ के लिए शुरू किया गया था। 20 दिसंबर, 1976 को ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने स्वाइन फ्लू नाकामी के लिए ‘सरकार की स्वास्थ्य अफसरशाही के अपने हितों’ को जिम्मेदार ठहराया।

1976 का यह प्रकरण केवल अकेला वाकया नहीं था। इसके पहले 1955 में भी कटर लैबोरेटरीज के बनाए पोलियो टीके के कुछ बैच में जिंदा वायरस मौजूद थे। इसकी वजह से करीब 40 हजार बच्चों में पोलियो के हल्के लक्षण देखे गए जबकि 51 विकलांग हो गए और पांच बच्चों की तो मौत हो गई थी।

तो यह होता है जल्दबाजी में किये गए टीकाकरण नतीजा ! जो लोग इस पोस्ट के लेखक को टीकाकरण विरोध और एंटी वैक्स आंदोलन का समर्थक बताने का कमेन्ट लिखने का सोच रहे हैंम वे ये जान ले कि उपरोक्त तथ्य भारत के कैबिनेट सचिव रह चुके व्यक्ति ने लिखे है और ये लेख बिजनेस स्टैंडर्ड में छपा है।

भारत मे माइक्रोसॉफ्ट के मालिक लोगो के फाउंडेशन ने जो पोलियो का दो बूंद जिंदगी की का अभियान शुरू किया था, उसके दुष्परिणाम से 5 लाख बच्चों के लकवाग्रस्त होने की खबर एक बड़े मेडिकल जर्नल में भी छपी थी। जिसकी विश्वव्यापी चर्चा हुई ओर आज भी हो रही है, लेकिन भारत के बिके हुए मीडिया ने यह बताना उचित नही समझा । आज भी इस बारे में कोई बात करे तो उस पर कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट का ठप्पा जरूर लगा देते हैं ।