जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का मुद्दा संविधान सभा में उठा तो एक सुर में कई लोग इसका विरोध करना शुरू कर दिये, जिसमें दक्षिणी भारत से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों के सदस्य थे। और उनका विरोध वाजिब था।
फिर इस तर्क के साथ हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया कि “आज़ाद भारत में कोई चीज़ किसी पर थोपी नहीं जा सकती है। हिंदी ज़्यादातर उत्तर भारतीयों की भाषा है ठीक वैसे जैसे इस देश में सैकड़ों भाषायें हैं
अगर आज हम किसी पर अपनी भाषा या अपनी संस्कृति ज़बरदस्ती थोपते हैं तो कल यही इस राष्ट्र के लिये विनाश का कारण बनेगा।”। ये थी उस वक़्त की सियासत और उसकी सूझ-बूझ!
अगर भाषाओं के आधार पर ये राष्ट्र बनता तो भारत के सौ टुकड़े हो गये होते, हर भाषाई अपना अलग देश लेकर बैठा होता। ये यूरोप महाद्वीप का देश नहीं हैं जहाँ सिर्फ़ एक भाषा और एक ही संस्कृति है।
हिंदी सिर्फ़ संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाइस भाषाओं में से एक भाषा है, ठीक वैसे जैसे बंगला, तमिल, उर्दू, मलयालम है। बस आर्टिकल 343 के तहत हिंदी को अधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है।
ज्ञात रहे इस देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है।