इस किताब यानी “सलाम बस्तर” को पढ़ कर जैसे मैं सत्तर के दशक में घूम आया हूँ और वो मेरे सामने से ही निकला चला गया,जहाँ तमाम विवादित गतिविधियों ने पेर पसारे थे और विरोध और समर्थन हुए थे,जी हां बात हो रही है,भारत के माओवादी आंदोलन की जहां एक बीहड़ जंगल मे बैठ कर करी गयी बात एक आंदोलन बन गयी ,वो अलग बात है कि इस पर क्या बहस है क्यों है।
इस किताब को पढ़ते पढ़ते जैसे आप इस किताब में गुम हो जातें है,और ऐसा सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि बस्तर के जंगलों से लेकर तेलंगाना की भिड़ंत सब कुछ आपकी आंखों के सामने गुज़रती हुई नजर आती है,नक्सलियों के कैम्प की स्थितियों को उजागर करना,और किस तरह ये लोग यहाँ तक पहुंचे है सभी मुद्दों को लेकर बहुत खास तरह से इस एक किताब में सँजोया गया है जो बहुत बड़ी बात है,ऐसा करने में सालों गुज़र जाते है,और एक पत्रकार के नाते ये बड़ी उपलब्धि है।
लेकिन इस किताब को मेने उन सैकड़ों हज़ारों किताब के निचोड़ कि तरह पढा है जहां एक एक मोके पर अलग अलग किताबों का ज़िक्र आसानी से आ रहा है,वो अलग बात है कि उस पर किस तरह और किस आधार पर बात हो रही है सरकार का रुख क्या है,लेकिन हां माओवादी आज एक मुद्दा है। जिससे बहुत आबादी जाने अनजाने में ही सही जुड़ गयी है,जिसमे आदिवासी है और जिसमे नक्सली है और जिसमे सरकारें है।
इस किताब को पढ़ कर पत्रकारिता का मतलब समझ आता है,उसकी अहमियत समझ आती है कि कैसे बरसो एक ही जगह गुज़ार लेने के बाद एक व्यवस्थित, तार्किक और बेहतरीन किताब हमारे हाथों में आती है,कैसे हम तथ्यों को जमा करते है,और उसे कहा कैसे इस्तेमाल करते है,इस किताब को ज़रूर पढ़िए, और भारत के एक ऐसे पहलू के बारे में बारीकी से आप सब कुछ जानते हुए चले जायेंगे क्योंकि ये किताब परत दर परत ऐसी ही है। एक किताब के नज़रिए से राहुल पंडिता जी की इस किताब “सलाम बस्तर” को सलाम,जो तथ्यों से भरपूर है और रोमांचित करती है।