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गुलबर्गा के निसार अहमद के जेल में बीते 23 साल क्या कांग्रेस वापस करेगी ?

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तारीख़ थी पन्द्रह जनवरी 1994. जगह थी कर्नाटका. शहर था गुलबर्गा. एक नौजवान जो उस वक़्त फार्मेसी की पढ़ाई कर रहा था. इंटर पास किये हुए उसे सिर्फ दो साल हुए थे. कॉलेज में एडमिशन हुआ और वक़्त बीतने लगा. उसे इस बात का इल्म बिल्कुल नहीं था की जब वह फार्मेसी की पढ़ाई कर रहा होगा तो एक दिन उसे कर्नाटका पुलिस ट्रेन बम ब्लास्ट का आरोपी बता गिरफ्तार कर लेगी.
जिस नौजवान को 15 जनवरी 1994 को गुलबर्गा पुलिस ने अपनी जीप में भर लिया था उसे 28 फरवरी 1994 को कोर्ट में पेश किया गया. एक महीने तेरह दिन तक निसार अहमद का कुछ अता पता नहीं चलता. वो कहाँ है, किस हाल में है ,इसकी ख़बर न उसके घर वालों को थी न ही कॉलेज को. निसार के बाद उनके भाई ज़हीर अहमद को भी पुलिस उठा ले जाती है. आरोप होता है बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेने के लिए ट्रेन में ब्लास्ट.
जिस वक़्त निसार और ज़हीर गिरफ्तार होते हैं उस वक़्त कर्नाटका के मुख्यमंत्री जनता दल के एच डी देवगौड़ा होते हैं जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बनते हैं. देवगौड़ा के बाद कांग्रेस का राज आता है कर्नाटका में. एस एम कृष्णा और फिर उसके बाद धरम सिंह मुख्यमंत्री बनते हैं. इनमें से धरम सिंह तो गुलबर्गा शहर के ही रहें वाले थे. उसी गुलबर्गा जहाँ से निसार और उसके भाई ज़हीर को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया था. गुलबर्गा शहर में तब कांग्रेस के विधायक हुआ करते थे. मौजूदा वक़्त में कमरुल इस्लाम गुलबर्गा उत्तर से विधायक हैं. मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ ताकि आपको पता चल जाए की जब निसार और ज़हीर के माँ बाप भाई बहन अपने दो नौजवान बेटों की इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे थे उस वक़्त कर्नाटका में भाजपा का राज नहीं था. जिस वक़्त निसार अहमद के माँ बाप अपना सब कुछ गँवा कर सत्ता की बेईमानी और पुलिस की मक्कारी के विरूद्ध अदालत की चौखट पकड़ कर खड़े थे उस वक़्त वहां भाजपा की सरकार नहीं थी.

ज़हीर को जेल में कैंसर हो जाता है तो अदालत उसे बिमारी के बिना पर 2008 में बरी कर देती है. निसार उम्र कैद की सज़ा काट रहा होता है.
केंद्र में कांग्रेस थी. राज्य में कांग्रेस थी. गुलबर्गा में भी कांग्रेसी ही थे लेकिन जेल में निसार था. इस मुल्क के सेक्युलरिज्म को बिरयानी के प्लेट में रख जब दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक के दाढ़ी टोपी वाले मुसलमान , फैब इण्डिया का कुरता पहने प्रगतिशील, मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षिता पर हैबिटेट सेंटर के अन्दर मंच सजाने वाले वामपंथी डकार मार रहे थे तब गुलबर्गा में निसार के अब्बा दम तोड़ देते हैं. जवान बेटों की बेगुनाही साबित करते करते 2006 में ज़हीर और निसार के अब्बा नूरुद्दीन अहमद दुनिया से चले जाते हैं. बेटे जेल में और बाहर बाप कब्र में. यही दिया है इस देश की एक बड़ी सियासी पार्टी ने जिसने सेक्युलरिज्म का तमगा हम मुसलमानों से ही हासिल किया है. जिनके हाथ हमारी नौजवान नस्ल की बर्बादी से रंगे हो उनकी पहचान कांग्रेसी है.
क्या निसार की रिहाई के लिए कर्नाटका में एक भी मुस्लिम नेता नहीं मिला? क्या कर्नाटका का एक भी कांग्रेसी निसार और उसके परिवार के लिए नहीं उठ खड़ा हो सकता था ? बात मज़हब की न भी करें तो कम से कम इंसानी हुकूक के लिए क्या एक भी नेता नहीं था इस प्रदेश में ? एक अकेला बाप लड़ता रहा और कहता रहा की मेरे बच्चे बेगुनाह हैं और आखिरकार 23 साल बाद. जी हां तेईस साल के बाद निसार बेगुनाह जेल से छूट जाता है. पिछले दो तीन दिनों से गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज के डाक्टर कफील की रिहाई का जश्न मनाया जा रहा है. भाजपा राज्य और केंद्र दोनों जगह है. जब भी मुसलमानों के विरूद्ध अन्याय होता है तो हर तरह के लोग बचाव में सामने आ जाते हैं. यही कारण रहा की कफील सिर्फ नौ महीने के भीतर ही रिहा हो गये यदि कांग्रेस का शासन होता और कफ़ील जेल में होते तो उनकी रिहाई इतनी जल्दी न हो पाती, क्योंकि हम कांग्रेस के अन्याय और अत्याचार से आँख मूंदे बैठे रहने वाले लोग हैं. कांग्रेस की गोली हमें ज़हर नहीं बल्कि अमृत लगती है और भाजपा का चांटा हमें खंजर की मार.
कार्नाटका में चुनाव हो रहे हैं. गुलबर्गा के निसार , ज़हीर , उनके मरहूम अब्बा ,अम्मा ,बहनों के साथ जो अन्याय की गाथा लिखी गयी, उसका हिसाब लिए बगैर इन कांग्रेसियों का पक्ष लेना मेरी नज़र में सबसे बड़ी बेईमानी है.
मोहम्मद अनस
स्वतंत्र पत्रकार एवं सोशल मीडिया विशेषज्ञ