ग़ज़ल – जाउंगा कहाँ ऐ दिल तुझको छोड़ कर तन्हा

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जाउंगा कहाँ ऐ दिल तुझको छोड़ कर तन्हा

कैसे मैं करूं बढ़ती उम्र में सफर तन्हा

 

भीड़ में या मेले में मैं रहा जहाँ भी हूँ

 ढूंढती रही खुद को ये मिरी नज़र तन्हा

 

हम सफर था जो मेरा हमकदम था जो मेरा

वो चले गया मुझको आज छोडकर तन्हा

 

कानाफूसी करते है लोग ऐसे में अक्सर

घूमना नहीं अच्छा है इधर उधर तन्हा

 

छुप गया हूँ अपने ही जिस्म के बहुत अन्दर

हर तरफ है खतरा अब जाऊँ मैं किधर तन्हा

 

गम गुसार का कंधा भी नहीं मिला सर को

आँसुओं से होता रहता है तरबतर तन्हा

 

काफिले भी लुट जाते है यूँ रहबरों से ही

आपकी”जबल”मिलती है मगर खबर तन्हा

अशफाक़ ख़ान”जबल”
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