जहां से शुरुआत की, आखिर उन उसूलों को क्यों छोड़ गए थे जार्ज

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मुसा हुआ कुर्ता, बिखरे बाल, बिना फाटक का सरकारी बंगला और लड़ाकू शख्सियत ये ब्रांड जॉर्ज फर्नांडीज़ की पहचान थी. जिस समाजवादी विचारधारा ने उन्हे ये सब दिया और लोगों को दीवाना बना दिया जॉर्ज साहब ने अपनी राजनीति की दूसरी पारी में अपने से अलग कर लिया.
इमरजेंसी के हीरो रहे जॉर्ज फर्नांडीज़ जेल में रह कर ही मुजफ्फरपुर से भारी मतों से चुनाव जीते थे. मजदूर नेता के रूप में उनका शानदार योगदान रहा है और रेलवे की अब तक की सबसे सफल हड़ताल उन्ही के नेतृत्व में हुई जिसने इंदिरा गांधी की सत्ता में पकड़ कमज़ोर कर दी थी.
उनपर बड़ोदा डायनामाइट केस चला, इमरजेंसी और इंदिरा गांधी के विरोध में जनता पार्टी को बनाने में मुख्य भूमिका निभाई और जनता पार्टी में जनसंघ से आये नेताओं खासकर अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया. जॉर्ज की मूहीम थी कि आरएसएस और जनता पार्टी दोनों सदस्यता साथ साथ नहीं चल सकती हैं. उसी दबाव के चलते अटल, आडवाणी और जोशी “गांधीवादी सिद्धांतों” पर भारतीय जनता पार्टी बना कर अलग हुये.
फिर न जाने उन्हे क्या हुआ कि जैसे अपने ही खिलाफ उन्होने जंग छेड़ दी और उन्ही अटल और आडवाणी के साथ खड़े हो गये जिनको जनता पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. वो भी बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के बाद.
देश की सेक्यूलर और समाजवादी ताकतों का मनोबल तोड़ने का काम किया था जॉर्ज फर्नांडीज़ ने. पेप्सी और कोकाकोला से लेकर हर मोर्चे पर साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने वाले जॉर्ज फर्नांडीज़ के रक्षा मंत्री रहते हुये ही पोखरण II न्यूक्लियर टेस्ट हुआ. सुना था कि पोखरण उनको अंधेरे में रख कर किया गया था जिसके बाद उन्होने इस्तीफे की भी पेशकश की थी. उस वक़्त भी उनके पास दो रास्ते थे लेकिन तब भी उन्होने गलत ही रास्ता चुना.
काश जॉर्ज फर्नांडीज़ वहीं रहते जहां से चले थे.

प्रशांत टंडन
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