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गज़ल – मैं काँपने लगा हूँ दूरियाँ बनाते हुए

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मैं काँपने लगा हूँ दूरियाँ बनाते हुए
मुहब्बतों से भरी कश्तियाँ डुबाते हुए
गुज़र गई है फकत सीढियाँ बनाते हुए
कराबतों से भरी क्यारियाँ सजाते हुए
के खिड़कियां ही लगाना है काम अब मेरा
उजाले आने की आसानियाँ बनाते हुए
मुसीबतों से संवारी थी ज़िन्दगी हमने
वो सोचता नहीं है बस्तियाँ जलाते हुए
के पासबान हमारा भी सो न जाये कहीं
सफर में चलते रहे सूइयाँ चुभाते हुए
कमी नहीं है जमाने में ऐसे लोगों की
के जिनकी उम्र गई खाइयाँ बनाते हुए
तलाश अब भी”जबल”मोतियों की जारी है
उम्मीद तोड़ी नहीं सीपियाँ उठाते हुए
अशफाक़ ख़ान”जबल”

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