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"जी शंकर कुरूप" देश के पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता

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गोविन्द शंकर कुरुप या जी शंकर कुरुप मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि थे.उनकी प्रसिद्ध रचना ‘ओटक्कुष़ल’ अर्थात ‘बाँसुरी’ भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’से सम्मानित हुई थी.‘महाकवि’ गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं.आज उनकी पुण्यतिथि पर जानिए देश के पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्तकर्ता के बारे में.

प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा

गोविंद शंकर कुरुप का जन्म 5 जून, 1901 ई. को केरल के नायत्तोट नामक स्थान पर हुआ था.बचपन में ही गोविंद शंकर के पिता की आशीष-छाया सिर से उठ जाने के बाद उनकी देखरेख और शिक्षा आदि का दायित्व उनके मामा गोविंद कुरुप ने निभाया.
अपने मामा ‘गोविंद’ के नाम पर ही उनका नाम ‘गोविंद शंकर कुरूप पड़ा’.परिवार में वंश परंपरा मातृकुल से चलने की प्रथा होने के कारण इनका कुलनाम भी ‘कुरुप’ हुआ.संयोग से उन्हीं दिनों नायत्तोट में एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना हुई. बालक कुरुप को वहाँ भर्ती करा दिया गया.
गांव की उस प्राथमिक पाठशाला में शिक्षा का प्रबंध तीसरी कक्षा तक ही था. फिर किसी प्रकार व्यवस्था करके बालक कुरुप को 7 मील दूर स्थित पेरुंपावूर के मलयालम मिडिल स्कूल भेजा गया पेरुंपावूर में छात्रावास के जीवन में एक मुक्त वातावरण मिला, जो कवि शंकर की अस्फुट प्रतिभा के जागृत होने में विशेष प्रेरक व सहायक हुआ. सातवीं कक्षा के गोविंद शंकर जी मूवाट्टुपुषा मलयालम हाईस्कूल पहुंचे. वहाँ दो वर्ष रहे, पर ये दो वर्ष उनके विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण और एक प्रकार से दिशा निर्णायक सिद्ध हुए.
व्यावसायिक शुरुआत
शंकर कुरुप ने कोचीन राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की. वह दो वर्ष तक यहाँ-वहाँ अध्यापन का काम भी करते रहे. उनके कविता संग्रह, साहित्य कौतुकम् के पहले भाग की कुछ कविताएँ इसी काल की हैं. पर अपना अभीष्ट उन्हें तब प्राप्त हुआ, जब वह तिरूविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए. 1921 से 1925 तक शंकर कुरुप तिरूविल्वामला में रहें. प्रकृति के प्रति प्रारंभ में जो एक सहज आकर्षण भाव था, उसने इन चार वर्षों में अन्नय उपासक की भावना का रूप ले लिया. तिरूविल्वामला से कुरुप 1925 में चालाकुटि हाईस्कूल पहुंचे. उसी वर्ष ‘साहित्य कौतुकम’ का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ. 1931 में ‘नालें’ शीर्षक कविता के प्रकाशन ने साहित्य जगत् में एक हलचल-सी मचा दी. कुछ लोगों ने उसे राजद्रोहात्मक तक कहा और उसके कारण ‘महाराजा कॉलेज’, एर्णाकुलम में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति में भी एक बार बाधा आई. 1937 से 1956 में सेवानिवृत्त होने तक इस कॉलेज में वह मलयालम के प्राध्यापक रहे. यहाँ अवकाश प्राप्त कर लेने के उपरांत वह आकाशवाणी के त्रिवेंद्रम केंद्र में प्रोड्यूसर रहे.

काव्य कृतियाँ

गोविंद शंकर कुरुप की काव्य कृति ‘ओट्क्कुषठ’ का प्रथम संस्करण वर्ष 1950 में प्रकाशित हुआ था. इसके मूल रूप में 60 कविताएँ थीं. वर्तमान रूप में 58 कविताएँ हैं. इन कविताओं के माध्यम से कवि के विभिन्न रूप भावों का परिचय मिलता है.

कविता संग्रह

‘महाकवि’ गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित है.उनके लिखे कुछ कविता संग्रह निम्नलिखित हैं-
साहित्य कौतुकम,
चार खंड (1923-1929)
सूर्यकांति (1932)
ओट्क्कुषठ (1950)
अंतर्दाह (1953)
विश्वदर्शनम (1960)
जीवनसंगीतम् (1964)
पाथेयम (1961)
गद्य-गद्योपहारम् (1940)
लेखमाल (1943)
नाटक
संध्य (1944),
इरूट्टिनु मुंपु (1935)

सम्मान

गोविन्द शंकर कुरुप को वर्ष में 1963 उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था. साल 1965 में उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. वे इस सम्मान को पाने वाले पहले भारतीय साहित्यकार थे.
उनकी कविता संग्रह विश्वनाथनम ने साल 1961 में ‘केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार’ जीता.साल 1967 में ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया.
वर्ष 1968 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किया गया था.
आज ही के दिन 02 फ़रवरी, 1978 को इस महान साहित्यकार का निधन हो गया.

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