प्रधानमंत्री का देश के नाम संदेश आया. 8 नवंबर रात 8 बजे. राष्ट्र के नाम ये सन्देश नोट बंदी का था. 500 और 1000 के नोट बंद किये जा चुके थे. एक पल में ये लगा कि ये कदम कितना क्रांतिकरी है. सोशल मीडिया इस कदम की सरहाना करने लगी. इसके पीछे सीधा सा लॉजिक भी यह था कि पुरानी करेंसी जितनी भी है, सब घोषित रूप में सरकार के सामने आया जाएगी. और पारदर्शिता बढ़ेगी. काला धन सामने आएगा. बेईमान गिरफ्त में आ जायेंगे. पर असली खेल यहीं से शुरू हुआ. अगले ही दिनों ये सब के सब आदर्शता वाली बाते धराशायी हो गई.
संविधान में उल्लेखित नीति-निर्देशक तत्वों में राज्य के लिए निर्देशित है कि वो नागरिकों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाये. यदि नोटबंदी को योजना मान लिया जाये तो कायदे से ये कल्याणकारी योजना होनी चाहिए थी.
हालांकि नीति-निर्देशक तत्व मूल अधिकारों की तरह कानूनी नहीं है फिर भी सरकार का दायित्व बनता है कि वो राज्य के हित में ही योजनाएं बनाये,और सरकार अभी तक ये सपष्ट रूप से यह तय नहीं कर पायी है कि नोटबंदी के उद्देश्य क्या थे, और जिस भी उद्देश्य को लेकर नोटबंदी की गयी थी, तो वो उद्देश्य कितने पूर्ण हुए.
सरकार के प्रारम्भिक उद्देश्य
सरकार के मुखिया माननीय प्रधान मंत्री ने 8 नवंबर को देश को संबोधित करते हुए भूमिका बांधते विभिन्न उद्देश्यों का जिक्र किया था वो निम्न है :-
- पीएम ने ब्रिक्स के देशों का जिक्र करते बकौल आईएमएफ और वर्ल्डबैंक हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को चमकता हुआ सितारा बताया था.
- सबका साथ सबका विकास का जिक्र करते हुए, बकौल विभिन्न सरकारी योजनाओं सरकार को गरीबों का मसीहा बताया था.
- भ्रष्टाचार और काला के जड़ें जम चुकी है. और ये गरीबी हटाने में बाधक है.
- कुछ विशेष लोगों ने भ्रष्टाचार फैलाया हुआ है.
- जालीनोट और आंतकवाद एसे नासूर है जो देश को विकास की दौड़ में पीछे धकेलते है. और आंतकवादियों को सीमापार के देश पालते है.
- कालेधन को वापिस लाने के लिए सरकार ने विभिन्न प्रयास किये.
- 500 और 1000 के नोटों की कीमत कुल रकम की 80 से 90 प्रतिशत तक है. और ये ज्यादा नकद राशी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है.
- चुनावों में काला धन का उपयोग व्यापक रूप से होता है.
- देशविरोधी ताकतों के पास 500 और 1000 के नोट अब कागज के टुकड़े बनकर रह जायेंगे.
- नोटबंदी को ‘ईमानदारी का उत्सव’ बताया था.
उपरोक्त बातों से कुल जमा 4 मुख्य लक्ष्य समझ में आते है
कालाधन, भ्रष्टाचार, आंतकवादियों और नक्सलियों पर रोक. ध्यान रहे प्रधानमंत्री ने किसी भी एक वक्तव्य में कैश के डिजिटलाइजेसन को मेंशन नहीं किया. इसके बाद प्रधानमंत्री ने एक बार गोवा में विशुद्ध रूप से राजनैतिक वक्तव्य दिया था, जिसमें भावुक होते हुए देश से 50 दिन मांगे थे.
नोटबंदी के परिणाम:-
नोटबंदी ने अगले ही दिन अपना असर दिखाना शुरू कर दिया. हालांकि बैंक बंद थे. तो लम्बी कतारें तो नहीं लगी. फिर 10 नोवंबर से बैंकों में बड़ी-बड़ी कतारें. कोई अस्पताल नहीं जा पा रहा था. तो किसी के घर में शादी अटकी हुई थी. कतारों में लगे सब के सब आम नागरिक ही थे. और जैसा कि आशा थी, बे-ईमानी का खेल भी शुरू हो गया था. सरकार ने कई जगह पर छापे मारे. जो नाकाफी थे. अंततः तथाकथित देश हित की इस योजना ने 100 से अधिक जान ले ली. छोटे व्यापारियों का धंधा चौपट हो गया था. सरकार नोटबंदी को लेकर विभिन्न गोलपोस्ट शिफ्ट किये. कभी कैशलैश इकॉनमी तो कभी कालाधन.
नोटबंदी के दावों का क्या हश्र हुआ इसके सभी दावों को . विभिन्न पहलुओं से देखते है:-
1.भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार को मापने का कोई व्यापक पैमाना तो नहीं है, फिर भी विश्व की प्रसिद्ध मैगज़ीन फोर्ब्स ने इसी वर्ष मार्च के पब्लिश आर्टिकल भारत को एशिया में सबसे भ्रष्ट देश बताया था. जो कि वास्तव में ही हम सब के लिए शर्मनाक है. ये भी नहीं है कि भ्रष्टाचार पहले नहीं था. पर नोटबंदी के कारण भ्रष्टाचार पर रोक वाला दावा खोखला साबित हुआ.
2. कालाधन
RBI के आंकड़े बताते हैं कि 4 नवंबर 2016 तक 17.97 लाख करोड़ रुपए की कीमत के नोट सर्कुलेशन में थे. 8 नवंबर को कुल 15.44 लाख करोड़ के नोट अमान्य किए गए, जिनमें से 15.28 लाख करोड़ कीमत के नोट वापस आ गए हैं. हजार रुपए के 632.6 करोड़ रुपए के नोटों में से 8.9 करोड़ नोट यानी 8,900 करोड़ रुपए वापस नहीं आए, जो कुल नोटों का महज़ 1.3% है.
इसके दो पहलू हो सकते है:-
1.अगर RBI के पास वापस आया सारा पैसा सफेद है, तो सरकार को ये मान लेना चाहिए कि देश कालेधन है ही नहीं. और देश में कालाधन था ही नहीं. देश की कुल अर्थव्यवस्था को देखते हुए 16 हजार करोड़ बेहद कम रकम है, जिसके लिए इतनी बड़ी कोशिश बेमानी नज़र आती है.
2.वहीं अगर सरकार इससे इनकार करती है, तो इसे इस स्वीकरोक्ति की तौर पर देखा जाना चाहिए कि कालेधन के मालिकों ने सरकार को झांसा देते हुए कालाधन बैकिंग सिस्टम में वापस डाल दिया है.
काले धन की एक पैरलल इकॉनमी होती है जहां तक कालेधन की पैरलल शैडो इकॉनमी का सवाल है, तो हमें 2010 की वर्ल्ड बैंक की स्टडी की तरफ जाना चाहिए, जिसके मुताबिक 1999 में भारत की जीडीपी में पैरलल इकॉनमी 20.7% थी, जो 2007 तक बढ़कर 23.2% हो गई थी. वहीं अमेरिका की ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी की ‘विकासशील देशों में गैर-कानूनी धन का प्रवाह 2004-2013’ टाइटल वाली रिपोर्ट के मुताबिक 2004 से 2013 तक 33.3 लाख करोड़ रुपए का कालाधन भारत से बाहर गया.
3. आंतकवाद
ना ही जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों पर पथराव की घटनाएं भी कम हुई हैं, जो कालेधन और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के सीधे कनेक्शन की तरफ इशारा करती हैं. और ना ही आंतकी हमले. और ना ही पाकिस्तान की तरफ से सीमा पार से होने वाली गोलीबारी. अप्रैल 2017 में सुकमा में एक बड़ा नक्सली हमला हुआ था जिसमें 25 सैनिक शहीद हो गये थे.
आंतकवाद से मौतों के आंकडें:-
जैसा कि आंकड़ो से स्पष्ट है कि अप्रैल 2017 तक ही 266 लोग और सैनिक मारे जा चुके थे.
4.डिजिटलाईजेसन
नोटबंदी से ऑनलाइन कैश का व्यापक विस्तार हुआ. नीति आयोग के अनुसार ऑनलाइन बैंकिंग का विस्तार पहले से 23 गुना अधिक हो गया था. सरकार ने युपीआइ पेमेंट की भी शुरुआत की.
ऑनलाइन बैंकिंग में हुई बढ़ोतरी इस इमेज में भी देखी जा सकती है.
पर ऑनलाइन मुद्रा को बढ़ावा देने के लिए नोटबंदी के अतिरिक्त अन्य कदम उठाये जा सकते थे. जैसे- विज्ञापन और अन्य आकर्षक ऑफर के द्वारा. अतः नोटबंदी का यह उद्देश्य भी सरकार का खोखला नजर आता है.
5.जीडीपी
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद में नोटबंदी की आलोचना करते हुए इसे “ऐतहासिक ब्लंडर” कहा था. और जीडीपी के बारे में प्रेडिक्ट किया था कि जीडीपी 2 प्रतिशत से निचे चली जाएगी. उनका यह दावा 2017-18 के प्रथम क्वार्टर में रिलीज़ जीडीपी के आंकड़ों में सटीक बैठता है. प्रथम क्वार्टर में अपने देश की जीडीपी 5.7 प्रतिशत है.
अब क्या करना चाहिए:-
जब सरकार नोटबंदी जैसा कदम उठा सकती है, तो अब उसे प्रॉपर्टी के बेकाबू मार्केट पर अटैक करना चाहिए, जहां बहुत सारा कालाधन होने की आशंका है. रेरा(रियल एस्टेट एक्ट, 2016) के भी कुछ खास फायदे देखने को नहीं मिले है. हालांकि, पीएम मोदी पहले ही इस तरफ इशारा तो कर चुके हैं, अब उनके एक्शन का इंतज़ार है.
लोगों से उनके बैंक लॉकर्स की जानकारी मांगी जानी चाहिए. अगर किसी चपरासी या क्लर्क के बैंक लॉकर में ढेर सारी प्रॉपर्टी के कागज और सोना बंद है, तो उसे उसका डिक्लेरेशन करना चाहिए. इससे पारदर्शीता बढ़ेगी. और सरकार भी कड़े कदम उठा सकेगी.
बहरहाल, नोटबंदी पर सरकार के पास कहने के लिए ज्यादा कुछ है नहीं. यह सरकार की भूल ही ज्यादा नजर आती है. बाकी जैसा कि जेएनयू के इकॉनमिक्स के रिटायर्ड प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, ‘आर्थिक समस्या को राजनीतिक समस्या में बदलने में वक्त लगता है. देखना होगा नरेंद्र मोदी के सामने ये कैसे आता है.’