अलग अलग समय पर दुनिया भर में सामाजिक अत्याचारों और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष होते रहे हैं.इन संघर्षों से कई बड़े नेता उभर कर सामने आते रहे हैं.जैसे दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध नेल्सन मंडेला, अमरीका में अब्राहम लिंकन एवं मार्टिन लूथर किंग. भारत में भी जात-पात, छुआछूत तथा नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने बड़े पैमाने पर संघर्ष किया और इस संघर्ष की बदौलत वह भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में दलित नेता के रूप में प्रसिद्ध हुये.
भारत के 80 फीसदी दलित जो सामाजिक व आर्थिक तौर से अभिशप्त थे, उन्हें अभिशाप से मुक्ति दिलाना ही डॉ. अम्बेडकर का जीवन संकल्प था. डॉ.अम्बेडकर का लक्ष्य था- सामाजिक असमानता दूर करके दलितों के मानवाधिकार की प्रतिष्ठा करना.
6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर की मृत्यु के लगभग 15 वर्ष बाद तक भारत में कोई भी राष्ट्रीय दलित नेता सामने नहीं आया. एक दलित नेता के रूप में अम्बेडकर के बाद कांसीराम का नाम उल्लेखनीय है.कांशी राम एक भारतीय राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे. उन्होंने अछूतों और दलितों के राजनीतिक एकीकरण तथा उत्थान के लिए जीवन पर्यंत कार्य किया. उन्होंने समाज के दबे-कुचले वर्ग के लिए एक ऐसी जमीन तैयार की जहाँ पर वे अपनी बात कह सकें और अपने हक़ के लिए लड़ सके.
कांशीराम ने अपना पूरा जीवन पिछड़े वर्ग के लोगों की उन्नति के लिए और उन्हें एक मजबूत और संगठित आवाज़ देने के लिए समर्पित कर दिया. वे आजीवन अविवाहित रहे और अपना समग्र जीवन पिछड़े लोगों की लड़ाई में और उन्हें मजबूत बनाने में समर्पित कर दिया.
कांसीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को अपने ननिहाल पृथीपुरा (नंगल) जिला रोपड़ में हुआ था.उनका अपना पुश्तैनी गांव ख्वासपुर (रोपड़) था. वे कुल 7 भाई-बहन थे, जिनमें से कांशीराम सबसे बड़े थे. उन्होंने प्राइमरी तक की शिक्षा गांव के ही स्कूल से ग्रहण की और उच्च शिक्षा रोपड़ से हासिल की. 1954 में ग्रैजुएशन करने के बाद 1968 में वह डिफैंस रिसर्च एंड डिवैल्पमैंट आर्गेनाइजेशन (डी.आर. डी.ओ.), पुणे में सहायक वैज्ञानिक के रूप में भर्ती हो गए.
उस समय बाबा साहेब अम्बेडकर के आंदोलन का काफी असर था.इसी दौरान डी.आर.डी.ओ. का एक कर्मचारी दीनाभान, एक दलित नेता के रूप में अपने साथी कर्मचारियों के साथ मिलकर डा. अम्बेडकर के जन्मदिवस की छुट्टी बहाल करवाने के लिए संघर्ष कर रहा था. कांशीराम भी इस आंदोलन से जुड़ गए. अंतत: दीनाभान के नेतृत्व में उनका संघर्ष विजयी हुआ
इसके बाद उन्होंने बाबा साहेब की विचारधारा का अच्छी तरह अध्ययन किया और 1971 में लगभग 13 साल की नौकरी के बाद इस्तीफा दे दिया. वह बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने हेतु संघर्ष में कूद पड़े.इसके बाद उन्होंने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संस्था की स्थापना की.
यह संस्था पूना परोपकार अधिकारी कार्यालय में पंजीकृत की गई थी.हालांकि इस संस्था का गठन पीड़ित समाज के कर्मचारियों का शोषण रोकने हेतु और असरदार समाधान के लिए किया गया था लेकिन इस संस्था का मुख्य उद्देश्य था लोगों को शिक्षित और जाति प्रथा के बारे में जागृत करना. धीरे-धीरे इस संस्था से अधिक से अधिक लोग जुड़ते गए जिससे यह काफी सफल रही.
सन 1973 में कांशी राम ने अपने सहकर्मियो के साथ मिल कर BAMCEF (बेकवार्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीस एम्प्लोई फेडरेशन) की स्थापना की जिसका पहला क्रियाशील कार्यालय सन 1976 में दिल्ली में शुरू किया गया.इस संस्था ने अम्बेडकर के विचार और उनकी मान्यता को लोगों तक पहुचाने का बुनियादी कार्य किया.
इसके बाद कांशीराम ने अपना प्रसार तंत्र मजबूत किया और लोगों को जाति प्रथा, भारत में इसकी उपज और अम्बेडकर के विचारों के बारे में जागरूक किया.वे जहाँ-जहाँ गए उन्होंने अपनी बात का प्रचार किया और उन्हें बड़ी संख्या में लोगो का समर्थन प्राप्त हुआ.
सन 1980 में उन्होंने ‘अम्बेडकर मेला’ नाम से पद यात्रा शुरू की जिसमें अम्बेडकर के जीवन और उनके विचारों को चित्रों और कहानी के माध्यम से दर्शाया गया.
1984 में कांशीराम ने BAMCEF के समानांतर दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की.इस समिति की स्थापना उन कार्यकर्ताओं के बचाव के लिए की गई थी जिन पर जाति प्रथा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हमले होते थे. हालाँकि यह संस्था पंजीकृत नहीं थी लेकिन यह एक राजनैतिक संगठन था.
1984 में कांशी राम ने “बहुजन समाज पार्टी” के नाम से राजनैतिक दल का गठन किया. 1986 में उन्होंने ये कहते हुए कि अब वे बहुजन समाज पार्टी के अलावा किसी और संस्था के लिए काम नहीं करेंगे, अपने आप को सामाजिक कार्यकर्ता से एक राजनेता के रूप में परिवर्तित किया. पार्टी की बैठकों और अपने भाषणों के माध्यम से कांशी राम ने कहा कि अगर सरकारें कुछ करने का वादा करती हैं तो उसे पूरा भी करना चाहिए अन्यथा ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनमें वादे पूरे करने की क्षमता नहीं है.
बहुजन समाज पार्टी के लिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक प्रचार और संघर्ष किया और देश की सभी राजनीतिक पार्टियों का पसीना छुड़ा दिया.1993 में यू.पी. में पहली बार बहुजन समाज पार्टी के 67 विधायक अपने दम पर जीत हासिल करने में सफल रहे और पार्टी का खूब बोलबाला हो गया. यू.पी. बसपा की कमान उन्होंने कुमारी मायावती के हवाले की. कांशीराम की बदौलत ही मायावती यू.पी. की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं. बाबू कांशीराम स्वयं भी 1991 और 1996 में दो बार सांसद रहे.
अपने सामाजिक और राजनैतिक कार्यो के द्वारा कांशीराम ने निचली जाति के लोगों को एक ऐसी बुलंद आवाज़ दी जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश और अन्य उत्तरी राज्यों जैसे मध्य प्रदेश और बिहार में निचली जाति के लोगों को असरदार स्वर प्रदान किया.
जीवन के आखिरी दौर में लगातार बीमार रहने के कारण उन्होंने साल 2001 में मायावती को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर दिया.6 अक्टूबर 2006 को दलितों को रोशनी देने वाला ये दीपक सदा-सदा के लिए बुझ गया.उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति-रिवाजो से किया गया.
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