ज़ुलैख़ा जबीं
सहारनपुर धधक रहा है उसकी आंच में पूर्व नियोजित राजनीतिक रोटी सेंकी जानी है. वर्ण समर्थकों की कुंठा का ज़हर देश के गली मोहल्लों मे निर्बाध बहने लगा है.जिसे कोढ़ में खाज कहा जाए तो ग़लत न होगा. क़रीब आ चुके स्थानीय निकायों के चुनाव और गुजरात एसेम्बली चुनाव में बेबस-बेगुनाह नागरिकों के ख़ून से सिंचित वोटों की फ़सल काटने वालों का एजेंडा साफ़ नज़र आ रहा है. आज़ादी के 70 दशक बीत जाने के बाद आज भी देश में जातिवादी नफ़रत का निकृष्ट नमूना देखने को मिलना,हमारे मानव से हैवान मे बदलने की ज़िंदा निशानी है.
वैसे भी दलितों पे अत्याचार और हिंसा के मामले मे उप्र का रेकॉर्ड बेहद ख़राब रहा है 2015 के नेशनल क्राइम ब्यूरो रेकॉर्ड देखें तो 8,358 मामले हैं “जो थानों में दर्ज” किए गए हैं. ना दर्ज मामलों का आंकड़ा कौन जाने. मौजूदा सरकार में ही, 15 मार्च से 15 अप्रेल के बीच 712 मामले (जो लूट,डकैती, क़त्ल और रेप के दर्ज हैं) के मुताबिक़ रोज़ एवरेज- 6 लड़कियों,बच्चियों के साथ रेप और 8 लोगों का क़त्ल किया जा रहा है. इसमें कितने दलितए मुस्लिम हैं ये तो वर्ष के अंत की रिपोर्ट से ज़ाहिर होगा. फ़िलहाल सहारनपुर पे वापस आते हैं.
5 मई 2017 को पश्चिमी उप्र के सहारनपुर ज़िले का शब्बीरपुर गाँव स्वर्णों की जातिवादी बरबर्ता का आधुनिक प्रतीक बनकर उभरा है. क्या ये महज़ इत्तेफ़ाक़ है कि एक फ़ोन आने भर से तथाकथित “शांतमना” हज़ारों राजपूतो की भीड़,उठकर शब्बीरपुर गाँव पहुंचती है और दलितों के आशियाने,खुद्दार जीविका के साधन,उनकी दुकानें, कटाई के बाद घर के अंदर बाहर रक्खे गए अनाज, पालतू मवेशी -भैंस,सब आग के हवाले कर दिये जाते हैं. आग भी ऐसी भयंकर कि घर मे रखी हर तरह की चीज़ें स्वाहा,हथियार ऐसे धारदार कि एक ही वार से ओसारे में बंधी गऊमाता का पाँव घुटने से काट दिया जाता है. जिनके वार से 15 से ज़्यादा औरतें, बुज़ुर्ग, नौजवान घायल करके अस्पतालों में पहुंचा दिये जाते हैं. जिनमें वर्तमान सरपंच (दलित) का लड़का भी शामिल है. कई लोग अभी तक गायब है.
पेट्रोल या केरोसिन से बजाय एक छोटा पाउच, जो किसी ठोस चीज़ से टकराते ही आग पैदा कर दे. क्या ये सब किसी धार्मिक कर्मकांड के लिए उपस्थित भीड़ अपने घर से लेकर आई थी? या फ़िर पहले से तैयार रणनीति के तहत ये सामग्री उन्हे बाक़ायदा प्रोवाइड की गई थी? ये वो अहम सवाल हैं, जिनकी पड़ताल कर सकने वाला मीडिया स्वर्णो का भोंपू बना,निरीह दलितों को उपद्रवी, दंगाई, बलवाई जैसे दर्ज़नों उपनामों से न सिर्फ़ नवाज़ रहा है बल्कि “दंगाई राजपूतों” के गम मे रुदाली बना बैठा है.
सहारनपुर प्रकरण की शुरुआत की जाती है 20 अप्रेल (2017) सड़क दूधली गाँव से. जहां स्थानीय भाजपा सांसद राघव लखनपाल (दलित सांसद फ़ुलनदेवी का हत्यारा,ज़मानत पे है) की अगुवाई में अंबेडकर शोभायात्रा के ज़रिए बगैर प्रशासनिक परमिशन, सैकड़ों सशस्त्र लंपट राजपूतों का ज़बरदस्ती मुस्लिम बस्ती में घुसना,आपत्तीजनक नारे उछालना, गालियां निकालना, स्थानीय लोगों के मना करने पर उनकी पिटाई करना, पुलिस के रोकने के बावजूद दुकानों, घरों मे लुटपाट करना, फ़िर उन्हीं गुंडों को साथ लेकर एसएसपी लव कुमार के घर पे हमला, तोड़फोड़ करना, ये सब क्या अचानक हुई घटना है. अंबेडकर जयंती जुलूस को रोकने के नाम पर मुसलमानों को फ़िर से दलितों से कटवाने का मंसूबा इसमें साफ़ नज़र आता है. स्थानीय दलितों की गैरमौजूदगी में अंबेडकर की अवहेलना की अफ़वाह फैलाकर,दलितों को भड़काकर, मुसलमानों पे बड़ा हमला करवाने की साज़िश थी जो दोनों समुदायों के आपसी विश्वास और एकता ने मिलकर फेल कर दी.
उसके बाद 5 मई, 9 मई, और फ़िर 23 मई का जघन्य हत्याकांड जिसमें मायावती की रैली से लौटते हुओं पे संगठित सशस्त्र हमला किया जाना. जिसमें दलितों के अलावा 2 ओबीसी को मौत के घाट उतारा जाता है और एक मुस्लिम को गंभीर रूप से घायल किया जाता हैण. पुलिस छावनी बना ये इलाक़ा-15गाँव और उसके आसपास के दलित-राजपूत मिक्स आबादी के गांवों को चुन चुनकर निशाना बनाया जा रहा है. इसे योजनाबद्ध, संगठित हमला कहते हैं. स्वतःस्फूर्त घटनाएँ या दंगा नहीं, अगर सोशल मीडिया लोगों के हाथों नहीं होता, तो इस सदी में भी हम बथानीटोला, जहानाबाद जैसी कई घटनाओं की संगठित पुनरावृति के धृतराष्ट्री गवाह ही बने रहते, और ज़मीनी सच्चाई के सुबूत के लिए सिर्फ़ वर्णपरस्त सरकारी तंत्र की मनगढ़ंत कहानियों पर विश्वास करने को मजबूर होते.
वर्तमान सरकार अगर ईमानदार,संविधान की इज्ज़त करने वाली होती तो फ़ौरन सड़क दूधली गाँव मे प्रशासन की अनदेखी करने, दंगाइयों को उकसाने और अल्पसंख्यकों पे एकतरफ़ा हमला करवाने के जुर्म में भाजपा सांसद और उनके गुंडों को गिरफ़्तार करती. आपराधिक मुक़दमे कायम करती, “जबकि सोशल मीडिया मे प्र्त्यक्षदर्शी सुबूतों की भरमार है”. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि ठकुराई गुंडागर्दी से पीड़ित एसएसपी परिवार का तबादला कर दिया गया. मंशा साफ़ है अपने पुराने रेकॉर्ड के मुताबिक़ तात्कालीन एसएसपी ऐसा होने नहीं देते और उन्हें हटाये बगैर दलितों ख़ासकर जाटवों को मज़ा चखाने शब्बीरपुर घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता था. सोए बड़ा शिकार फांसने का चारा यहाँ के मुसलमानों को बनाया गया।
5 मई और उसके बाद से शब्बीरपुर गाँव के आसपास के गांवों में लगातार जातीय हिंसा का खूनी खेल खेला जा रहा है. जिससे तंग आकर तीन गांवों – कपूरपुर, ईघरी, रूपड़ि के लगभग 180 दलित परिवारों ने हिन्दू धर्म त्याग बौद्ध धर्म अपना लिया है. स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस उन्हें मीटिंग नहीं करने दे रही और उन्हें गाँव छोड़ने को मजबूर किया जा रहा है. वहीं अन्य गांवों के दलितों का आरोप है कि पुलिस हमारे घरों मे आकर हमें धमका रही है. हमारे निर्दोष जवान बच्चों पे गंभीर धाराएँ लगा रक्खी है. 70 बरस के अपाहिज सावसिंह पर दंगा करने की धाराएँ लगाई हैं. बहुत से ऐसे युवा जो हमले के वक़्त काम पे गए हुये थे, उनपर भी दंगा करने की धाराएँ लगाकर जेल भेज दिया गया है.
राज्य सरकार की उदासीनता की वजह से यहाँ स्वर्ण बहुल स्थानीय प्रशासन पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने और इलाक़े में शांति लाने के लिए सिवाए ज़ुबानी जमा ख़र्च के कोई गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है.
ग़ौरतलब है शब्बीरपुर की दलित आबादी का एक हिस्सा लंबे समय से राजपूतों के खेतों मे काम करता आ रहा है. पारस्परिक,आर्थिकद्ध निर्भरता होने की वजह से अब से पहले गाँव मे ऐसे ख़ूनी हमले का इतिहास नहीं रहा है. स्थानीय जाटव दलितों की आर्थिक स्थिति बेहतर रही है. उनमें से कईयों के पास अपनी ज़मीनें भी हैं. क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि पिछले 10 बरसों से गाँव के सरपंच भी दलित समुदाय से आते हैं. फिर ऐसा क्या हुआ कि स्थानीय राजपूत दलितों के ख़ून के प्यासे हो गए. जवाब के लिए पश्चिमी उप्र के इस इलाक़े की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और जातीय पृष्ठभूमि को समझने की ज़रूरत है.
आज़ादी से पहले राजपुताना रियासतें हुआ करती थीं. आज के पश्चिमी उप्र के सहारनपुर से देहरादून और राजस्थान के नागौर तक फैली हुई,रियासतों का दौर अगस्त 1947 के बाद ख़त्म कर दिया गया. मगर सियासती गौरव का दंभ कहाँ जाता है. इनके पढ़े लिखे संपन्न लोग तो बाहर चले गए, जिनके पास ज़मीनें थीं वो यहीं के ही रहे. राजपूताना शान की “ठस” ने अगली पीढ़ी को शिक्षा से दूर कर दिया.
वहीं दलितों ने बाबा साहेब की जलाई अलख के तहत न सिर्फ़ मेहनत से उच्च शिक्षा हासिल की बल्कि संविधान प्रदत्त अधिकारों के तहत नौकरियों मे भी आए और संपत्ति भी बनाने लगे. अच्छे कपड़े, अच्छा रहन सहन, पक्के बड़े मकान, सुख सुविधा की आधुनिक शैली और खुशहाली, राजपूतों की आँखों में चुभती रही, पीढ़ियों की जातीय घृणा में कुंठा का ज़हर भी घुलने लगा था. मगर मन मसोस कर उन्नत और सम्पन्न होते अछुतों को बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. अब जबकि राज्य में सजातीय योगी सीएम बने तो जातीय नफ़रत मिश्रित कुंठा में उबाल आना स्वाभाविक था. एक कहावत है “सईंया भये कोतवाल अब डर काहे का”, राज्य का मुख्यमंत्री राजपूत, स्थानीय विधायक राजपूत,सांसद राजपूत और तो और डीएम भी राजपूत ! अछूतों को मज़ा चखाने का अचूक मौक़ा तो भगवान प्रदत्त है, फ़िर चूक की गुंजाइश कहां?
बुज़ुर्गों से सुना था जिस जाति कि सरकार,उस जाति के दबंगों की मज़बूती. राजपूतों की सरकार आयी, संरक्षण का भाव जागा कि अब पुरखों के “वर्णाश्रम वाले” गौरवशाली इतिहास को पुनर्जीवित कर सकते हैं. तो सबसे पहले उन्होने आसान शिकार चुना मुसलमान, और सहारा लिया आंबेडकर जयंती का जिसके लिए तारीख़ चुनी गई 20 अप्रेल.
स्थानीय दलितों को साथ लिए बगैर,धारदार हथियारों से लैस, बीजेपी के शाखाई संगठनों के कार्यकर्त्ता, ज़मानत पे रिहा दलित सांसद फूलन देवी के हत्यारे राघव लखनपाल के नेतृत्व में भगवा झंडों से सजा रथ,ट्रेक्टर ट्रॉली लेकर फ़र्जी आंबेडकर शोभायात्रा लिए मुसलमानों को मज़ा चखाने पहुँच गए . सडक दूधली गाँव मे भगवा ब्रिगेड ने यहाँ जो किया उसका उल्लेख ऊपर आ चुका है.
इन्हें मालूम था यहाँ वे असफ़ल होंगे क्यूंकी एसएसपी लव कुमार राजपुताना गौरव की राह में रोड़ा डालेंगे इसलिए उन्हें वहां से बेदख़ल करवाना था, जिसमें वे सफ़ल भी हुये.
क्या ये कम हैरान करने वाली बात है कि 5 मई को जब -सुबह 11 बजे से शब्बीरपुर के निहत्थे दलित बुज़ुर्गों औरतों बच्चों और पालतू मवेशियों पे आधुनिक और परंपरागत शस्त्रों से लैस राजपूतों का हमला किया जा रहा था, तब वहाँ ढेरो पत्रकारों (प्रिंट, इलेक्ट्रानिक) सहित ज़िले का पूरा पुलिस प्रशासन मौजूद था. कुछ ब्लागर्स कि मानें तोद्ध पत्रकारों को ये समझाया जारहा था, कि घटना को किस एंगल से कवर करना है. कौन सी फ़ोटो डालनी है, इत्यादि. फ़िर भी घटना की जानकारी पहले सोशल मीडिया में प्रसारित होती है. ज़िला अस्पताल मे भर्ती गंभीर रूप से घायल दलितों और उनके रिशतेदारों के विडियो बयानों से जो सच बाहर आया है वो न सिर्फ़ फ़िक्र मे डालने वाला है बल्कि ख़ुद को सभ्य, विकसित कहलाने वाला भारतीय बहुसंख्यक समाज जो आज भी दलितों,आदिवासियों,मुसलमानों,इसाइयों के लिए अपने अंदर कितनी नफ़रत समाये बैठा है, उसका नमूना भी दिखाता है.
पिछले महीने भर से शब्बीरपुर को वर्णपरस्तों का जातीय हिंसा में सुलगाया जाना, पीड़ितों की तरफ़ से नामज़द रिपोर्ट दर्ज कराये जाने के बाद भी असली गुनाहगारों को क़ानूनी संरक्षण देना और केंद्र व राज्य सरकारों की हिक़ारत भरी उदासीनता भी फ़िक्रमंद करने वाली है.
राजपूतों के निहत्थे दलितों पर एक तरफ़ा हमले मे गंभीर घायलों को मुआवज़ा तो दूर उनकी पूछपरख भी न करने वाली राज्य सरकार दलितों का घर फूंकते हुये दंगाई राजपूत युवक जिसकी पोस्ट मार्ट्म रिपोर्ट, “दम घुटने” से मौत होना लिखा है, को लाखों का मुआवज़ा फ़ौरन पहुंचवाती है. (जो दादरी के मो.अखलाक़ के क़ातिल की स्वाभाविक मौत पे अखिलेश सरकार के मुआवज़ा देने वाले रुख़ जैसा है) और बड़ी बेशर्मी से अपनी खूफ़िया रिपोर्ट में -हत्यारे राघव लखनपाल का नाम शामिल न करके ये साफ़ कर देना चाहती है कि आरएसएस के ब्राह्मणवादी हिन्दू राष्ट्र की तरफ़ जाने वाली ट्रेन वाया सहारपुर से गुज़ारी जाएगी और “स्टेशनमास्टर” माननीय योगी सभी स्वर्ण यात्रियो को ज़रूरी सुविधाएं व संरक्षण मुहैया करवाएँगे.
फ़िलहाल सहारनपुर हिंसा की जांच 13 सदस्यीय एसआईटी को सौंप दी गयी है, जिसमे एक डेप्युटी एसपी और एक इंस्पेक्टर दलित समुदाय से हैं. ये टीम 5मई से 23 मई के बीच हुई हिंसा पे क़ायम हुये 40 मुक़दमों की जांच करेगी. जिसमें 400 लोग नामज़द हैं और 2000 अज्ञात लोगों के खिलाफ़ हिंसा मे शामिल होने की एफ़आईआर है.
(ज़ुलैख़ा जबीं,नई दिल्ली.)
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