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नज़रिया – झारखंड में टूट गया भाजपा का अहंकार

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झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद ये तो तय हो गया है, कि हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय जनता पार्टी जो हसीन सपने पाल बैठी थी, वो सारे सपने अब जनता से जुड़े मौलिक मुद्दों के सामने ढेर हो रहे हैं। ज़रा आप सोचिएगा कि ऐसा क्या हुआ कि अभी छह माह पहले ही लोकसभा चुनावों में प्रचंड जीत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी पहले हरियाणा में बहुमत से दूर रहती है और जोड़ तोड़ के सरकार बनानी पड़ती है, वहीं उसे महाराष्ट्र में अपने 30 साल पुराने सहयोगी से दूर होना पड़ता है। पिछले डेढ़ साल में मध्यप्रदेश, राजस्थान , छतीसगढ़, महाराष्ट्र और अब झारखंड में सत्ता गंवा देना , भाजपा के लिए चिंता का कारण बन गया है। अब बीजेपी के लिए दिल्ली और बिहार बड़ी चुनौती के तौर पर सामने आ रहे हैं।
सवाल ये उठता है, कि क्या राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मंदी ,महंगाई और बेरोज़गारी भारी पड़ रहा है। कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के पहले जम्मू एवं कश्मीर से धारा 370 को अप्रभावी करने बाद भी भाजपा को किसी भी तरह का चुनावी फायदा नहीं हुआ, जबकि इन दोनों राज्यों में बीजेपी नेताओं बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के द्वारा धारा 370 को हटाने का जिक्र बड़े ही जोर शोर से किया गया था। वहीं झारखंड चुनाव के पहले आयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी भाजपा के द्वारा भुनाने की कोशिशें की गईं। NRC और CAA का भी जमकर ज़िक्र किया गया। पर क्या मौलिक मुद्दे इन मुद्दों पर भारी पड़ गए ?
जब महाराष्ट्र चुनाव हुआ, तो उस वक़्त महाराष्ट्र की जनता से जुड़े जो मुद्दे थे, वो थे वहाँ के किसानों की समस्याएं। हरियाणा में बेरोज़गारी अपने आप में एक बड़ा मुद्दा था। वहीं झारखंड में आदिवासियों से संबंधित अनेक मुद्दे विपक्ष के द्वारा उठाए गए। जिसका नतीजा हमने चुनावों के दौरान देखा।
झारखंड में आदिवासी तो हरियाणा में जाट और महाराष्ट्र में मराठाओं का एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध वोटिंग का पैटर्न देखा गया। बाकी अन्य भाजपा विरोधी वोट इन सभी के साथ एकजुट होकर भाजपा प्रत्याशियों को हराने का कार्य मजबूती से करते पाए गए। झारखंड में मुख्यमंत्री के लिए आदिवासी चहरे JMM के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को आगे करने का भी असर नज़र आया। हेमंत के पिता शिबू सोरेन ( जिन्हे झारखंड में गुरूजी भी कहा जाता है ) न सिर्फ़ आदिवासियों बल्कि अन्य समुदायों में भी सम्मानजनक स्थान रखते हैं। यही वजह रही , कि आदिवासी वोट एकजुट होकर पड़ा और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी सफलता हासिल की। ऐसा माना जा रहा है, कि हेमंत सोरेन ने कांग्रेस और आरजेडी के साथ मिलकर जो रणनीति उसके कामयाब होने के बाद अब वह इस जीत के हीरो के तौर पर उभर कर सामने आए हैं।
झारखंड में महागठबंधन की इस जीत में एक खास बात जो सामने आ रही है, वो ये है कि गठबंधन के विरोध में भी बागी उम्मीदवार मैदान में नहीं था। झारखंड में भाजपा की हार को एक और नज़रिये से देखा जा रहा है, और वो है ” भाजपा नेताओं के अहंकार की हार”।

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