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क्या एनपीआर,एनआरसी के बहाने डाटा जासूसी हो रही है ?

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एनपीआर का आइडिया कोई नया नही है, एनपीआर के जन्म की कहानी जानने के लिए आपको 1999 के कारगिल युद्ध के इतिहास में जाना होगा। पाकिस्तान के सैनिक सिविल कपड़े पहनकर भारत की पहाड़ियों में घुसकर बैठ गए और उनको खदेड़ने में भारत के कई बहादुर सैनिक शहीद हो गए। भारत युध्द तो जीत गया था, लेकिन उसके सामने अपने नागरिकों की पहचान का बड़ा सवाल खड़ा हो गया था।
हर संकट के बाद सरकारे जागती हैं, कारगिल युद्ध के बाद 17 नवंबर 2001 को भारत के सभी मुख्यमंत्रियों की एक मीटिंग बुलाई गई और इस समस्या के हल के लिए बहुउद्देश्यीय राष्ट्रीय पहचान पत्र के विचार का जन्म हुआ, जिसे आज एनपीआर कहा जा रहा है। मीटिंग में उपस्थित सारे लोग इस विचार से सहमत थे औऱ इस तरह भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने 2003 तक इसके नियम और संसाधन को जुटाने के लिए निर्देशित किया गया। अब सबसे बड़ी समस्या ऐसा तकनीकी हल खोजने की थी।
2003 के दौर में ऐसा साफ्टवेयर बनाना या खोजना बहुत टेढ़ी खीर थी। SCOSTA एक ऐसा ऑपरेटिंग सिस्टम था जो ट्रान्सपोर्ट मंत्रालय ने डुप्लीकेट लाइसेंस की रोकथाम के लिए बनाया था। जो बायोमेट्रिक पहचान को एक कार्ड में स्टोर करता था, बहुउद्देश्यीय राष्ट्रीय पहचान पत्र के लिए SCOSTA आधार जैसा काम कर रहा था।  अतः जो लोग यह सोचते है कि “आधार” पहला बायोमेट्रिक आईडी था, वो बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं।
2003 के बाद सरकार सो गई औऱ 2005 में बदल भी गई। तभी अचानक 26/11,2008 को मुंबई हमला हो गया और पहाड़ से घुसने के बाद घुसपैठियो ने समुद्र के रास्ते हमला कर दिया। हमलों के बाद सरकारें फिर जागीं और तटीय इलाकों की सुरक्षा के लिए नए पुलिस स्टेशन बनाये गए और रियलक्राफ्ट डाटा सिस्टम बनाया गया। जिससे मछुआरों की पहचान की जा सके, इस तरह 1999 में सोचा गया एनपीआर का विचार 2008 के बाद इम्लिपिमेंट होना शुरु हो गया था। लेकिन इसी दौरान निजी सेक्टर के नंदन नीलेकणी ने आधार का प्रपोज़ल सरकार के सामने पेश कर दिया।
एनपीआर का उद्देश्य बहुत सारे डाटा पॉइंट्स इकट्ठा करना था। इसलिए उसमे नागरिकता का क्लॉज जोड़ा गया, लेकिन आधार सभी रहवासियों के लिए था, जिसमें विदेशी नागरिक भी शामिल थे। इसके लिए सारे बायोमेट्रिक का डुप्लिकेट बनाया गया और एनपीआर को आधार कार्ड का रजिस्टर बनाया गया। एनपीआर का काम ग्रह मंत्रालय के साथ राज्य सरकारें भी कर रही थीं। अतः एनपीआर डाटा का एक्सेस उनके पास भी था, लेकिन कई राज्य सरकारों के लिए यह काम UIDAI और निजी सेक्टर कर रहा था। पर इन राज्य सरकारों के लिए इसका एक्सेस नही था, इसलिए निजी सेक्टर UIDAI ने उनका अलग डाटा बेस ,डाटा हब और केवायसी बनाया।
यूआईडीएआई और एनपीआर ने अधिक डाटा एकत्र करना शुरू कर दिया है, जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं है। क्योंकि राज्य इसे अपनी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए चाहते थे। अक्सर धर्म और जाति के आंकड़ों को यह समझने के लिए एकत्र किया गया था, कि ये कल्याणकारी योजनाएँ उनकी मदद कैसे कर रही हैं। राज्यों ने इस डेटा का उपयोग 360 डिग्री प्रोफाइल बनाने के लिए किया।
इसी के साथ चीजें बदल गईं और ऐसे डाटा कलेक्शन को SC में चुनौती दी गई। SC ने आदेश दिया कि UIDAI किसी भी बायोमेट्रिक डेटा को साझा नहीं कर सकता है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने इसे चुनौती देते हुए कहा, कि इसे नागरिकता अधिनियम के तहत प्राप्त करना उनका अधिकार है। अतः 2016 के बाद राज्यों के लिये भी इस डाटा का एक्सेस करना नामुमकिन हो गया। डाटा की चोरी औऱ जासूसी की कहानी यहीं से शुरू होती है।
इस अवधि के दौरान, इस डाटा का उपयोग मतदाताओं को हटाने के लिए किया गया था जब चुनाव आयोग ने इसे आधार के साथ वोटर आईडी को लिंक करने के लिए उपयोग किया था। लेकिन चुनाव आयोग के द्वारा स्टेट डाटा हब से साझा किया गया सारा डेटा राज्यों से लीक हो गया। लोग आसानी से पता कर सकते हैं, कि कौन से धर्म और जात लोग कहाँ रहते थे।
आधार पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान, कई बार यह मुद्दा उठाया गया था। अदालत को बताया गया कि सारे स्टेट डाटा हब एक्टिव नही हैं। फिर 2019 की सुनवाई में खबर आई कि 2 राज्यों के आधार डेटा का एक बड़ा डेटा लीक हुआ है और वँहा के राजनीतिक दलों ने इसे चुनावी में मतदाता की प्रोफाइलिंग के लिए उपयोग किया है। इतना ही नहीं इन राज्यों ने न केवल आधार के डाटा का उपयोग किया बल्कि उन्होंने अपने स्वयं के सर्वेक्षण किए तेलंगाना ने इसे सबसे पहले शुरू किया और लोगों से जनगणना के विपरीत अपने घर कस्बों में जाने के लिए कहा, जहां आपका विवरण दर्ज है, जहां आप रहते हैं। इसका इस्तेमाल उन्होंने एक सीक्रेट डाटा बेस बनाने के लिए किया था।
सरकार के पास पहले से ही आपका इतना डाटा है, कि वो आसानी से घुसपैठियों की पहचान कर सकती हैं और नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्ट्रार बना सकती है। लेकिन इस सरकार की नियत में खोट है, वो आपकी निजता के मौलिक अधिकार को लगभग समाप्त करना चाहती है। एनपीआर,एनआरसी सारी राह आगामी डेटा प्रोटेक्शन बिल द्वारा सरल की जा रही है।
मोदी सरकार आपकी शादी से लेकर ससुराल जाने तक पर निगरानी रखने का अधिकार चाहती है। भारत के 135 करोड़ नागरिकों के जीवन के प्रत्येक पहलू को पकड़ने के लिए मोदी सरकार ऑटो अपडेटिंग, सर्चेबल डेटाबेस को बनाने के आखिरी चरण में है। अगर मोदी के अफसरों और सलाहकारों की कल्पना जमीन पर उतर गयी तो यह नागरिकों की प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखने का सबसे बड़ा हथियार साबित होगा।
सरकार का मानना है कि 5 साल से बन रहा नेशनल सोशल रजिस्टर देश के नागरिकों को संकट में डालने वाला नहीं है। इसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना 2011 की अपडेटिंग करना है। इस अपडेटिंग के जरिए गरीबों तक पहुंचने वाली सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा। लेकिन नेशनल सोशल रजिस्टर सर्च बेस्ड आधार नंबर डेटाबेस होगा या फिर ‘मल्टीपल हार्मोनाइज्ड एंड इंटीग्रेटेड डेटाबेस’ होगा, जो आधार नंबरों का इस्तेमाल प्रत्येक नागरिक के धर्म, जाति, आय, संपत्ति, शिक्षा, विवाहित स्तर, रोजगार, उसकी विकलांगता और उसके फैमिली ट्री की जानकारी इकट्ठा करने का काम करेगा।
1948 के भारतीय जनसंख्या सर्वेक्षण कानून लोगों की जानकारी को गुप्त रखने का आदेश देता है। लेकिन इसके विपरीत सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना में जानकारी की सुरक्षा का ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है। यानि कोई भी नागरिक एक शहर से दूसरे शहर कब जा रहा है, या कब नौकरी बदल रहा है, कब नई संपत्ति खरीद रहा है, उसके परिवार में नये सदस्य का जन्म कब हो रहा है, कब किसी व्यक्ति की मौत हो रही है और कब कौन अपने शादीशुदा साथी के घर जा रहा है। सबका रिकार्ड डाटाबेस में लिंक किया जा रहा है और मास्टर डेटाबेस में उसे बढ़ाने की कोई सीमा नहीं है।
जासूसी की ललक इतनी ज्यादा है, कि 4 अक्टूबर 2017 की बैठक में नीति आयोग के विशेष सचिव ने तो यह तक सुझाव दे डाला कि प्रत्येक घर की ‘जिओ टैगिंग’ की जाय और उसे भवन नाम के इसरो द्वारा विकसित किए गए एक वेब आधारित पोर्टल से जोड़ दिया जाए। इस डेटाबेस को तैयार करने के लिए सरकार ने ठोस कदम उठाए हैं। 2021 तक राष्ट्रीय सामाजिक रजिस्ट्री को लागू करने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन भी कर लिया गया है। यह समिति इसको सही तरीके से लागू करने के लिए एक ‘पायलट प्रोजेक्ट’ को अंतिम रूप देने की और अग्रसर है।
अगर आधार नहीं होता तो सामाजिक रजिस्ट्री की शुरुआत भी नहीं होती। लेकिन पहचान के रुप बने आधार की उपस्थिति अनेक तरह के डेटाबेस को एक यूनिक रजिस्टर में शामिल करना संभव कर दिया है। उदाहरण के लिए दो अलग-अलग पैन नंबर और फोन नंबर को लीजिए जो आधार नंबर से जोड़ी गई हैं। अब आधार को सामान्य पहचान के रुप में इस्तेमाल करके पैन नंबर और फोन नंबर को मिलाकर एकीकृत डेटाबेस तैयार करना आसान हो गया है।
आधार केस में जिरह करने वाले निजता के जानकार एक वकील प्रसन्ना एस का कहना है, बिना किसी निश्चित और कानूनी उद्देश्य के खुल्लम-खुल्ला सहमति देने का मतलब होगा सरकार की किसी भी ऐसी कार्रवाई के संदर्भ में “पुट्टास्वामी टेस्ट” का असफल होना। जो निजता के अधिकार की रक्षा करता है। पुट्टास्वामी टेस्ट कहता है, कोई भी डाटा कलेक्शन कानून प्रदत्त एक ही उद्देश्य के लिए होना चाहिए है। ऐसा उद्देश्य जो अपने आप में अकेला और तयशुदा हो किसी एक उद्देश्य के लिए डेटा को इकट्ठा करना और बिना सहमति के किसी दूसरे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना गलत है। किसी आम उद्देश्य के लिए इतना सारा डाटा सबसे शेयर करना गलत है।
अगर नेशनल सोशल रजिस्टर लागू हो गया तो क्या क्या हो सकता है, उसकी आपको कल्पना भी नही है। सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट का निजता के अधिकार का निर्णय ही निरर्थक हो जाएगा। मनमाने तरीके से लोगों को नागरिक या गैर-नागरिक घोषित करना आसान हो जायेगा। जाति जनगणना ने भारतीयों की वित्तीय जटिलता की तस्वीर को किया है। इस डायनेमिक डाटाबेस से नागरिकों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों पर लगातार निगाह बनायी रखना आसान हो जाएगा।
इस पोस्ट का स्त्रोत मेरे दोस्त कुमार संभव और उनके रिपोर्टर साथीयो के द्वारा की गई खोजी पत्रकारिता है। इस खबर को डिटेल में पढ़ने के लिए दी गई लिंक को पढिये,  मित्र Nitin Sethi का विशेष आभार जिन्होंने हम सब डाटा विश्लेषको को इतना सारा डाटा उपलब्ध कराया है। मुझे यकीन है जब तक इनके जैसे साहसी पत्रकार मौजूद हैं। भारत मे असली पत्रकारिता जीवित रहेगी।

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