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लोकतंत्र में संसद और सड़क की लड़ाई, दोनों का अपना महत्व है

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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) कल 3 अक्टूबर  हाथरस गैंगरेप (Hathras Gangrape) की पीड़िता के घर मे थी। वे वहां अन्य विपक्षी सांसदों (MP’s of Opposition Parties) के साथ गैंगरेप की पीड़िता के परिवारीजनों से मिलने गयीं थी। उनके दिल्ली से हाथरस और फिर, हाथरस में पीड़िता के घर से बहुत सी फोटो लगातार सोशल मीडिया पर साझा की जा रही हैं। उन तस्वीरों पर, लोग अपनी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। वे तस्वीरे कुछ को भावुक कर दे रही हैं तो कुछ को इनमे बेहतर राजनीति की सम्भावनाये दिख रही हैं। हाथरस गैंगरेप कांड का एक मॉडल केस के रूप में अध्ययन किया जाना चाहिए, कि ऐसे कौन से कारण थे जो, अपराध की इस घटना को इतना अधिक प्रचारित कर दिये कि सरकार तक इसकी आंच पहुंचने लगी।

इस केस के दो पहलू हैं। एक तो आपराधिक मुकदमा, जिसकी तफतीश पहले हाथरस पुलिस ने की, फिर जब बवाल मचा तो उसे एसआईटी को सौंप दी गयी, और जब बवाल थामे थम नहीं सका तो उसे सीबीआई को सौंप दिया गया। ताज़ी स्थिति यह है कि अब उस केस की विवेचना सीबीआई करेगी। दूसरा पहलू है कि हाथरस के जिला स्तरीय अधिकारियों से लेकर, सरकार तक किसकी किसकी भूमिका इस केस में क्या क्या रही और कैसे कानून व्यवस्था की जटिल समस्याएं उत्पन्न होती रही।

अपराध की जांच तो, सीबीआई करेगी। जिसका अपना एक स्टैंडर्ड प्रोसीजर है, और उनकी तफतीश का तरीका भी पुलिस से अलग होता है। हालांकि वे भी मुकदमे की तफतीशें सीआरपीसी द्वारा प्रदत्त उन्ही शक्तियों के आधार पर करते हैं जिन पर भारत भर की पुलिस तफतीश करती है। लेकिन वे गहराई  से मुकदमो की तह में जाते हैं। सामान्य पुलिस की तुलना में, उनके पास समय और संसाधन भी अधिक होते हैं।

कुछ हाल की राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुकदमो की जांचों को लेकर सीबीआई (CBI) पर ज़रूर सवाल खड़े हुए हैं पर यह मुकदमा, सवाल खड़े हुए मुकदमो की तुलना में बिल्कुल भी राजनीतिक रूप से संवेदनशील नहीं है। यह अपराध का एक केस है जो सरकार और अफसरों की मिस हैंडलिंग से इतना चर्चित हो गया। क्या क्या कमियां हुयी है,  इस पर भी आगे अलग से बात होगी।

फिलहाल तो सोशल मीडिया पर लगातार शेयर की जा रही, विपक्ष के हाथरस दौरे की तस्वीरों और राहुल औऱ प्रियंका गांधी सहित अन्य सांसदो के दौरे की बात की जाय। तीन दिन पहले भी राहुल और प्रियंका दोनो ही हाथरस के लिये दिल्ली से निकले थे, और ग्रेटर नोयडा के पास उन्हें रोक लिया गया था, और वे पैदल ही हाथरस के लिये निकल पड़े। लेकिन फिर उन्हें रोका गया, बल प्रयोग किया गया, फिर उन्हें गिरफ्तार किया गया और, अंत मे बिना मुचलके के रिहा कर दिया गया। हाथरस न जाने देने का फैसला निश्चित ही सरकार का रहा होगा लेकिन यह भी हो सकता है कि, हाथरस से जिला मैजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक की कोई गोपनीय रिपोर्ट भी इस आशय की भेजी गयी हो कि, इन नेताओं के आने से हाथरस में कानून व्यवस्था की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

3 अक्टूबर को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने पुनः हाथरस जाने की बात कही और उन्हें अनुमति दे दी गयी। लेकिन इस बार का यह दौरा अकेले नहीं बल्कि 40 अन्य सांसदों के साथ का था। अनुमति मिलने के बाद, दिल्ली यूपी सीमा पर, डीएनडी फ्लाईओवर पर उन्हें फिर रोका गया और प्रियंका गांधी से बदतमीजी की गई और कार्यकर्ताओं पर लाठी चार्ज भी हुआ। पुलिस की लाठी रोकते और एक पुलिस कांस्टेबल द्वारा प्रियंका गांधी को पकड़ते हुए एक फ़ोटो बहुत शेयर हो रही है। जब उन्हें हाथरस जाने की अनुमति सरकार ने विपक्षी नेताओं को दे दी थी तो, तो फिर डीएनडी पर रोकने की क्या ज़रूरत थी, यह बात समझ से परे हैं।

अब जरा राजनीति के बदलते कलेवर पर एक चर्चा करते हैं। वर्ष 2014 के बाद जानबूझकर कर एक धारणा सबके मन मे सत्तारूढ़ दल के समर्थकों द्वारा फैलाई जा रही है कि विपक्ष की लोकतंत्र में कोई ज़रूरत नही है। विपक्षी नेताओं के प्रति अपमानजनक शब्द, मीम आदि जानबूझकर कर फैलाये गए और हर वह काम किया गया जिससे यह अवधारणा स्थापित हो जाय कि, विपक्ष देश की राजनीति में एक बोझ है, और उसकी कोई जगह नहीं है। साथ ही यह भी अवधारणा बनाई गई कि सरकार की आलोचना, सरकार से सवाल जवाब, और सरकार के कामो के सुबूत मांगना एक पाप है और यह देशद्रोही कृत्य है।

एक ऐसी मानसिकता जानबूझकर कर बेहद शातिराना तरीके से स्थापित करने की कोशिश की गई कि सरकार कोई गलती कर ही नहीं सकती और विपक्ष सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि देश के खिलाफ है। बाद में सरकार का अर्थ केवल नरेंद्र मोदी समझाया जाने लगा। यही सिलसिला राफेल, नोटबन्दी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा, बालाकोट आदि आदि मामलो में हुआ और सरकार समर्थक मित्र एक संगठित तरह से इसे देशद्रोह कह कर प्रचारित करते रहे।

देशद्रोह एक ऐसा आक्षेप है जो अक्सर किसी को भी बैकफुट पर ला देता है क्योंकि देशद्रोही शब्द के साथ कोई भी जुड़ना नही चाहता। यह अलग बात है कि आज जो दूसरों को बात बात पर, देशद्रोही घोषित करते रहते हैं, वे देश की आज़ादी की लडाई के समय जब देशप्रेम और राष्ट्रवाद की सबसे अधिक ज़रूरत थी तो वे साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग के साथ थे या अंग्रेजी हुक़ूमत के। अब यह आप के ऊपर है कि आप उन्हें देशद्रोह की कोटि में रखते हैं या नही।

जब सरकार समर्थको और भाजपा आईटी सेल ने विपक्ष के नेताओ के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाना शुरू किया तो, इसकी प्रतिक्रिया में सबसे अधिक मज़ाक़ प्रधानमंत्री का बनाया गया। अब यह मज़ाक़ इतना अधिक बढ़ गया कि सुप्रीम कोर्ट तक को यह कहना पड़ा कि प्रधानमंत्री का सम्मान किया जाना चाहिए। व्यंग्य, कार्टून, नेताओ की मिमिक्री आदि तो दुनियाभर में नेताओ के बनते रहते हैं पर अपशब्दों और झूठे तथ्यों के आधार पर सत्ता और विपक्ष के नेताओं के मज़ाक़ उड़ाने की यह प्रवित्ति 2014 के बाद राजनीतिक विमर्श की एक नयी शैली बन गई।

इसका परिणाम यह हुआ कि गम्भीर, चिंतनशील, तथ्यपरक और वैचारिक पीठिका पर आधारित राजनीतिक बहस धीरे धीरे नेपथ्य में पहुंचा दी गई। यह स्थिति सरकार के लिये इसलिए फायदेमंद रही कि उसकी नीतियों, कामकाज और राजनीतिक विचार पर होने वाली गम्भीर बहसें और सवाल जवाब करने वाले या तो खुद ही धीरे धीरे कम हो गए, या वे भी विरोध और समर्थन की उसी विदूषक शैली में शामिल हो गए। यह केवल सोशल मीडिया पर ही नहीं हुआ, बल्कि यही प्रवित्ति विधायिकाओं के शीर्ष राज्यसभा तक पहुंच गयी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि राज्यसभा के उपसभापति जो मूलतः इस वैचारिक पीठिका के नहीं है, वे भी जितनी मनमर्जी किसान कानूनो के पारित होने के समय सदन में दिखा सकते थे, दिखा गए।

मुझे लगता है यह सब अनायास नहीं हुआ बल्कि यह सब सायास किया गया। यह एक रणनीति थी कि, एक ऐसा भ्रम फैला दिया जाय कि, लोग यह सहज ही विश्वास कर लें कि, विपक्ष के नाम पर केवल निकम्मे और अगम्भीर लोगों का एक समूह है जो, न तो सरकार की सरकार की आलोचना ही ढंग से कर पाता है और न ही सरकार की उन नीतियों का विकल्प ही प्रस्तुत कर पाता है जिनकी वह आलोचना करता है। यानी एक अगम्भीर, गैरजिम्मेदार और मसखरा विपक्ष है, जो नीति और विचार धुँधता की गिरफ्त में है।

सबसे अधिक मज़ाक़ और तमाशा कांग्रेस के राहुल गांधी का बनाया गया क्योंकि सरकार को सबसे अधिक खतरा वहीं से था और अब भी है। सरकार और सत्तारूढ़ दल कितनी ही बार वे यह कहें कि वे राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेते हैं, लेकिन कटु सत्य यह है कि वे राहुल को बेहद गम्भीरता से लेते हैं। राहुल को न केवल अयोग्य बल्कि गैरजिम्मेदार नेता के रूप में प्रचारित किया गया साथ ही, राहुल गांधी द्वारा गम्भीर विषयों पर की गई तथ्यपरक प्रतिक्रियाओं की भी खिल्ली उड़ाई गयी और हतोत्साहित किया गया।

संघ परिवार की गांधी नेहरू की विरासत, सोच और मानसिकता से पुराना बैर है और यह बैर इतना गहरे तक पैठा हुआ है कि, 2 अक्टूबर को जब पूरी दुनिया, महात्मा गांधी का जन्मदिन, अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मना रही थी तो भारत मे ट्विटर गोडसे अमर रहे हैं से भरा हुआ था। मुझे गांधी के बरअक्स गोडसे को खड़ा करने के उनके प्रयासों पर कभी हैरानी नहीं हुयी। मैं इसे संघ के लिये एक अदद रोल मॉडल ढूंढ़ने की कवायद के रूप में देखता हूँ। रोल मॉडल न मिलने की उनकी खीज पर तरस खाता हूँ।

अगर वे गोडसे अमर रहे कह कर खुश हैं तो उन्हें बिल्कुल खुश रहने दें। लेकिन उनसे एक सवाल पूछिये कि क्या वे अपनी संतान को गोडसे के पथ पर ही चलने के लिये तो प्रेरित करेंगे ? वे इसका उत्तर नकारात्मक ही देंगे। एक बात मैं दावे से कह सकता हूँ कि  जितना गांधी वांग्मय मैंने पढ़ा है उससे मैं यह समझ पाया हूँ, कि अगर किन्ही कारणों या चमत्कार वश गांधी, गोडसे द्वारा गोली मारने के बाद भी जीवित बच जाते तो वे गोडसे को निश्चय ही माफ कर देते।

गोडसे हत्या का एक अपराधी था। जघन्य कृत्य था उसका। उसे कानून ने दोषी पाया और मृत्युदंड की सज़ा दी। गांधी और गोडसे दोनों का अस्तित्व, अंधकार और प्रकाश की तरह है। गांधी प्रकाश हैं तो गोडसे अंधकार। अब यह गोडसे अमर रहे मानने वालो के ऊपर है कि वे अपनी संतति को कौन सी दिशा देना चाहते हैं। जो मित्र गोडसे अमर रहे सम्प्रदाय के है, उनपर कोई भी प्रतिक्रिया न दें।  उनकी मजबूरी समझे। संघ को रोल मॉडल की तलाश है। वह भगत सिंह, सरदार पटेल से लेकर सुभाष बाबू तक एक अदद रोल मॉडल की तलाश में भटक रहे हैं। वे अपने रोल मॉडल के खोखलेपन से भी परिचित हैं और भारतीय समाज की उनके प्रति  अस्वीकार्यता का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान है।

तभी कभी भी उनके बारे में कोई सार्वजनिक समारोह या सेमिनार आदि आयोजित नहीं करते हैं। आज भी जब प्रधानमंत्री जब विदेश जाते हैं तो अहिंसा, बुद्ध और गांधी का ही नाम लेते है। स्वाधीनता संग्राम में अपने जीवन के अंडमान पूर्व काल मे एक उल्लेखनीय भूमिका निभाने के बाद भी वे खुलकर सावरकर का नाम लेने से परहेज करते हैं। लेकिन जन्मजात भ्रमित समाज बन चुका संघ परिवार आज भी एक अदद रोल मॉडल की तलाश में है। इसी तलाश ने नरेंद्र मोदी को एक नए रोल मॉडल या मसीहा या अवतार के रूप में स्थापित करने की कोशिश तो की पर बेहद भोंडे तरह से।

दिक्कत यह है कि जब भी, वह रोल मॉडल  ढूंढते निकलते हैं वहां उन्हें अपनी विचारधारा के विपरीत ही कुछ न कुछ ऐसा मिल जाता है, जिससे वे असहज होने लगते हैं । दुष्प्रचार एक धुंध की तरह होता है। जब धुंध छंटती है तो सब साफ हो ही जाता है। रोल मॉडल का अभाव और नया मनमाफिक रोल मॉडल ढूंढ या न गढ़ पाने की असफलता से वे एक स्वाभाविक खीज से भर जाते हैं। उस खीज पर तरस खाइए, न कि उनका मज़ाक़ उड़ाइये। यही कारण है गांधी नेहरू की विरासत जो स्वाभाविक रूप से आज राहुल और प्रियंका के माध्यम से सामने आ रही है उन्हें बार बार असहज करती है। पर वे कुछ कर भी नहीं पाते हैं।

अगर भाजपा की ही बात मान लें तो, सोनिया गांधी इंग्लैंड की महारानी से भी अमीर है, वाड्रा एक बड़े भूमाफिया हैं, राहुल गांधी एक गैरजिम्मेदार नेता है जिनका आईक्यू स्तर कम है, पर आज 6 साल की सत्ता के बाद भी सरकार ने न तो सोनिया गांधी की संपत्ति की जांच की और न वाड्रा जेल गए। ऐसे आरोप लम्बे समय तक, टिक नहीं पाते हैं, जबकि आरोप लगाने वाले सत्ता में हों और उन आरोपो पर सरकार कुछ कर न सकें ।

हाथरस में विपक्षी नेताओं की पीड़ित परिवार से मिलने की तस्वीरों में अगर राजनीति खोजी जा रही है तो ऐसी राजनीति का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर कुछ मित्रो को यह नाटक तथा नौटंकी लग रही है तो ऐसे नाटक और अभिनय का स्वागत किया जाना चाहिए। भाजपा आईटीसेल ने अपने समर्थकों का सबसे बड़ा नुकसान यह किया है कि, उनके दिमाग और चिंतनशीलता को प्रोग्राम्ड कर दिया है कि वे आसमान और प्रकृति के रंग भी साम्प्रदायिक और सामाजिक भेदभाव के चश्मे से देखने लगे। जिस संस्कृति में अभय का भाव सबसे उच्च नैतिक भाव हो, वहां समाज को निरन्तर भयभीत करके रखने की एक रणनीति जानबूझकर अपनाई गई।

डरा हुआ समाज, एकजुट तो हो जाता है, पर भय पर बनी हुयी वह एकजुटता, हिंसक, विधितोड़क और आत्मविश्वास से हीन बना देती है। ऐसा समाज देश का ही अंत मे अहित करता है। मुस्लिम लीग के रूप में एमए जिन्ना ने मुसलमानों को ऐसे ही बहुसंख्यकवाद का भय दिखा कर एकजुट किया था और अपना लक्ष्य पाकिस्तान को पाया था  पर विडंबना देखिए, उसी पाकिस्तान में आज मुस्लिम बहुसंख्यक हैं फिर भी वे वहां की धार्मिक अल्पसंख्यक जमात से डर रहे हैं और आज भी डर का उनका मनोविज्ञान गया नहीं है। डर का मनोविज्ञान घृणा उत्पन्न करता है और यह इतनी मानसिक विकृति ला देता है कि ज़िंदगी के रंग भी अलग अलग खानों में बंट जाते है। साहित्य संगीत, कला, भाषा, प्रतीक सब कुछ इसी चश्मे से देखने के कारण उनमे से अधिकांश, वैज्ञानिक चिंतन से दूर जा चुके होते हैं।

इसका परिणाम यह हुआ कि जब गम्भीर विमर्श की बात आती है तो सत्तारूढ़ दल के मित्रगण या तो बगलें झांकने लगते हैं या, बहस को जानबूझकर कर अपने चिरपरिचित एजेंडे पर ले जाने की कोशिश करने लगते हैं। वे वर्तमान से अतीत की ओर दौड़ पड़ते है और अतीत की भूलो से कुछ सीख कर उसे परिमार्जित करने के बजाय, इतिहास के पन्नो में बहस को उलझा देते है।  यह आप उनके प्रवक्ताओं के बहस के अंदाज़ से समझ सकते है। जब आप बंटने और बांटने की मानसिकता से संक्रमित हो जाएंगे तो यह सिलसिला केवल धर्म के ही आधार तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह जाति, उपजाति, और इतना अंदर तक आ जायेगा कि गांव घर का पड़ोस भी बंट जाएगा। हाथरस गैंगरेप की घटना के बाद अभियुक्तों के सजातीय पंचायत की बैठक से यह स्पष्ट संकेत मिलने लगा है।

राजनीति की उदात्त, गम्भीर और वैचारिक पीठिका पर आधारित विमर्श की शैली पटरी से उतर चुकी है या कहिये जानबूझकर एक षडयंत्र के अन्तर्गत 2014 से ही उतारी जा रही है । उसे पुनः पटरी पर लाना ज़रूरी है। वह पटरी संविधान, और लोकतांत्रिक परंपराओं से परिभाषित है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की अपनी भूमिका है और वह भूमिका लोकतंत्र में सत्ता से कम महत्वपूर्ण नहीं है। हाथरस में आज जो सरकार की दुर्गति हो रही है वह लोकतांत्रिक परंपराओं से बेपटरी होने के कारण हो रही है। यह सब उस ज़िद, अहंकार, और , जहाँ तक मैं देखता हूँ मैं ही हूँ, की अहंकारी मानसिकता का परिणाम है जो 2014 के बाद लगातार, एक जहर की तरह, समाज, राजनीति, और लोगों में भरा जा रहा है।

राजनीति के इस अलोकतांत्रिक स्वरूप में बदलाव ज़रूरी है। इसीलिये संसद के साथ साथ सड़क के भी महत्व को दुनियाभर के संघर्षशील नेताओ ने समझा है। इसी को दृष्टिगत रख कर डॉ राममनोहर लोहिया ने कभी कहा था, ज़िंदा कौमे पांच साल इंतज़ार नहीं करती है। संघर्ष और जन सरोकार की इस राजनीति का स्वागत किया जाना चाहिए।

( विजय शंकर सिंह )

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