नज़रिया – 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए नौकरियां कहाँ से आयेगी?

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सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को सरकारी नौकरी में आरक्षण देने का फैसला किया है। सवर्णों को सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए 10 फीसदी आरक्षण मिलेगा, यह आरक्षण 50 फीसदी की सीमा से अलग होगा। केंद्रीय कैबिनेट ने सोमवार 7, जनवरी 2018 को इस संशोधन को मंजूरी दे दी। इसके लिए सरकार संविधान संशोधन बिल  लेकर आएगी। संसद में संविधान संशोधन बिल मंगलवार को आ सकता है। नरेंद्र मोदी सरकार लोकसभा चुनाव से पहले इस फैसले के जरिए सवर्णों को अपने पक्ष में करने की कोशिश में है. क्योंकि सवर्ण और मध्यम वर्ग का बड़ा धड़ा एससीएसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अध्यादेश लाये जाने से भाजपा से नाराज चल रहा था।. भाजपा ने इस फैसले के जरिए इसी धड़े को लुभाने की कोशिश की है। इस आरक्षण कोटे में सामान्य मुस्लिम, सिखऔर ईसाई समाज के लोग भी शामिल होंगे।
यह विधेयक संविधान की मंशा के विपरीत है। आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट के निर्णयों के आलोक में इसे देखें तो यह संविधान की भावना के अनुसार नहीं है। आरक्षण पर इंदिरा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्ण पीठ ने यह फैसला दिया था कि आरक्षण की सीमा किसी भी दशा में 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकेगी। यह बंदिश आज भी लागू है। हालांकि यह प्रतिबंध शिथिल भी किया जा सकता है लेकिन उन्ही असामान्य परिस्थितियों में जब, आरक्षण का लाभ किसी ऐसे समुदाय को देना हो जो अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में हो। यह अपवाद, सवर्ण आरक्षण पर लागू नहीं होता है। तमिलनाडु में इसी अपवाद के आधार पर आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से अधिक है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार अपने विभिन्न निर्णयों में यह बात कही है कि, आरक्षण का आधार, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन है। आर्थिक रूप से विपन्नता एक आधार हो सकता है पर सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का आधार ही आरक्षण का मुख्य आधार है। केवल आर्थिक आधार पर ही आरक्षण संविधान के प्राविधानों के अनुसार नहीं दिया जा सकता है। इंंदिरा साहनी मामलेे में सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर सवर्णो को प्रदत्त 10 % आरक्षण कोटे को चुनौती दी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले मे यह व्यवस्था दी कि, सामान्य जाति को आर्थिक आधार पर दिया गया 10 % आरक्षण का प्राविधान असंवैधानिक है। गुजरात हाईकोर्ट ने भी गुजरात सरकार द्वारा पाटीदारों को दिया गया आर्थिक आधार पर आरक्षण रद्द कर दिया था।
प्रस्तावित विधेयक को पास करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करना पड़ेगा।  अनुच्छेद  15 के खण्ड (1) और खण्ड (2) में अधिकारों का वर्णन है जबकि खण्ड 3 और 4 में अपवादों के उपबंध हैं। अनुच्छेद 15 ( 1 ) राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। जब कि अनुच्छेद 16 सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संबंध में है। अतः इन अनुच्छेदों में प्रस्तावित कानून के अनुसार संशोधन करना होगा।
संविधान संशोधन के लिये लोकसभा और राज्यसभा में दो तिहाई सदस्य संशोधन के पक्ष में होने चाहिये। पहले इसे लोकसभा पास करेगी और तब राज्यसभा। दोनों ही सदनों में अलग अलग वोट पड़ेंगे। संसद के दोनों सदनों से बिल पास होने के बाद सभी राज्यों की विधान सभाओं में भेजा जाएगा। वहां भी दो तिहाई बहुमत से राज्य विधानसभायें बिल को पास करेंगी। कम से कम देश की सभी विधानसभाओं में से कम से कम आधे विधानसभाओं द्वारा यह बिल पास किये जाने के बाद राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिये भेजा जाएगा और तब यह कानून बनेगा। इस प्रक्रिया में कोई न्यूनतम समय सीमा तय नहीं है।
प्रस्तावित कानून बनाने के लिये समय का अभाव भी बाधक बन सकता है। सरकार के पास सवर्ण समाज को अर्थिक आधार पर आरक्षण देने का विधेयक पारित करने के लिए बस एक दिन का समय है। कल यानी आठ जनवरी को संसद के शीतकालीन सत्र का आखिरी दिन है। ऐसे में संसद खुलते ही सरकार को लोकसभा में आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग को आरक्षण देने के लिए संशोधन विधेयक पेश करना होगा। लोकसभा में बहुमत है तो सरकार कुछ ही समय में विधेयक पास करा ले जाएगी. फिर क्या यह विधेयक राज्यसभा में भी उसी दिन पास हो पाएगा? वह भी तब, जबकि सरकार के पास उच्च सदन में बहुमत नहीं है. इस प्रस्ताव को संविधान सभा को भेजने की विपक्ष मांग उठा सकता है. जिससे देरी लग सकती है.
हालांकि सियासी जानकार बताते हैं कि कांग्रेस सहित कई दल चुनावी वर्ष में इसका समर्थन भी कर सकते हैं, क्योंकि अगड़ी जातियों को वे भी नाराज नहीं करना चाहेंगे। फिर भी संसद के एक ही कार्यदिवस में इतने बड़े प्रस्ताव के पास होने की उम्मीद कम है। इसके लिए या तो कल चर्चा के दौरान संसद की बैठक को देर शाम तक चलाया जाय, या फिर ग्यारह दिसंबर से आठ जनवरी तक पूर्वनिर्धारित शीतकालीन सत्र को दो से तीन दिन और बढ़ाने का फैसला लिया जाय। इसके अलावा सरकार के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है । संविधान के इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कभी भी, किसी भी स्तर पर  चुनौती दी जा सकती है। पर अदालत अमूमन तभी संज्ञान लेती है जब कानून बन जाने की प्रक्रिया पूरी, और संविधान संशोधित हो जाय। इस कानून में आर्थिक रूप से पिछड़े यानी विपन्नता की परिभाषा यह रखी गयी है।

  • किसी व्यक्ति की आय 8 लाख रुपया सालाना से कम हो।
  • 5 एकड़ से कम कृषि भूमि हो।
  • 1000 वर्गफीट से कम क्षेत्र का घर हो।

घोषित नगरों में 109 गज और अघोषित नगरों में 209 गज से कम का मकान हो।
यह कानून जाति आधारित नहीं रहेगा। सभी सवर्ण इस कानून का जो आर्थिक पिछड़ेपन की उपरोक्त कोटि में आते हैं इसका लाभ उठा सकते हैं। सरकार को इस कानून में एक प्राबिधान यह भी रखना होगा कि आरक्षण की सीमा 50 % से बढ़ाकर 60 % की जा रही है।
25 सितंबर 1991 को पीवी नरसिम्हा राव ने एक कार्यालय ज्ञाप द्वारा यह प्राविधान किया था कि वे सभी जो किसी भी आरक्षित वर्ग में नहीं आते हैं के गरीब तबके को उनके आर्थिक पिछड़ेपन के कारण, आरक्षण का लाभ दिया जाय । यह आदेश वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने के बाद अगड़ी जातियों में उठे व्यापक असंतोष को शांत करने के कदम के रूप में देखा गया था। 1991 में सरकार ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था। हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया. बीजेपी ने 2003 में इसी प्रकरण में एक मंत्री समूह का गठन किया, लेकिन, इस कदम का भाजपा को कोई लाभ भी नहीं हुआ और वाजपेयी सरकार 2004 का चुनाव हार गई। साल 2006 में कांग्रेस ने भी एक कमेटी बनाई जिसको आर्थिक रूप से पिछड़े उन वर्गों का अध्ययन करना था जो मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के दायरे में नहीं आते हैं. लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, कोई भी राज्य 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकता. आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था के तहत एससी के लिए 15, एसटी के लिए 7.5 व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण है. यहां आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. इसीलिए अब तक जिन राज्यों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश हुई उसे कोर्ट ने खारिज कर दिया.
आरक्षण की व्यवस्था तो नौकरी के लिये है। पर नौकरियां हैं भी ? 2016 के बाद सरकार ने रोज़गार और बेरोजगारी के आंकड़े देना बंद कर दिये। 2014 से अब तक कितनी नौकरियां खत्म हुयी हैं यह आंकड़ा सरकार जारी करे और यह भी एक श्वेत पत्र लाकर यह बताये कि 2014 से अब तक कितने रोजगारों का सृजन किया गया है। बिना नौकरियों के आरक्षण वैसे ही हैं जैसे आप स्टेशन पर कन्फर्म टिकट ले कर प्लेटफार्म पर बैठे हैं और ट्रेन का दूर दूर तक पता नहीं। खीज कर आप टेम्पो में बैठ कर गंतव्य की ओर चल देते हैं।

© विजय शंकर सिंह
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