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स्त्री संघर्ष की मिसाल हैं सावित्री बाई फुले

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कहते हैं महिलायें किसी भी समाज का स्तम्भ होती हैं.लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजरअंदाज करता है.सदियों से पितृसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी बंधन महिलाओं को पेशेवर व व्यक्तिगत ऊंचाइयों को प्राप्त करने से अवरुद्ध करते रहे हैं.लेकिन आज से लगभग डेढ सौ साल पहले सावित्रीबाई फुले ने पितृसत्ता और स्त्री विरोधी मान्यताओं को ध्वस्त कर स्त्री मुक्ति की जो परिभाषा रची वह सदियों तक सम्मानित की जाती रहेगी.तमाम भारतीय दलित महिला आंदोलन के साथ-साथ डा.अंबेडकर के लिए भी सावित्री बाई का संघर्ष उनका मार्गदर्शक रहा है.
10 मार्च को भारत की पहली महिला शिक्षक का गौरव प्राप्त करने वाली महान समाज सेविका सावित्री बाई फुले की पुण्यतिथि मनाई जाती है.
सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव नामक स्थान पर 3 जनवरी सन् 1831 को हुआ.उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था.सन् 1840 में मात्र नौ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह बारह वर्ष के ज्योतिबा फुले से हुआ.
शिक्षित होकर छेड़ी शिक्षा की मुहिम
महात्मा ज्योतिबा फुले स्वयं एक महान विचारक, कार्यकर्ता, समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक, संपादक और क्रांतिकारी थे.सावित्रीबाई पढ़ी-लिखी नहीं थीं.शादी के बाद ज्योतिबा ने ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया. बाद में सावित्रीबाई ने ही दलित समाज की ही नहीं, बल्कि देश की प्रथम  शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त किया.उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत दयनीय थी और उन्हें पढ़ने लिखने की अनुमति तक नहीं थी.इस रीति को तोड़ने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने सन् 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की. यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला पहला स्त्री विद्यालय था.
समाज का विरोध
सावित्रीबाई फुले स्वयं इस विद्यालय में लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थीं.लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था. उन्हें लोगों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा.उन्होंने न केवल लोगों की गालियाँ सहीं अपितु लोगों द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों की मार तक झेली. स्कूल जाते समय धर्म के ठेकेदार व स्त्री शिक्षा के विरोधी सावित्रीबाई फुले पर कूड़ा-करकट, कीचड़ व गोबर ही नहीं मानव-मल भी फेंक देते थे.इससे सावित्रीबाई के कपड़े बहुत गंदे हो जाते थे अतः वो अपने साथ एक दूसरी साड़ी भी साथ ले जाती थीं जिसे स्कूल में जाकर बदल लेती थीं.इस सब के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी व स्त्री शिक्षा, समाजोद्धार व समाजोत्थान का कार्य जारी रखा.
विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष
स्त्री शिक्षा के साथ ही विधवाओं की शोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की भी शुरुआत की और 1854 में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया.साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोला ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सके.आज देश में बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति को देखते हुए उस समय कन्या शिशु हत्या की समस्या पर ध्यान केंद्रित करना और उसे रोकने के प्रयास करना कितना महत्त्वपूर्ण था इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं.
विधवाओं की स्थिति को सुधारने और सती-प्रथा को रोकने व विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए भी उन्होंने बहुत प्रयास किए. सावित्रीबाई फुले ने अपने पति कसे साथ मिलकर काशीबाई नामक एक गर्भवती विधवा महिला को न केवल आत्महत्या करने से रोका अपितु उसे अपने घर पर रखकर उसकी देखभाल की और समय पर डिलीवरी करवाई. बाद में उन्होंने उसके पुत्र यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और ख़ूब पढ़ाया-लिखाया जो बाद में एक प्रसिद्ध डॉक्टर बना.
दलित उत्थान में योगदान
सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनकाल में पुणे में ही 18 महिला विद्यालय खोले. 1854 ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने एक अनाथ-आश्रम खोला, यह भारत में किसी व्यक्ति द्वारा खोला गया पहला अनाथ-आश्रम था.साथ ही अनचाही गर्भावस्था की वजह से होने वाली शिशु हत्या को रोकने के लिए उन्होंने बालहत्या प्रतिबंधक गृह भी स्थापित किया.
समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का निर्माण किया.वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे और सावित्रीबाई फुले महिला विभाग की प्रमुख. इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद्रों और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त कराना था.
ज्योतिबा के कार्य में सावित्रीबाई ने बराबर का योगदान दिया. ज्योतिबा फुले ने जीवन भर निम्न जाति, महिलाओं और दलितों के उद्धार के लिए कार्य किया.इस कार्य में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले ने जो योगदान दिया वह अद्वितीय है.यहाँ तक की कई बार ज्योतिबा फुले स्वयं पत्नी सावित्रीबाई फुले से मार्गदर्शन प्राप्त करते थे.
28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों के साथ ही सावित्रीबाई फुले ने भी सत्य शोधक समाज को दूर-दूर तक पहुँचाने, अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के अधूरे कार्यों को पूरा करने व समाज सेवा का कार्य जारी रखा. सन् 1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैला. प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए सावित्रीबाई फुले स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च सन् 1897 को उनका भी देहावसान हो गया.
उस दौर में ये सब कार्य करने इतने सरल नहीं थे जितने आज लग सकते हैं. अनेक कठिनाइयों और समाज के प्रबल विरोध के बावजूद महिलाओं का जीवनस्तर सुधारने व उन्हें शिक्षित तथा रूढ़िमुक्त करने में सावित्रीबाई फुले का जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है उसके लिए देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा.
आजादी के 70 सालों बाद और शिक्षा के अधिकार को सभी भारतीयों के बुनियादी हक के रूप में स्वीकारे जाने के बावजूद भी दलित, आदिवासी, पिछड़ी और अल्पसंख्यक वर्गो की महिलाओं की शिक्षा में भारी कमी है.आज लगभग 68 प्रतिशत दलित महिला अशिक्षित है, जो हर क्षेत्र में पिछड़ी है. दलित आदिवासी पिछडी और अल्पसंख्यक महिला की पंचायत से संसद तक में भागीदारी की जरूरत है, जो बड़े संघर्ष के बगैर संभव नहीं.
देश भर में तेजी से उभरते उग्र हिन्दुत्ववादी विचारधारा का दायरा आज निस्संदेह बढा है, लेकिन फुले आंबेडकरवादी चिंतन भी भारतीय प्रगतिशील दलित और महिला आंदोलन में सभी जगह प्रमुखता से मौजूद है, उसका नेतृत्व कर रहा है. इस पर गंभीर चर्चा हो रही है और उसका विस्तार मुख्य धारा के संघर्ष और विमर्श में शामिल हो रहा है.सावित्रीबाई का संघर्ष, उनका स्त्री वादी चिंतन स्त्री संघर्षों के लिए अब और आने वाले समय की सबसे बड़ी जरूरत है.