गरीबों और मजदूरों पर क्यों बन आई है कोरोना से लड़ाई?

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‘वो जिनके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है, उन्हीं के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।’ और दिन होते तो देशव्यापी लॉकडाऊन के दौरान न सिर्फ केन्द्र बल्कि राज्यों की सरकारें भी, वे खुद को किसी भी दल या विचारधारा की वारिस क्यों न बताती हों, मजदूरों की मुसीबतों को जिस बेरुखी से दुर्निवार होने दे रही हैं, उसके मद्देनजर उन्हें दिवंगत जनकवि अदम गोंडवी की ये पंक्तियां जरूर सुनाई जातीं। यह ताना भी दिया जाता कि कोरोना के विरुद्ध अपनी लड़ाई को वे नाहक न सिर्फ मजदूरों बल्कि सारे गरीबों की ओर मोड़ देने पर आमादा हैं, जिसके चलते बेचारे कोरोना से बचने के प्रयास में सरकारी बदइंतजामी की जायी भुखमरी और दूसरी दुश्वारियों की फांस से बाहर नहीं निकल पा रहे।

ऐसा कुछ नहीं हो रहा तो इसलिए कि देश में पिछले तीन दशकों से फूलती-फलती आ रही भूमंडलीकरण की अनर्थनीति ने पूंजी की निरंकुश सत्ता को श्रम की छाती पर मूंग दलने के लिए तो निरंकुश छोड़ ही रखा है, नीतिगत विपक्ष को राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। उसे यह रास्ता दिखाये बगैर संभव ही नहीं था कि लॉकडाउन 1.0 के वक्त, जब महानगरों में प्रवासी कहें या दिहाड़ी मजदूर बेहद अप्रिय स्थितियों में दर-ब-दर होने को मजबूर थे। प्रधानमंत्री उनकी तकलीफों के लिए औपचारिक माफी मांग कर उनसे जुड़ी अपनी सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेते, साथ ही मजदूरों के गृह प्रदेशों की सरकारें उन्हें संक्रमणों का स्वाभाविक वाहक और इस नाते पूरी तरह अवांछनीय मान लेतीं और केन्द्र सर्वोच्च न्यायालय में यह कह देने से भी परहेज नहीं करता कि पलायन करने वाले मजदूरों के तीस प्रतिशत के कोरोना संक्रमित होने के आसार हैं।

गौर कीजिए कि अब भी, जब उन्नीस दिनों का लॉकडाउन 2.0 शुरू हो गया है और केन्द्र का इन मजदूरों के तीस प्रतिशत के संक्रमित होने के अंदेशे वाला झूठ बेपरदा हो चुका है, मजदूरों और गरीबों की मुसीबतें दुर्निवार बनी हुई हैं और खुद को विपक्षी कहने वाली राजनीतिक पार्टियों को इसमें कुछ भी अनुचित न लगना, नीतिगत विपक्ष की गैरहाजिरी का ही सबूत दे रहा है। कोढ़ में खाज यह कि इस सबूत को अकाट्य बनाते हुए इन पार्टियों ने मजदूरों के पक्ष में आवाज उठाने के बजाय कोरोना के विरुद्ध डटकर खड़े रहने को ही सबसे बड़ी देशभक्ति बताना आरंभ कर दिया है।

क्या आश्चर्य कि उनके द्वारा ‘निर्भय’ कर दी गई ‘निरंकुश’ सरकारें मजदूरों के प्रति अपनी इतनी भी नैतिक जिम्मेदारी नहीं समझ रहीं कि अब जब उनके पास न काम-धंधा है, न पैसे और बहुतों के पास तो सिर छुपाने की जगह भी नहीं, तो कम से कम उनको पेट भर भोजन मिलता रहे। बाकी जगहों की बात कौन करे, न देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली इस स्थिति का अपवाद है, न आर्थिक राजधानी मुम्बई। यहां तक कि प्रधानमंत्री के गृहप्रदेश गुजरात का सूरत और उत्तर प्रदेश स्थित उनका निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी भी नहीं। सरकारों द्वारा कहीं भी मजदूरों की इतनी-सी मांग भी नहीं मानी जा रही, कि उन्हें भोजन-पानी और बकाया मजदूरी उपलब्ध कराई जाये या फिर उन्हें अपने घर जाने दिया जाये।

वे यह भी नहीं बता रहीं कि लॉकडाउन के चलते मजदूरों को घरों तक भेजना मुमकिन नहीं, तो उनकी बाकी दोनों मांगें क्यों नहीं पूरी की जा सकतीं? फिर प्रचार माध्यमों में देश भर में गरीबों, मजबूरों व मजदूरों को राशन के अलावा आर्थिक मदद देने की हवाहवाई घोषणाएं क्यों की जा रही हैं? ऐसे में केवल चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन 1.0 लागू करने वाले प्रधानमंत्री ही क्यों बताने लगे कि उन्होंने लॉकडाउन-2.0 के एलान के लिए लाकडाउन-1.0 का आखिरी दिन क्यों चुना और क्यों रेलवे ने इससे पहले लॉकडाउन 1.0 के बाद की तारीखों में मजदूरों के टिकट बुक करने आरंभ कर दिये थे? फिर रेलेंज चलने की उम्मीद में बांद्रा रेलवे स्टेशन पहुंचने वाले मजदूरों को सोशल डिस्टेंसिंग तोड़ने का अपराधी मानकर पुलिस की लाठियों के हवाले क्यों कर दिया गया और रेलवे को कोई सजा क्यों नहीं दी गई?

इन अब तक अनुत्तरित सवालों को इस तथ्य के साथ पढ़े जाने की जरूरत है कि लॉकडाउन 2.0 की बाबत राष्ट्र के नाम संदेश में प्रधानमंत्री देशवासियों से यह तो कहते हैं कि वे अपनी सामर्थ्य के मुताबिक जितना भी संभव हो सके, गरीब परिवारों की भोजन आदि की जरूरतें पूरी करते हुए उनकी यथासंभव देख-रेख करें, लेकिन यह नहीं बताते कि उनकी सरकार   इन गरीबों के लिए कुछ क्यों नहीं कर रही? इसी तरह वे उद्योगपतियों से अपने व्यवसाय या उद्योग में काम कर रहे मजदूरों के प्रति संवेदना रखने और किसी को नौकरी से न निकालने की बात कहते हैं तो  संभवतः जानबूझकर उनका वेतन न काटने का पुराना अनुरोध नहीं दोहराते-उस बाबत चुप्पी साध लेते हैं। अगर इसका अर्थ यह है कि मजदूरों व गरीबों को सरकारों से कोई उम्मीद रखने के बजाय देशवासियों की सदाशयता और अमीरों व उद्योगपतियों की चैरिटी पर निर्भर करना चाहिए, तो यह बहुत गम्भीर बात है। इस कारण और भी कि अमीर और उद्योगपति खुद को पहले से ही बदहाल बता रहे और पैकेज की मांग कर रहे हैं।

फिर वे इतने ही ‘दरियादिल’ होते तो मजदूरों को पलायन की त्रासदी झेलनी ही नहीं पड़ती। वह तो इसलिए झेलनी पड़ी कि उन्होंने अपनी लॉबियों की मार्फत सरकारों पर दबाव डाल कर कराये गये मजदूरविरोधी श्रम सुधारों {पढ़ियेः बंटाधारों} के बल पर लॉकडाउन होते ही यही सिद्ध करना शुरू कर दिया कि मजदूरों की हैसियत उनके ठेंगे से भी कम है। सवाल है कि अब यह जानने के बाद कि सरकारों को मजदूरों से सच्ची तो क्या दिखावे की हमदर्दी भी नहीं है। यहां तक कि उनके पास उनकी संख्या के वास्तविक आंकड़े तक नहीं हैं, वे मजदूरों से क्या सलूक करेंगे?

इस सवाल का जबाव उन पैंतीस मजदूरों के परिजनों के प्रति सरकार और उद्योगपतियों के एक जैसे संवेदनहीन सलूक में ढूंढ़ा जा सकता है, जो लॉकडाउन 1.0 का एलान हुआ तो घर लौटने के प्रयास में अलग-अलग दुर्घटनाओं में मारे गये। उद्योगपति हैं कि उन्हें ठेका मजदूर बताकर अपना मानने को तैयार नहीं हैं, जबकि ‘कोरोना योद्धाओं’ के प्रति खुद को समर्पित बताने वाली सरकारों को यह मानना तक गवारा नहीं कि लॉकडाउन की आधी-अधूरी तैयारियों के चलते पैदा हुई मुसीबतों के शिकार होने के कारण के वे सहयोग और सहानुभूति के पात्र हैं। वे कोरोना की भयावहता का चित्र उकेरती हुई उसे विश्वयुद्धों से बड़ा संकट बताती हैं, तो भी न सिर्फ इन 35 बल्कि उन सारे दो सौ अभागों की बात गोल कर जाती हैं, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान उसे झेलते हुए अलग-अलग कारणों से जानं गंवाई।

प्राप्त जानकारी के अनुसार इनमें से 53 की थकावट, भूख, चिकित्सा सहायता की अनुपलब्धता अथवा भोजन या आजीविका के अभाव में आत्महत्या के प्रयास में मौत हुई, जबकि सात को स्वयंभू निगरानी दस्ते की भूमिका निभा रहे लोगों अथवा पुलिस ने लॉकडाउन का पालन न करने के आरोप लगाकर मार डाला। इस दौरान शराब न मिल पाने के कारण 40 लोगों की मौत या आत्महत्याओं के मामले सामने आये, जबकि 39 अन्य लोगों ने कोरोना के संक्रमण की आशंका में, अकेलेपन या क्वारेंटाइन किये जाने की आशंका में घबराकर आत्महत्या कर ली। ये सिर्फ वे मौतें हैं, जिन्हें मीडिया ने रिपोर्ट किया, और ऐसी कई सारी मौतें रिपोर्ट नहीं हुई होंगी।

यकीनन, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि लॉकडाउन का उद्देश्य हमारी जिंदगियों को कोरोना से बचाना है, लेकिन ये दो सौ मौतें बताती हैं, कि उसने बहुतों के लिए जिंदगी कितनी मुश्किल बना दी है। अफसोस की बात है कि अभी सरकारों को इन्हें लेकर चिंतित होने का अवसर भी नहीं मिल रहा। क्या कोरोना से बढ़ती मौतों के बरक्स इन मौतों को इसलिए झुठलाया जा सकता है कि इनके शिकार होने वाले सामान्य नागरिक, गरीब या मजदूर हैं? अगर नहीं तो इस सवाल का जवाब क्यों नहीं दिया जाना चाहिए कि कोरोना से लड़ाई गरीबों और मजदूरों पर इस कदर क्यों बन आई है?

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के इस निष्कर्ष की ओर से भी आंखें क्यों मूंद ली गई हैं, कि लॉकडाउन देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य के विरुद्ध भीषण कदम है और इसके कारण लोगों को न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक व मनौवैज्ञानिक दबावों से भी गुजरना पड़़ रहा है, जिसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर लम्बा और गहरा विपरीत असर अवश्यंभावी है।