‘ जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो ! ‘ – अकबर इलाहाबादी

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अकबर इलाहाबादी का यह बहुत प्रसिद्ध कलाम है । अकबर इलाहाबादी का पूरा नाम सैयद अकबर हुसैन था और वे इलाहाबाद के पास बारा के रहने वाले थे । उनका जन्म 16 नवम्बर 1846 को एक प्रतिष्ठित परिवार में और देहांत 9 सितम्बर 1921 को इलाहाबाद में हुआ था । अकबर ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने पिता सैयद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन द्वारा घर पर ही ग्रहण की थी। अकबर ने वकालत की पढ़ाई की, फिर सरकारी नौकरी तथा बाद सिविल जज बने ।

अकबर अपने प्रारंभिक दौर में एक जीवंत, और आशावादी शायर थे । वे बेहद जिंदादिल इंसान थे बाद में उनके जीवन मे कुछ ऐसी त्रासद घटनाएं घटी, जिस से उनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल गया । उनके पुत्र और पौत्र का निधन कम उम्र में ही हो गया था। यह किसी के लिये भी एक महाघात है । यह सदमा उनके लिये भी एक बड़ा झटका था और इस आघात ने उन्हें निराशा के गर्त में डाल दिया । इसका असर उनकी शायरी पर भी पड़ा है।

अकबर का काल भारतीय जनमानस के उत्थान का काल था । उनके जन्म के 11 साल बाद ही 1857 का विप्लव हुआ और 1858 में ब्रिटेन ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को हटा कर भारत को सीधे अपने अधीन कर लिया । महारानी की घोषणा 1858 में हुयी और कम्पनी का अराजक राज समाप्त हो गया । सन 1861 में प्रशासनिक कानून बने और उन्हें लागू किया गया । उस समय महत्वपूर्ण पदों पर बड़े जमीनदारों और ताल्लुकदारों के बेटों को सरकारी नौकरी में रखे जाने की परंपरा अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी थी। अंग्रेज़ अपनी लोकतांत्रिक परम्पराओं के कारण इस तथ्य से परिचित थे कि दुनिया भर में फैल रही आधुनिक शिक्षा और फ्रांस की राज्यक्रांति के बाद जो लोकतांत्रिक मूल्य यूरोप में स्थापित हो चुके हैं उसकी भी अनुगूँज देर सबेर भारत पहुंचेगी ही।

बंगाल के पुनर्जागरण, महाराष्ट्र के बदलाव की दस्तक से वे अनजान नहीं थे। वे भारतीय समाज मे खुद को उदार, लोकतांत्रिक मूल्यों पर आस्था रखने वाला, और जनापेक्षी शासक साबित करना चाहते थे । यह उनकी एक कुटिल चाल थी।

अंग्रेजों ने प्रारंभिक दौर में हिंदुस्तानी ज़मीदारों के पुत्रों को अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया था । वे एक ऐसा उपकृत वर्ग बनाना चाहते थे जो उनके प्रति वफादार रहे । वे ऐसा करने में सफल भी रहे। तभी उन्होंने 1857 के बाद किसी भी रियासत को अधिकृत करने का प्रयास नहीं किया और सभी को उन्होंने उनके क्षेत्रफल, आय आदि के अनुसार सम्मान भी दिया । उन्होंने ऐसे लोगो को मध्यम प्रशासनिक पदों पर ही नियुक्त किया । अकबर भी इसी परंपरा में जज बने और सिविल जज के पद से रिटायर हो गये ।

वे एक शानदार, तर्कशील, मिलनसार आदमी थे। और उनकी कविता हास्य की एक उल्लेखनीय भावना के साथ कविता की पहचान थी। वो चाहे गजल, नजम, रुबाई या क़ित हो उनका अपना ही एक अलग अन्दाज़ था। वह एक समाज सुधारक थे और उनके सुधारवादी उत्साह बुद्धि और हास्य के माध्यम से काम किया था। शायद ही जीवन का कोई पहलू है जो उन्के व्यंग्य की निगाहों से बच गया था।

अकबर ने व्यंग्यपूर्ण शायरी लिखी है, तो राजनीतिक और अंग्रेज़ी शासन की विसंगतियों पर भी लिखा है । कुछ बेहद रोमांटिक ग़ज़लें लिखी हैं तो, सूफियाना शायरी भी इन्होंने की है । उनकी यह रचना पढ़ें ।

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह

मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान

ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र

आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई

लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

शब्दार्थ :

नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;

रूबकारी=जान-पहचान,

जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना,

सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी,

नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।

यह उस समय के मजहबी हालात पर उनका यह तब्सिरा है । उन्होंने धर्म की राजनीति करने वालों और अंग्रेज़ो के पिछलग्गुओं पर बेहद चुटीले शेर लिखे हैं । उनका यह शेर पढ़ें । आज के हालात भी उनके समय के जो लगभग सौ साल पहले की के हालात थे से जुदा नहीं है । यह मौज़ू शेर पढ़ें ।

हालात मुख्तलिफ हैं, ज़रा सोच लो यह बात,

दुश्मन तो चाहते हैं कि, आपस मे लड़ मरें !!

जिस दुश्मन की बात अकबर कर रहे हैं वे अंग्रेज़ थे । वह ब्रिटिश हुकूमत थी। जो भारत का सामाजिक ताना बाना तोड़ कर देश पर राज कर रही थी। तब अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ज़िंदा था । हिन्दू मुस्लिम एकता अंग्रेज़ो के लिये सदैव चुनौती बनी रही। 1857 के विप्लव में वे इस एकता का का खामियाजा भुगत चुके थे । वे नहीं चाहते थे कि दोनों में सामंजस्य पनपे । वे निरन्तर कभी हिंदुओं के तो कभी मुस्लिमों की पीठ पर हाँथ रख कर अपना उल्लू सीधा करते रहे । अकबर ने इसी को इस शेर में इंगित किया है ।

अकबर मूलतः उर्दू के कवि थे, लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी में इंगिल्श के शब्दों का भी इस्तेमाल किया है। ‘ गांधीनामा ‘ में उन्होंने गांधी जी के ऊपर कई कविताएं भी लिखी हैं। इतना ही नहीं नहीं अकबर इलाहबादी को एक हास्य कवि के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन उनकी शायरी में गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की इच्छा छिपी होती थी ।

अकबर इलाहबादी ने अपनी शायरी में कई बेहद चुभने वाले तंज कसे हैं। अपने तंज के बाणों के दम पर कभी शराब को हाथ न लगाने वाले अकबर ने शराब के पक्ष में एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल ही लिख दी जो उनकी अत्यंत लोकप्रिय गज़लों में से एक है ।

हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है।

अकबर ने ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा है और उनकी शायरी में इस बात की झलक दिखती है। इतना ही नहीं अकबर ने महिलाओं और मुस्लिम समाज में पर्दा की कुरीतियों के खिलाफ लिखते हुए लिखा कि…

‘बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियां

‘अकबर’ ज़मीं में गैरते क़ौमी से गड़ गया

पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’

कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया।’

जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो ! ‘

– अकबर इलाहाबादी

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