कोर्ट का एक फ़ैसला और चली गई थी इंदिरा की संसद सदस्यता

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भारत की पहली और अभी तक इकलौती महिला प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी काफी लोकप्रिय थीं। लोग इंदिरा गांधी को इस कदर चाहते थे कि उनकी कही एक एक बात लोगों के लिए पत्थर की लकीर हो जाती थी। “गरीबी हटाओ” के नारे को इंदिरा ने असल मायनों में काफी हद तक सार्थक किया। लेकिन कहते हैं ना कई बार आपको अपनी और अपने पाले के लोगों की गलतियों का नतीजा भी भुगतना पड़ता है। इंदिरा गांधी के साथ भी यही हुआ। उन्हें भी अपनी गलतियों का नतीजा इतिहास के पन्नो में बदनाम होकर भुगतना पड़ा।

इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत

यह बात तो जग जाहिर है कि इंदिरा गांधी एक ऐसे परिवार से थी जहां उनके पूर्वजों देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई थी। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू, न सिर्फ भारत की राजनीति में सक्रिय थे बल्कि भारत के पहले प्रधानमंत्री भी थे। अपने पिता से ही इंदिरा ने राजनीति के सारे गुण सीखे या यूं कहें कि इंदिरा के राजनीतिक गुरु उनके पिता ही थे। 1938 में इंदिरा औपचारिक तौर पर इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्य बन गईं। और 1947 से 1964 तक उन्होंने नेहरू के साथ उनके काम किया, कहते हैं इंदिरा नेहरू की निजी सचिव के तौर पर काम किया करती थीं। लेकिन इस बात का कोई आधिकारिक ब्योरा नहीं है।

नेहरू की मृत्यु के बाद पार्टी में बढ़ा कद

1964 में भारत के पहले प्रधानमंत्री और इंदिरा गांधी के पिता जवाहरलाल नेहरू का स्वस्थ्य अचानक खराब होने से उनका निधन हो गया। अब इसके बड़ा कांग्रेस पार्टी और देश की राजनीति में इंदिरा गांधी का कद बढ़ने लगा। लोग अब इंदिरा में अपना अगला नेता ढूंढ रहे थे। उन्होंने दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में सूचना प्रसारण मंत्री का पद संभाला।

दो साल प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद लाल बहादुर शास्त्री की एक हादसे में उनका निधन हो गया और एक समय पर गूंगी गुड़िया कहे जाने वाली महिला ने 1966 में देश का सबसे शक्तिशाली पद संभाला। अपने कार्यकाल में प्रिवी पर्स को समाप्त करने के फ़ैसले के कड़े विरोध के बावजूद वह इस प्रस्ताव को पारित करने में सफल रहीं। इसके अलावा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और पूर्वी पाकिस्तान को अलग बांग्लादेश के तौर पर स्थापित करने व उसके साथ मैत्री सहयोग और संधि करने में भी उन्होंने सफलता हासिल कर पुरुष प्रधान राजनीति में महिला सशक्तिकरण के झंडे गाड़ दिए।

जब खतरे में आई कुर्सी

प्रधानमंत्री के पद पर 10 साल सफलता पूर्वक रहते हुए उन्होंने हमेशा नए कीर्तिमान हासिल किए, लेकिन इंदिरा ने इतिहास में कुछ ऐसी गलतियां की थी जिसके उनके और उनकी पीढ़ियों पर एक ऐसा धब्बा लग गया जिसे मिटाना नामुमकिन है। दरअसल, आज से पूरे 46 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और उनका निर्वाचन रद्द कर दिया गया था। जून की इस तपती गर्मी ने राजनीतिक पारा भी हाई कर दिया था। जून के महीने की 12 तारीख को इंदिरा गांधी पर हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को अपने पद से इस्तीफा देने का आदेश दिया साथ उन पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया।

राजनारायण ने दाखिल किया था मुकदमा

1971 में पांचवें मध्यावधि लोकसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में इंदिरा गांधी की ऐसी आंधी चली कि बड़े से बड़े नेताओं की भी जमानत जब्त हो गई। 1971 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से चुनाव लड़ा भी और जीता भी। लेकिन, इंदिरा के खिलाफ उनके प्रतिद्वंदी राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। राजनारायण का आरोप था कि इंदिरा ने लोकसभा ने चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा तय राशि से ज्यादा पैसा चुनाव में खर्च किया है साथ ही उन्होंने इंदिरा पर सरकारी मशनीरी के दुरुपयोग का भी आरोप लगाया।

इस्तीफा देने के बजाय लगा दिया आपातकाल

इलाहबाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद इंदिरा गांधी ने न तो इस्तीफ़ा दिया और न ही उन पर लगाया गया 6 साल का प्रतिबंध मान्य रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि इंदिरा गांधी जब हाईकोर्ट में मुकदमा हार गईं तो उन्हें अपना राजनीतिक जीवन का अंत होने का डर सताने लगा। लेकिन इंदिरा ने इस समस्या का ऐसा समाधान निकाला, जिसने न सिर्फ आजीवन बल्कि मरणोपरान्त भी तानाशाह का ठप्पा लग गया। इंदिरा गांधी ने मुकदमा हारने के बाद इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को चुनौती दी और विपक्षियों पर देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने का आरोप लगाकर आपातकाल की घोषणा कर दी। इसी आपातकाल के दौरान भारत ने एक बार फिर से ऐसा दौर देखा जिसने इसे ब्रिटिश काल के अत्याचारों की याद दिला दी। आपातकाल के दौरान सभी शक्तियां पीएमओ में केंद्रित हो गईं सवाल करने वाले हर व्यक्ति को जेल में डाल दिया गया, फिर चाहें विपक्षी पार्टी का कोई नेता ही या प्रेस सभी को कड़ी कानूनी कार्यवाही का सामना करना पड़ा।

आपातकाल के बाद मिली करारी हार

1971 में इंदिरा के आंधी ने जो कमाल किया 1977 में वो आंधी शांत हो गई थी। दरअसल, आपातकाल के दौर को हर नागरिक ने झेला था, और इसी दौरान संजय गांधी ने लोगों की जबरन नसबंदी करवाई। देश का हर नागरिक इंदिरा को एक तानाशाह के रूप में देखने लगा था। यह आपातकाल 21 महीने तक चला। 21 मार्च 1977 को इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल हटा दिया और फिर से एक बार आम चुनाव करवाए गए, और फिर लोगों के पास जो मौका आया उन्होंने इंदिरा को अर्श से फर्श पर ला दिया। नतीजतन कांग्रेस को आमचुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा।

हार के बाद फिर जमाए राजनीति में अपने कदम

1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी खुद आनी सीट भी नहीं बचा पाए थे। लेकिन ये हार इंदिरा को ज्यादा दिन राजनीति से अलग नहीं रख पाई। और 1980 के उपचुनाव में इंदिरा ने फिर से एक बार संसद में एंट्री मारी। फिर आगामी 3 सालों में सरकार 2 बार भंग हो गई । दरअसल, प्रधानमंत्री के पद को लेकर जनता पार्टी में गुटबाजी शुरू हो गई, इस गुट बाजी का जी नतीजा था कि जनता पार्टी का विभाजन हुआ और मोरारजी देसाई ने सरकार के तौर पर अपना को दिया। इसके बाद 1980 में एक बार फिर से चुनाव हुए और कांग्रेस को जनता के बहुमत दिया।

एक भूल ने ले ली इंदिरा की जान

1977 के चुनावों के बाद कांग्रेस पंजाब में भी हार गई। पंजाब में अकाली दल की सरकार ने सत्ता में आई। इस बीच इंदिरा ने जरनैल सिंह भिंडरवाला को पंजाब में सहारा दिया। जरनैल सिंह भिंडरवाला को शुरआत में ज्ञानी जैल सिंह और संजय गांधी के साथ स्पॉट किया गया। 1980 के ही चुनावों में भिंडरवाला ने कांग्रेस का सपोर्ट भी किया था। इसी बीच भिंडरवाला का नाम एक हिंदी अखबार के मालिक की हत्या में सामने आया, लेकिन कांग्रेस ने उसे रिहा कर दिया। इससे भिंडरवाला काफी शक्तिशाली हो गया और आगे जाकर यही भिंडरवाला कांग्रेस के लिए गले की फांस बन गया। जब भिंडरवाला और उसके समर्थकों ने खालिस्तान की मांग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को कब्जे में ले लिया तो इंदिरा ने ऑपरेशन ब्लूस्टार चलाया, जिसके बाद सिख कौम के एक बड़े गुट में इंदिरा गांधी के खिलाफ नफरत भर गई, जिसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सिख अंगरक्षकों द्वारा अपने ही घर में कर दी गई। राजनीति में इंदिरा युग का अंत हो गया।

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