23 सितंबर वर्ष 1908 में बिहार के जिला बेगूसराय के सिमरिया गांव में जन्में रामधीर सिंह “दिनकर” को अधिकतर पाठक सिर्फ़ “दिनकर” के नाम से ही जानते हैं। लेकिन उनकी लेखनी के दीवाने सिर्फ़ पाठक ही नहीं है बल्कि हिंदी जगत के अन्य लेखक भी हैं। जब तक हिंदी साहित्य रहेगा तब तक “दिनकर” अपनी लेखनी के रूप में ज़िंदा रहेंगे।
स्वतंत्रता से पहले दिनकर ने खुद को एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित किया था। स्वतंत्रता बाद वो राष्ट्र कवि के रूप में जाने गए। छायावादी पीढ़ी के पहले कवि दिनकर अपनी कविताओं में ओज, विद्रोह आक्रोश और क्रांति का समावेश रखते है। वहीं उनकी कविताओं में कोमल और श्रृंगारिक भावनाओं की छवि भी दिखाई देती है।
बेगुसराय में हुआ था जन्म :
दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार, जिला बेगूसराय के गांव सिमरिया में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बी.ए किया। दिनकर ने संस्कृत, बंगला, अंग्रेज़ी और उर्दू का भी गहन अध्ययन किया था। लेकिन दिनकर की हिंदी रचनाएं रसबन्ति, करुक्षेत्र और उर्वशी सबसे अधिक प्रचलित कृतियाँ रही है।
दिनकर स्नातक करने के बाद एक विद्यालय में अधयापक हो गए। इसके बाद बिहार सरकार में सब रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग में 1934 से 1948 तक काम किया। 1950-52 तक मुजफ्फरपुर कॉलेज के विभागाध्यक्ष भी रहें थे। इतना ही नहीं दिनकर भागलपुर विश्विद्यालय के कुलपति रहने के बाद भारत सरकार के हिंदी सलाहकार भी रहे।
भारत सरकार में रहे थे हिंदी सलाहकार :
वर्ष 1947 में भारत अंग्रेजी हुकूमत से आज़ाद हुआ, दूसरी तरफ दिनकर बिहार विश्विद्यालय के प्रधायपक और हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष बनकर मुज़्ज़फ़रपुर पहुंचे। जब 1952 में भारत की पहली संसद बनी थी तो उन्हें राज्यसभा का सांसद भी चुना गया था। दिनकर पूरे 12 साल राज्यसभा के सांसद रहे थे। इस दौरन वे दिल्ली में ही रहे और कई रचनाएं भी लिखी।
1964 में उन्हें भागलपुर विश्विद्यालय का कुलपति बनने का मौका भी मिला, लेकिन एक साल के भीतर ही यानी 1965 में भारत सरकार ने उन्हें अपना हिंदी सलाहकार नियुक्त कर लिया। इसके लिए उन्हें दिल्ली वापस आना पड़ा। और इसी समय दिनकर ने “रेणुका” , “ज्वर” , “हुंकार” , “रसबन्ति” और द्वंदगीत जैसी रचनाएं लिखी। भारत सरकार में हिंदी सलाहकार के रुप में उन्होंने 1965 से 1971 तक काम किया।
22 बार हुआ तबादला
हिंदी सलाहकार के रूप में दिल्ली में रहते हुए “दिनकर” ने हुंकार, द्वंदगीत और रसबन्ति जैसी रचनाएं लिखी थी। रेणुका और हुंकार की कुछ प्रतियों का प्रकाशन भी हुआ। अंग्रेज़ प्रशासकों को इन रचनाओं से ये समझते देर नहीं लगी कि ” दिनकर” को अपने तंत्र का अंग बनाना उनके लिए बहुत ही गलत निर्णय था। फिर क्या था, अंग्रेज़ प्रशासकों ने दिनकर की फाइलें बनाना तैयार कर दिया। इसके बाद दिनकर की कैफ़ियत तलब हुआ करती और उन्हें चुनौतियाँ भी मिलने लगी थी। इस बीच 4 सालों में उनका 22 बार तबादला किया गया था।
भरे संसद में नेहरू पर बरसे थे दिनकर :
कहते हैं को दिनकर का स्वभाव काफ़ी सौम्य और मृदुभाषी था, लेकिन जब देश के हित और अहित की बात होती तो दिनकर बेबाक टिप्पणी करने से ज़रा भी नहीं कतराते थे। ऐसे ही एक बार भरी संसद में दिनकर ने नेहरू के लिए एक कविता पाठ् किया, दिनकर की ये कविता नेहरू के ख़िलाफ़ थी।
पंक्तियां कुछ यूं है कि –
“देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है।।”
मालूम हो कि, जिस संसद में दिनकर ने नेहरू ने विरोध में ये कविता पाठ् किया था। उस संसद में दिनकर को सदस्य के रूप में चुनने का फैसला नेहरु का ही था। इसके बावजूद भी दिनकर नेहरू की नीतियों की मुख़ालफ़त करने में नहीं चूके थे। इस कविता से देश में भूचाल आ गया था।
ऐसे ही एक बार भरी संसद में दिनकर ने नेहरू का सिर झुका दिया था। दरअसल, ये 1962 का समय था। भारत चीन से युद्ध हार चुका था। इसके सम्बन्ध में दिनकर ने संसद में कविता पाठ किया-
“रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां,जाने दे उनको स्वर्गधीरफिरा
दे हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥
इस कविता से नेहरु का सिर संसद में झुक गया था और इस वाकया को भारत की राजनीतिक घटनाओं की सबसे चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक माना जाता है।
“दिनकर” की रचनाएं :
दिनकर ने आर्थिक और सामाजिक समानता के शोषण के ख़िलाफ़ कविताओं की रचना की है। उन्होंने प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में ऐतिहासिक घटनाओं और पत्रों को मुखर रूप से लिखा है। दिनकर की महान रचनाओ में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। दिनकर की उर्वशी को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लेख वीर रस के हैं। वहीं भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सबसे प्रसिद्ध कवि माना जाता है।
काव्य में दिनकर ने कुरुक्षेत्र, हुंकार, धूप-छांव, रश्मिरथी, उर्वशी, रेणुका, प्रणभंग, सूरज का ब्याह, इतिहास के आंसू, नील कुसुम, नीम के पत्ते, चक्रवाल आदि। वहीं गद्य में मिट्टी की ओर, चितौड़ का साका,
संस्कृति के चार अध्याय, लोकदेव नेहरु, अर्धनारीश्वर,
रेती के फूल, देश- विदेश और उजली आज आदि रचनाएं शामिल हैं।
हिंदी के अपमान पर संसद में दिखा था सख्त लहज़ा:
20 जून 1962 में एक बार राज्यसभा में दिनकर ने नेहरू की ओर इशारा करते हुए कहा था- ” आपने क्या हिंदी को राष्ट्र भाषा इसलिए ही बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदी भाषियों को रोज़ अपशब्द सुनाए जाए” दिनकर की ये बात सुनकर लोग सन्न रह गए थे। खचा खच भारी संसद में भी सन्नाटा सा छा गया था। दिनकर ने बदे तल्ख रुख में कहा था –
“देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है।
पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा? “
इसके बाद संसद में मुर्दो जैसी शांति तोड़ते हुए दिनकर ने ही कहा – ” मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है।’
“दिनकर” की विरासत :
दिनकर की असली विरासत उनकी लिखी कृतियाँ ही है। दिनकर को आजीवन विरासत के तौर पर कई पुरस्कार भी मिले हैं। उन्हें 1959 में पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। वहीं उर्वशी के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था।
महाभारत पर आधारित उनकी काव्य कृति “करुक्षेत्र” को विश्व की 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वां स्थान प्राप्त हुआ था। इसके अलावा 1999 में भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम पर एक डाक टिकट जारी किया था।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “दिनकर” के लिए कहा था कि, दिनकर हिन्दीभाषियों के बीच सभी हिंदी कवियों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय कवि हैं। वहीं हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि “दिनकर” को सिर्फ एक ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं देना चाहिए बल्कि उन्हें गद्य, पद्य , भाषा और हिंदी की सेवा के लिए चार अलग अलग पुरुस्कार दिए जाने चाहिए थे।