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यूनिवर्सिटी बचेगी तो सामाजिक और भाषाई विविधता से ही

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भारत में जनजाति न तो पूरी तरह से परिभाषित है न ही इसे आंशिक रूप से समझा गया है। ब्रिटिश प्रशासन को उन समुदायों पर नियंत्रण करने या उनसे रिश्ता बनाने में मुश्किल हो रही थी जिन्होंने अपने प्रशासन के लिए वैसी राज्य व्यवस्था का कोई विकसित रूप नहीं बनाया था। अंग्रेज़ों ने इन समुदायों की पहचान कर, उनके इलाके को ब्रिटिश संप्रभु क्षेत्र घोषित करने के लिए ब्रिटेन की संसद से कानून पास करवाया। जिसके बाद वन विभाग का वजूद सामने आया। इन क्षेत्रों के समुदायों को सूची बनाई और यही आज़ाद भारत में अनुसूचित जानजाति की श्रेणी में रखे गए।
गणेश देवी कहते हैं कि अनुसूचित जनजाति में 400 से अधिक समुदाय हैं। जनजातीय समुदाय के बारे में व्याप्त भ्रांति और अज्ञानता की कड़ी को पहचानते हुए देवी बताते हैं कि हर जनजाति का इतिहास एक दूसरे से अलग है मगर इनकी पहचान की शब्दावली एक है, अनुसूचित जनजाति। भील, गोंड, संथाल, मुंडा, खासी, गारो, मिज़ो, नागा सब एक जैसे नहीं है।
जब अंग्रेज़ आए तो वे जाति के आधार पर बंटे समाज को समझने में कंफ्यूज़ हो गए। कभी उन्होंने आपराधिक समुदायों की सूची बनाई तो कभी कबिलाई समाज की जिसमें पारसी और सिद्धी को भी शामिल कर दिया। अंग्रेज़ों के लिए हर समुदाय या तो जाति का हिस्सा था या जनजाति का जबकि उत्तर पूर्व और पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में ऐसे कई समुदाय हैं जो न जाति में आते हैं न जनजाति में।
देवी का कहना है कि बहुत से काम ऐसे थे जिस पर किसी एक समुदाय के करने का दावा नहीं था। अंग्रेज़ों ने इनके लिए दो श्रेणी बना दी। मराठा और राजपूत। क्षत्रिय से कंफ्यूज़ न हों। इसके बाद बाकी कई समुदाय को लगा कि अंग्रेज़ी हुकूमत इन्हें ज़्यादा प्रश्रय देती है तो वे मराठा या राजपूत होने का दावा करने लगीं। वैसे आप जाति का इतिहास पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि अंग्रेज़ी दौर पर अपनी जाति को श्रेष्ठ बताने के लिए अभियान सा चले। किस्से नहीं थे तो नए नए किस्से भी गढ़े गए। औपनिवेशिक दौर के एथनोग्राफरों को बहुत जल्दी थी वरना वे पारसी, सिख, सिद्धी जो न हिन्दू थे न मुसलमान, उन्हें अलग से देखते। यही काम उन्होंने भाषाओं की सूची बनाने और पहचान देने में किया।
जिस समाज के पास लिखने की भाषा नहीं थी, ज़ुबान थी मगर लिपि नहीं थी, उसे ज्ञान के बन रहे नए सिस्टम से बाहर कर दिया गया। गणेश देवी ने ऐसे समुदाय के बीच स्मृति परंपरा के विकास और उनके बारे में न जानने की यात्रा का अपनी किताब में ज़िक्र किया है। आप समझ पाते हैं कि भारत के बारे में जो भी जानकारी उपलब्ध है, जिसे आप भारतीय कहते हैं, दरअसल वो संपूर्ण नहीं है। अधूरी है और आधी भी नहीं है।
प्रिटिंग प्रेस के आने के बाद एक ख़ास समुदायों की स्मृति परंपरा को ही प्रिंट किया गया। बहुत से समुदाय छूट गए। उनकी स्मृतियों या पहचान को ग़ायब कर दिया गया। इस सिलसिले में देवी ने मनु स्मृति के उदगम से लेकर उसके तत्वों की शानदार व्याख्या की है। वे डॉ अंबेडकर की किताब शूद्र कौन थे का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि डॉ अंबेडकर की किताब भारत में सामाजिक नक्शेबंदी( social cartography) को लेकर मौजूद विचारों की ऐतिहासिकता की खुलेमन से पड़ताल करते हैं। यह एक शानदार किताब है। इस किताब में शूद्र की उत्पत्ति की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की जांच वे प्रमाणों के आधार पर करते हैं। ऐसा सिर्फ कोई महान न्यायविद ही कर सकता है। जो शोषित रहे हैं उन्हें भी यह किताब पढ़नी चाहिए और जो इस शोषण प्रक्रिया के बारे में जानना चाहते हैं उन्हें भी।
यूनिवर्सिटी सिस्टम ने ज्ञान परंपरा के बड़े हिस्से को कैंपस से बाहर कर दिया। भारत में जिसे हम marginalised यानी हाशिया कहते हैं वह संख्या में उनसे ज़्यादा है जिन्हें हम मुख्यधारा या dominant कहते हैं। इस तरह का असंतुलन जिस समाज में हो, वहां पहचान से लेकर ज्ञान तक की समझ कितनी अधूरी या संकीर्ण होगी, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं।
इस प्रक्रिया में अन्याय मुख्यधारा के साथ भी हुआ। उसने ज्ञान का दाम तो पूरा दिया, बच्चों के साल तो पूरे दिए मगर मिला आधा-अधूरा। क्या मुख्यधारा या डोमिनेंट तबके लोग इस बात से खुश रहना चाहेंगे कि वे जो भी जानते हैं अधूरा जानते हैं या आधा से भी कम जानते हैं? जवाब आप ही दीजिए। फिर आधा या आधा से कम जानने के लिए यूनिवर्सिटी सिस्टम पर अपनी कमाई का आधा से ज़्यादा हिस्सा किसी आर्थिक समझ से लुटाते हैं? जवाब आप ही दीजिए।
गणेश देवी बताते हैं कि जो मुख्यधारा है, वो दरअसल कई छोटे छोटे हाशिये का समूह है। प्रत्येक सौ भारतीय में से 6 डिनोटिफाइड समुदाय( आपराधिक) के हैं, 8 जनजाति हैं, 21 धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, 22 दलित हैं, 38 भाषाई अल्पसंख्यक हैं। सिर्फ पांच प्रतिशत भारतीय ही dominant mainstream यानी प्रभावशाली मुख्यधारा का निर्माण करते हैं।
गणेश देवी इन उदाहरणों से अपने इस तर्क पर पहुंचते हैं कि भारत का बड़ा हिस्सा चाहे उसे आप जाति या जनजाति या अल्पसंख्यकों की निगाह से देखें, यूनिवर्सिटी सिस्टम के विशालतम ढांचे से बाहर है। इस हिस्से की आबादी का छोटा अनुपात ही यूनिवर्सिटी के भीतर आ सका है। आबादी और उनकी स्मृतियों में बचा हुआ ज्ञान भी कम ही आया है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने तो भारत के गांवों को भी बाहर कर दिया है जहां अभी भी साठ फीसदी आबादी रहती है। गांवों में किस तरह की शिक्षा उपलब्ध है और दिल्ली मुंबई में, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है।
क्या आप सही तरीके से knowledge society बन पाए हैं? देवी का तर्क है कि इतनी बड़ी आबादी को अगर आप औपचारिक शिक्षा के दायरे से बाहर करेंगे तो उसके भीतर जो प्रयोग या मौलिक खोज की संभावना है उसे ख़त्म कर देंगे, इसका असर यूनिवर्सिटी सिस्टम में आ चुके छात्रों पर भी पड़ेगा। उनके विकास के लिए ज़रूरी है कि ज्ञान और पहचान की विविधता का सम्मान किया जाए। यही कारण है कि भारतीय यूनिवर्सिटी मौलिक खोज के मामले में दुनिया भर में पिछड़ रही है क्योंकि उसके भीतर समुदायों की विविधता नहीं है।
ठीक यही तर्क पंकज चंद्रा यूनिवर्सिटी पर लिखी अपनी किताब BUILDING UNIVERSITY THAT MATTERS में करते हैं। दोनों का तर्क यहां मिलता है कि अगर क्लास रूम में बड़ी संख्या में आदिवासी और दलित नहीं पहुंचेंगे तो इसका असर न सिर्फ विविधता पर पड़ेगा बल्कि विविधता की अनुपस्थिति में ज्ञान के सृजन पर भी पहुंचेगा। दोनों ने अपने रिसर्च से साबित किया है कि क्लास रूम में आदिवासी और दलितों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात में बेहद मामूली है।
देवी का मानना है कि इसके लिए यूनिवर्सिटी खोलना हल नहीं है, बल्कि यूनिवर्सिटी को बदलना हल है। उन्हें ज्ञान के स्मृति रूपों को भी मान्यता देनी होगी। उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के संकटों के कारण अब हम देख रहे हैं कि धरती की उम्र अनंत नहीं है। हमारे सामने कई प्रजातियां, नदियां सब लुप्त होती चली जा रही हैं। इसी तरह ज्ञान के प्रति नज़रिया भी तेज़ी से बदल रहा है। Jean-Francois Lyotard ने A Report on Knowledge में ज्ञान को लेकर आ रहे बदलाव पर एक टिप्पणी की है।
अब यह मुमकिन नहीं है कि कोई एक सार्वभौम ज्ञान की रचना हो सकेगी, बल्कि हमें ज्ञान की कई अलग अलग रचनाओं के साथ जीना सीख लेना चाहिए। इनमें से हर ज्ञान दुनिया की अपनी समझ रखता है, उसके पास इस समझ को साबित करने के लिए अपने किस्से हैं। देवी कहते हैं कि हमारे देश में पहाड़ी लोग, सागर किनारे के लोग, हाशिये के समाज के पास पर्यावरण के संकट को भांपने और निपटने की अपनी समझ है, स्मृति है, आज भी मौजूद है मगर वो सब यूनिवर्सिटी सिस्टम के द्वारा तैयार किए जा रहे ज्ञान लोक के बाहर है।
गणेश एन देवी की किताब THE CRISIS WITHIN को अवश्य पढ़िएगा। मैंने पहले भी इसकी एक संक्षिप्त समीक्षा पेश की थी मगर वो अधूरी रह गई थी। इसे ALEPH प्रकाशन ने छापा है। कीमत है 399 रुपये। आप पंकज चंद्रा की किताब BUILDING UNIVERSITY THAT MATTERS भी पढ़ सकते हैं। 1150 रुपये की पंकज चंद्रा की किताब यूनिवर्सटी प्रशासन की अच्छी समझ देती है। इसके अलावा आप देवेश कपूर और प्रताप भानु मेहता द्वारा संपादित NAVIGATING THE LABYRINTH, PERSPECTIVE ON INDIAN’S HIGHER EDUCATION भी पढ़ सकते हैं। इसमें कई अच्छे लेख हैं। इन दोनों किताबों को ORIENT BLACK SWAN नाम के प्रकाशक ने छापा है। देवेश कपूर वाली किताब की कीमत बार कोड में है इसलिए नहीं बता पा रहा हूं।

यह लेख रविश कुमार की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है

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