अधिकारों का ऐसा दुरुपयोग हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को चुनौती मिलने लगी

Share

सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के मामले में कॉमेडियन कुणाल कामरा का स्टैंड न सिर्फ बड़ी खबर है बल्कि उन वकीलों और वकालत के छात्रों के लिए सीख भी है जो कतिपय कम महत्वपूर्ण मुद्दों पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगते हैं। यह ठीक हो सकता है कि कुणाल कामरा के ट्वीट से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना हुई है पर क्या उसे मुद्दा बनाने के पहले दूसरे मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं थे? अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अनुमति देने की बजाय अनुमति मांगने वालों को यह सीख दी होती तो क्या गलत होता। वे बता सकते थे कि सुप्रीम कोर्ट अवमानना के मामले सुनने के लिए नहीं है। अर्नब गोस्वामी के मामले पर सुनवाई से अगर यह प्रतिक्रिया हुई है तो उसका अच्छा संदेश भी गया होगा और तुम उसे देखो-समझो। इंतजार करो। कुणाल कामरा से फिर कभी निपट लिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट अगर ऐसे ही और अपने ही सम्मान की चिन्ता करने लगेगा तो बाकी काम कौन करेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। वैसे भी सम्मान कमाया जाता है जबरदस्ती हासिल नहीं हो सकता है।

अच्छी बात यही है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस पर कुछ नहीं कहा है और यह संभावना बची हुई है कि मामला दूसरे मामलों की तरह लंबित रहेगा। पर वह कैसा होगा यह समय बताएगा। यह दिलचस्प है कि सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब मामले में अगर यह बताने की कोशिश की थी कि आजादी सर्वोपरि है तो अब भाई लोगों ने मुद्दा यह बना दिया है कि आजादी किसकी। और देश का कोई भी नागरिक चाहता था कि इसपर बात हो कि क्या हर नागरिक बराबर है और अगर है तो यह क्यों, ऐसा क्यों? जिस देश में दो कौड़ी के समाचार चैनल अपनी पंसद के विषय चुनने के लिए आजाद हैं उस विषय में सुप्रीम कोर्ट को जनहित का मुद्दा चुनने के लिए कानून से जुड़े लोगों ने ही मजबूर कर दिया है। पर श्रेय निश्चित रूप से अटार्नी जनरल या वकीलों को नहीं कुणाल कामरा को है। द टेलीग्राफ ने इस खबर को लीड तो बनाया ही है कॉमेडियन चार्ली चैपलिन से मामले से तुलना भी की है।

इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है और हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने या उससे पहले के अधपन्ने पर नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने टर्न में कामरा की पूरी चिट्ठी छापी है और बताया है कि किन वकीलों के साथ किस विधि छात्र ने याचिका दायर की है और यह भी कि याचिका में क्या कहा गया है। दूसरी ओर, द टेलीग्राफ ने उन मामलों की चर्चा की है जिनका जिक्र कुणाल कामरा ने अपने पत्र में किया है। इसके अनुसार नोटबंदी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 16 दिसंबर 2016 को मामला पांच जजों की संविधान पीठ को भेज दिया था। पर वह बेंच अभी तक नहीं बनी है। पता नहीं क्यों किसी विधि छात्र की दिलचस्पी इसमें नहीं हुई या हुई तो उन्हें सुना ही नहीं गया। यह भी कि इसमें किसी की अवमानना हुई है कि नहीं। दूसरा मामला जम्मू और कश्मीर से संबंधित है और यह मामला अभी चल ही रहा है। तीसरा इलेक्ट्रल बांड्स का मामला है। चार सितंबर 2017 को दायर अपील अभी लंबित है।

इस बीच अर्नब का मामला कैसे जल्दी में सुना गया सबको पता है। क्या अर्नब के जेल में रहने से आसमान गिर जाता। और अर्नब को छोड़ा गया तो दूसरे पत्रकारों के मामले में लंबी-लंबी तारीखें देने का क्या मतलब है। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में यह बात नहीं कही गई। ठीक है कि अवमानना कानून का डर होता है पर तथ्य बयान करना अवमानना नहीं है। तथ्यों पर चर्चा तो होनी ही चाहिए। इससे यह भी पता चलेगा कि नोटबंदी या धारा 370 से संबंधित मामलों की सुनवाई समय रहते क्यों नहीं हुई। आज के इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर खबर है कि नेशनल कांफ्रेंस के पूर्व विधायक अल्ताफ अहमद वानी को दुबई की यात्रा पर नहीं जाने दिया गया क्योंकि धारा 370 हटाए जाने के बाद इस आशय का एक आदेश था जो किसी खास नेता के लिए नहीं कश्मीर के सभी राजनीतिज्ञों के लिए था। गुरुवार को इसका खुलासा होने के बाद अब इसपर चर्चा होगा। आप समझ सकते हैं कि कैसे-कैसे आदेश हैं और उनपर सुनवाई नहीं हुई। अर्नब के लिए समय निकल गया आखिर क्यों? इसपर चर्चा तो होनी ही चाहिए।

अधिकारों के बेजा इस्तेमाल और संवैधानिक संस्थाओं के भरपूर दुरुपयोग का ही आलम है कि देश आज ऐसी हालत में पहुंच गया है कि सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना है कि वह अवमानना के मामले पहले देखें या जो मामले लंबित हैं उनपर कार्रवाई करे। देश भर के पीड़ितों के लिए अंतिम राहत सुप्रीम कोर्ट ही है। यहां भीड़ है, समय लगता है यह भी पता पर मामलों को प्राथमिकता देने के विशेषाधिकार से ही अवमानना के मामले में विशेषाधिकार मुद्दा बन गया है। यह स्थिति एक – दो साल में नहीं बनी है और सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जो प्रेस कांफ्रेंस की थी उससे भी नहीं सुधरी है। कहा जा सकता है कि हालत और खराब हुई है। समय रहते अगर कुछ किया नहीं गया तो आगे की स्थिति का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। अभी ही समस्या का हल यह नहीं है कि अवमानना के मामले प्राथमिकता से सुनकर सबको अधिकतम सजा दी जाए। क्योंकि सजा से अपराध खत्म होते तो बलात्कारियों के लिए सख्त कानून बनाने से लेकर बिना सुने फर्जी मुठभेड़ में मार देने से बलात्कार कम नहीं हुए हैं। अवमानना की सजा तो फिर भी फांसी नहीं होगी।