जोशीमठ त्रासदी (पार्ट – 4) चारधाम यात्रा मार्ग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी, इस संकट को बढ़ा सकता है

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मिश्र कमेटी रिपोर्ट 1976, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, करेंट साइंस के विशेषज्ञ लेखकों, आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिक राजीव सिन्हा सहित अनेक विशेषज्ञों की जोशीमठ के बारे में यह स्पष्ट राय थी कि, निर्माण कम से कम हो, बहुमंजिला निर्माण तो बिल्कुल ही न हो, और आबादी का घनत्व न बढ़ने दिया जाय। पर इन सभी विशेषज्ञ सलाहों के बाद, सरकार एक नई योजना लेकर आई चारधाम यात्रा मार्ग जिसमे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को एक साथ चार लेन सड़क से जोड़ना है और इससे उत्तराखंड में पर्यटन भी बढ़ेगा और तीर्थाटन भी। केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की इस महत्वाकांक्षी  सड़क विस्तार परियोजना से, हिमालय की पारिस्थितिकी, पड़ने वाले, संभावित खतरनाक परिणाम को देखते हुए पर्यावरण के सजग कार्यकर्ताओ ने साल 2018 में एक याचिका दायर की। 

देहरादून स्थित सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून सहित, अनेक पर्यावरणविद समूहों ने, इस राजमार्ग के चौड़ीकरण का विरोध करते हुए अपनी याचिका में, बड़े पैमाने पर भूस्खलन और अन्य पर्यावरणीय आपदाओं का हवाला दिया, और पहले के किये गए वैज्ञानिक अध्ययनों और निष्कर्षों को अदालत के समक्ष रखा और यह कहा कि, इससे न केवल धरती पर अनावश्यक दबाव बढ़ेगा, बल्कि, इस इंफ्रास्ट्रक्चर ढांचा परियोजना के लिए, बहुत से पेड़ों की कटाई होने से, हिमालय की इन उपत्यकाओं के पारिस्थितिक तंत्र का विनाश भी होने लगेगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने, याचिका पर प्रारंभिक सुनवाई के बाद, हिमालय की घाटियों पर चारधाम परियोजना के संचयी और स्वतंत्र प्रभाव पर विचार करने के लिए, एक उच्चाधिकार समिति (एचपीसी) का गठन किया। शीर्ष अदालत ने कहा, “हम एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति (HPC) का गठन करते हैं जिसमें सभी संबंधित विशेषज्ञ शामिल किये जायेंगे। इस हाई पॉवर कमेटी की अध्यक्षता प्रो. रवि करेंगे। इसके सदस्यों में, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अंतरिक्ष विभाग, भारत सरकार, अहमदाबाद, भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, रक्षा मंत्रालय के एक एक प्रतिनिधि होंगे। साथ ही, निदेशक सीमा सड़क संगठन, सहित कुल 21 सदस्यों की यह कमेटी जिसे एचपीसी (हाई पॉवर कमेटी) नाम दिया गया, गठित की गई। इस उच्चाधिकार प्राप्त, एचआईसी को, हिमालय की भूगर्भीय, भौगोलिक, पारिस्थितिकी, वनस्पति और जीव जंतु के इको सिस्टम पर, इस सड़क परियोजना का क्या असर पड़ सकता है और उनके निदान क्या है, इस पर अध्ययन कर, एक विस्तृत विशेषज्ञ रिपोर्ट देने के लिये, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने निर्देश दिया। इस याचिका की सुनवाई, जस्टिस चंद्रचूड़ ही कर रहे थे, तब सीजेआई नहीं बने थे। 

इस कमेटी ने जुलाई 2020 में अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी। पहाड़ी सड़कों के लिए आदर्श चौड़ाई के मुद्दे पर इस हाई पॉवर कमेटी के सदस्यों के बीच, मतभेद भी उभरा। इस मतभेद के बाद एचपीसी ने, अदालत में, दो रिपोर्ट प्रस्तुत कीं। एचपीसी के 4 सदस्यों द्वारा की गई, अल्पमत की सिफारिश में यह तर्क दिया गया है कि “एक आपदा प्रतिरोधी सड़क, एक व्यापक सड़क की तुलना में, बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।” क्योंकि, इस पूरे इलाके में, लगातार रुकावट, भूस्खलन और आवर्ती ढलान के कारण, सड़कों के बाधित हो जाने की बहुत अधिक संभावनाएं हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने, इस मुकदमे को कवर करते हुए, हाई पॉवर कमेटी के इस अंतर्द्वंद को, बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया था। 

दूसरी ओर, एचपीसी के 21 सदस्यों, जिनमें से 14 सरकारी अधिकारी थे, में सरकारी अधिकारियों के बहुमत ने, सड़क की चौड़ाई, 12 मीटर तक रखने का सुझाव दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए, सितंबर 2020 में, हाई पॉवर कमेटी के अल्पमत गुट की सिफारिश को, तर्कसम्मत मानते हुये, यह फैसला सुनाया कि अनिश्चित (अंप्रेडिक्टेबल) और संवेदनशील इलाके में कैरिजवे (सड़क) की चौड़ाई 5.5 मीटर तक ही सीमित होनी चाहिए। यानी सुप्रीम कोर्ट ने 12.5 मीटर से सड़क की चौड़ाई आधी कर दी, जो, चार लेन के बजाय, दो लेन की हो जा रही थी। 

भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को नहीं माना और सड़क की चौड़ाई बढ़ाने के लिये दुबारा सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखा। अब, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का हवाला देते हुए, इस फैसले को चुनौती दी। भारत सरकार का कहना था कि, दोनो तरफ पक्की दीवार और 10 मीटर की चौड़ाई वाली सड़क को, दो-लेन में विकसित करने के लिए, अनुमति दी जाय। यानी सड़क एक मजबूत दीवार वाली डिवाइडर से सुरक्षित रखा जाय। इस रिटेनिंग दीवार के लिये भी तो ज़मीन चाहिये, और पर्वतीय क्षेत्र में जो भी, ज़मीन निकाली जाएगी, वह पहाड़ को तोड़ या खुरच कर ही निकाली जायेगी। पहाड़ पर इस तरह के अनावश्यक दबाव को बचाने के लिए ही तो यह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। सरकार की तरफ से सरकार का पक्ष रखते हुए, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने नवंबर 2021 में शीर्ष अदालत को बताया, “चीन दूसरी (सीमा के उस पार) तरफ हेलीपैड और इमारतों का निर्माण कर रहा है … इसलिए तोपखाने, रॉकेट लॉन्चर और टैंक आदि ले जाने वाले ट्रकों को इन सड़कों से गुजरना पड़ सकता है।” इसलिये इन सड़कों का पर्याप्त चौड़ा होना ज़रूरी है। यहां यह तथ्य नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि, चीन या तिब्बत की तरफ, हिमालय की भूगर्भीय, भौगोलिक, और इकोलॉजिकल स्थितियां, हमारी ही तरह के अस्थिर और भुरभुरे पहाड़ी भाग हैं, या तिब्बत के ऊंचे पठार के कारण, दृढ़ चट्टानी श्रृंखला हैं ।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, भारत सरकार के, सड़क चौड़ीकरण के राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर, पर्यावरणविदों का तर्क था कि, सेना मौजूदा सड़कों से संतुष्ट थी लेकिन, वह, केवल सरकार के निर्देशों का पालन कर रही थी। एनजीओ ने आगे तर्क दिया कि, सड़क चौड़ीकरण की यह कवायद, सुरक्षा की आड़ में, चार धाम यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए, की की जा रही है। जिसका बेहद विपरीत असर हिमालय की इन उपत्यकाओं की पारिस्थतिकी और इकोलॉजी पर पड़ेगा। 

आखिरकार, चारधाम मामले में, फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 14 दिसंबर 2021 को चारधाम सड़क परियोजना के लिए, सरकार के अनुसार, चौड़ी सड़क बनाने की अनुमति दे दी। अदालत का आदेश, भारत-चीन सीमा पर हाल की सुरक्षा चुनौतियों और सशस्त्र बलों के तेजी से आवागमन के लिए डबल-लेन सड़कों के सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया था। 14 दिसंबर, 2021 को हिमालय एक महत्वपूर्ण लड़ाई हार गया, जब, सुप्रीम कोर्ट ने चार धाम परियोजना (सीडीपी) के लिए व्यापक रूप से चौड़ी, 10 मीटर कोलतार वाली सतह, डबल-लेन पेव्ड शोल्डर (डीएल-पीएस), सड़क की चौड़ाई के पक्ष में फैसला सुनाया। प्रस्तावित मार्ग, चार प्राचीन हिमालयी तीर्थों, बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री को आपस मे जोड़ता है। यह प्राचीन भागीरथी की नाजुक और संवेदनशील घाटियों से होकर गुजरता हुआ, गंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी और यमुना नदियों की उपत्यकाओं को पार करता है। 12,000 करोड़ रुपये की इस परियोजना में सुधार के साथ-साथ 889 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास की भी परिकल्पना की गई है। इन राष्ट्रीय राजमार्गों में कुल परियोजना का 700 किमी की लंबाई शामिल है। 

सुप्रीम कोर्ट का, 83 पन्नों का यह फैसला ‘सतत विकास’ की अवधारणा पर आधारित है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए पिछले कई, फैसलों के कुछ प्रशंसनीय उद्धरण उद्धृत करते और उनका उल्लेख करते हुए,  पर्यावरणीय चिंताओं के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं को भी संतुलित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। लेकिन विकास की ज़रूरतों को, जीने के मानव अधिकारों और पर्यावरणीय चिंताओं से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। विकास का अर्थ है, किसी एक संकाय की अनदेखी या उसका विनाश नहीं, बल्कि, अपनी पूरी क्षमता से, विकास को साकार करना है। अदालत ने, इस फैसले में, वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षण को लागू करने के रूप में, स्थिरता को भी रेखांकित किया है। फैसला, इस बात पर भी जोर देता है कि, सतत विकास, केवल निवारण के लिए नहीं है, बल्कि पर्यावरण की रक्षा में विफलताओं को रोकने के लिए भी है। 

अदालत फिर, अपने तर्क के मूल को स्पष्ट करती है। फैसले में कहा गया है, “न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार के दौरान, अदालत, सशस्त्र बलों की ढांचागत जरूरतों का अनुमान नहीं लगा सकती है।” सुरक्षा के लिये सशस्त्र बलों को किस तरह की ढांचागत सुविधाएं चाहिये, इसे अदालत तय नहीं कर सकती है। अदालत के इस तर्क से असहमति नहीं हो सकती है। सुरक्षा के आक्रमण और बचाव के तौर, तरीके, रणनीति, संसाधन आदि सेना को ही तय करना है। इसीलिये, जब अदालत ने हाई पॉवर कमेटी के बहुमत द्वारा डबल लेन – पेव्ड शोल्डर्स (डीएल पीएस) सड़क की बात रखी तो अदालत का विकल्प सीमित हो गया। पर्यावरणीय चिंताओं के विरुद्ध, रक्षा हितों को संतुलित करना एचपीसी के दायरे से बाहर था। हालांकि, केंद्रीय रक्षा मंत्रालय का एक निदेशक स्तर का अधिकारी हमेशा एचपीसी का सदस्य रहा है। 

हाई पॉवर कमेटी के अध्यक्ष के नेतृत्व वाले अल्पसंख्यक विशेषज्ञों और याचिकाकर्ताओं ने बार-बार, अदालत से कहा है कि “सेना की आवश्यकता विवाद का मुद्दा नहीं थी। सेना को डीएल-पीएस या छह-लेन राजमार्ग की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन जमीन पर। हिमालय, जहां जगह जगह भू स्खलन, और ढलान जैसी समस्याएं हैं, क्या वहां, इतनी चौड़ाई की सड़क बनाई और उसे लंबे समय तक बिना धंसे या भूस्खलित हुए, सुरक्षित और बरकरार रखा जा सकता है? निश्चित रूप से क्षेत्र के विशेषज्ञ ही इसका मूल्यांकन कर सकते हैं। पिछले दो वर्षों में इस तरह के भूस्खलन के कारण सड़कों की गतिशीलता में गंभीर बाधा देखी गई है। केवल भूस्खलन, ही नहीं हुए, इन आपदाओं के कारण, अनेक बाधाएं और कई दुखद मौतें भी हुई हैं। 

प्रियदर्शिनी पटेल, जो ‘गंगा आह्वान’ नामक संस्था की एक प्रमुख सदस्य हैं, ने भू धंसाव की गतिविधियों पर एक अध्ययन किया है और उनके हवाले से, इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, हिमालय की संवेदनशीलता का अंदाज़ा इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि “भारत सरकार के, केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने, वर्ष  2021 में 200 से अधिक भूस्खलन की घटनाओं की सूचना दी। यह सब आंकड़े सरकार के अभिलेखों में दर्ज है। इन भूसख्लनों से राष्ट्रीय राजमार्ग-58 और राष्ट्रीय राजमार्ग-94, दोनों ही, जो रक्षा मंत्रालय के लिए रणनीतिक महत्व के हैं, जगह जगह प्रभावित हुए हैं। इन दुर्घटनाओं के कारण, मरम्मत के लिये, संबंधित जिला मजिस्ट्रेटों द्वारा अनिश्चित काल के लिए, यह दोनों राजमार्ग, समय समय पर, जगह जगह, बंद भी किये गए थे। बंद करने का कारण, यात्रियों के लिये ये राजमार्ग, भू स्खलन की जगहों पर, असुरक्षित हो गए थे। उनपर,  मलबे, बोल्डर लगातार गिर रहे थे और घाटी की तरफ की ‘संरक्षण दीवार’ यानी रिटेनिंग दीवारें भी के ढहने लगी थी। हालांकि यह प्रतिबंध, नागरिकों के लिये था, न कि सैन्य गतिविधियों के लिये। सेना का आवागमन जारी रहा और जहां भू स्खलन की घटनाएं होती रहीं,, वहां बॉर्डर रोड संगठन उसे साफ भी करता रहा।

सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार, “एनएच-58 पर, एक ही दिन में 18 स्लोप फेलियर/मलबा गिरने की सूचना मिली थी। तोताघाटी में एक भूस्खलन हुआ, जो कि सीडीपी के पहाड़ी-कटाव शुरू होने से पहले पूरी तरह से स्थिर था। लेकिन पिछले डेढ़ साल से यह बार-बार होने वाला भूस्खलन क्षेत्र बन गया है।  इस मानसून में ढलान की विफलताएं निरंतर और असहनीय तरह से हो रही थी।” एनएच-58, पहाड़ों पर बद्रीनाथ और माणा तक तथा एनएच 94, ऋषिकेश – आमपता – टेहरी – धरासू – कुठनौर – यमुनोत्री तक जाती है। एक बार तो, एनएच-94 पर, भारी बारिश के कारण पक्की सड़क का 25-30 मीटर का हिस्सा ढह गया और डूब गया। दोनों हिस्सों को तारकोल और सुरक्षा दीवारों के साथ डीएल-पीएस की चौड़ाई तक पूरा किया गया था। 

केंद्रीय सड़क और राजमार्ग मंत्रालय ने अक्टूबर 2020 को बताया था कि NH-125 जो, सितारगंज को, खटीमा – टनकपुर – पिथौरागढ़ से जोड़ती है, पर भूस्खलन की 72 घटनाएं हुई। इस प्रकार, कागजी जुमलों और टालू आश्वासनों के बावजूद, न केवल हमारी सभी एजेंसियां, हो रहे, भू ढलान का हल नहीं ढूंढ पाई। धरती गिरती रही, साफ सफाई कर रास्ता खुलवाया जाता रहा, पर ऐसी कोशिश कम हुई कि, कम से कम भू स्खलन हो, और इसके लिए विशेषज्ञों की बात मानी जाय। रक्षा गतिशीलता जरूरी है पर जब सड़कों पर अधिक बोझ पड़ेगा, सड़कें, अधिक पहाड़ खुरच कर और चौड़ी की जायेंगी तो कभी ऐसा भी हादसा हो सकता है कि, रक्षा गतिशीलता ही बाधित हो जाय। तीर्थयात्रा रोकी जा सकती है। लंबे समय तक रोकी जा सकती है, पर सेना/आईटीबीपी/बीआरओ/मेडिकल/पुलिस/सरकारी महकमे  आदि का आवागमन नही रोका जा सकता है। 

राजमार्ग चौड़ीकरण के संदर्भ में, डीएल-पीएस मानक को सही ठहराने के लिए सरकारी परिपत्रों, संशोधित दस्तावेजों पर भी कुछ टिप्पणी इंडियन एक्सप्रेस के उक्त लेख में मिलती है। सड़क और राजमार्ग मंत्रालय का 2020 का सर्कुलर 2018 के सर्कुलर का संशोधित रूप है। यह संशोधन, 15 दिसंबर, 2020 को किया गया था, जिस दिन एचपीसी ने रक्षा मंत्रालय द्वारा अदालत में दाखिल किए जाने वाले हलफनामे पर विचार करने के लिए बैठक की थी। इस संशोधन में,  डीएल-पीएस की सिफारिश की गई, जो हाई पॉवर कमेटी की बैठक के ही दौरान, प्रस्तुत किया गया, जहां एचपीसी ने, बहुमत से, सडक़ के डीएल-पीएस मानक के अनुसार अपनी राय दे दी। यही नहीं, आईआरसी यानी इंडियन रोड कांग्रेस 2019 दिशानिर्देश को भी अगस्त 2020 में जल्दबाजी में संशोधित किया गया।  आईआरसी के निर्देश, वास्तव में राजमार्ग से लेकर छोटे जिले और गाँव की सड़कों तक सभी सड़कों के लिए डीएल-पीएस का मानक निर्धारित करते हैं। आखिर इन सड़को को चौड़ा करने की जिद किसकी थी कि, उसे पूरा करने के लिए, एचपीसी की मीटिंग के दौरान, इच्छानुसार संशोधन पर संशोधन किए जा रहे थे? 

अदालत ने, इस तथ्य को कि, बीईएसजेड, यानी भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन के भीतर डीएल- पीएस प्रतिबंधित है, भी नहीं देखा। अदालत ने, बीईएसजेड अधिसूचना में संशोधन के संबंध में अटॉर्नी जनरल के बयान पर भरोसा किया, जिसे उन्होंने “राष्ट्रीय सुरक्षा हित के लिए जरूरी है कह कर, अनुमति देने की बात कही थी।  पर्यावरणीय चिंताओं और उनके प्रभावों के उचित अध्ययन के बिना सुरक्षा का बुनियादी ढांचा भी तो, स्थिर और कारगर नहीं रखा जा सकता है। सच तो यह है कि, पुनर्निर्माण, आपदा न्यूनीकरण, लिफ्ट सिंचाई, अस्पतालों, स्कूलों, खाद्य गोदामों और अन्य सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा बुनियादी ढांचे से संबंधित कार्य, बिना पर्यावरणीय प्रभावों के उचित अध्ययन और उनके शमन के नही किए जाने चाहिए।\ 

दस बारह साल पहले, हमारा देश प्राचीन गंगा के अंतिम खंड को, उसके उद्गम (उत्तरकाशी-गंगोत्री) की घाटी में संरक्षित करने के लिए एकजुट हुआ था। तब, कम से कम तीन पनबिजली परियोजनाओं को, पर्यावरणीय चिंताओं को देखते हुए, रद्द कर दिया गया था।  गंगा के जलग्रहण क्षेत्र की स्थायी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए घाटी को एक पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र बीईएसजेड घोषित किया गया था। वर्षों की सुरक्षा को नष्ट करने के लिए केवल एक भारी भूल की आवश्यकता थी, जो इस सरकार के सनक भरे चारधाम यात्रा राजमार्ग की मंजूरी ने पूरी कर दी। अभी इस पर काम शुरू ही हुआ था कि, जोशीमठ से बेहद चिंतित करने वाली खबरें आने लगीं।  

अदालत के फैसले में कहा गया है कि, इस मामले में रक्षा मंत्रालय का “सुसंगत रुख” रहा है। लेकिन, एक तथ्य यह भी है कि, रक्षा मंत्रालय ने नवंबर 2020 में, जो अपना पहला हलफनामा दायर किया था और रक्षा गतिशीलता के लिए डबल लेन कॉन्फ़िगरेशन मांगा था वह सात मीटर की चौड़ाई का मांगा था। फैसले में, अनुमति, डीएल-पीएस को दी गई है, लेकिन रक्षा मंत्रालय ने केवल डीएल यानी डबल लेन के लिए कहा था, क्योंकि तब तक कि सभी सरकारी परिपत्रों को डीएल-पीएस में संशोधित नहीं किया गया। हालांकि, इस संशोधन के बाद, जनवरी 2021 में, रक्षा मंत्रालय ने भी, तदनुसार, अदालत में अपना रुख बदल दिया और उसने, 10 मीटर की सड़क मांगी, जो पहले 7 मीटर की मांगी गई थी। एचपीसी की सर्वसम्मत सिफारिशों के अनुसार तीर्थयात्रियों के लिए पैदल मार्ग बनाने जैसी बातें भी कही गई थी। लेकिन विशेषज्ञों ने बताया है कि, डीएल-पीएस की चौड़ाई वाली सड़क, पैदल चलने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती है। 

इस प्रकार इस याचिका में पहले एचपीसी के अल्पमत गुट ने, सड़क की चौड़ाई, 5.5 मीटर तक रखने की राय दी। पर इसी कमेटी की एक बड़े समूह ने, उसे बढ़ा कर 12.5 मीटर रखने की राय दी। फिर जब बहस हुई तो, अदालत ने, सेना की रिपोर्ट पर सुरक्षा हित को देखते हुए 10 मीटर रखने की बात मान ली। लेकिन अदालत में सेना पहले 7 मीटर की सड़क के लिए हलफनामा दे चुकी थी। अब अदालत ने 10 मीटर की डीएल-पीएस मानक की सड़क को एचपीसी की सिफारिश पर मान लिया है। सड़कें चौड़ी होनी चाहिए और अच्छी भी, पर यह भी तो हमें देखना है कि, जहां सड़कें बन या चौड़ी की जा रही हैं, वहां की जमीन, भौगोलिक स्थिति, भूगर्भीय स्थिति क्या है। अदालत के सामने जो प्रश्न था वह केवल सड़क को चौड़ा करने का नहीं था, बल्कि मूल प्रश्न था कि, हिमालयी परिस्थितियों में, सड़कों को, बिना स्थानीय पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाए, कितना चौड़ा किया जा सकता है। लेकिन सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को, आगे रखते हुए, चारधाम यात्रा राजमार्ग की अनुमति की बात रखी और, शीर्ष अदालत ने भी, पर्यावरणीय चिंताओं को लगभग नज़रअंदाज़ करते हुए, रक्षा हित के मुद्दे पर मुहर लगा दी। 

(विजय शंकर सिंह) 

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