0

शोषितों दलितों और पिछड़ों के मसीहा थे "डॉ भीमराव अम्बेडकर

Share

जिस वक्त देश में छुआछुत, भेदभाव, ऊँच-नीच जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ अपने चरम अवस्था पर थी ऐसे वक्त में बाबासाहेब ने अपने दम पर इन बुराईयों के विरूद्ध ऐसा संघर्ष किया जिसकी मिसाल सदियों तक दी जाती रहेगी.
उस दौर में हिन्दू धर्म मनुवादी व्यवस्था से बहुत ज़्यादा ग्रसित था. शूद्रों में निम्न व गरीब जातियों को शामिल करके उन्हें अछूत की संज्ञा दी गई और उन्हें नर्क के सामान जीवन जीने को मजबूर कर दिया गया. उन्हें छुना भी भारी पाप माना जाता था.
अछूतों को तालाबों, कुंओं, मंदिरों, शैक्षणिक संस्थाओं आदि सभी जगहों पर जानेमनाही थी. इन अमानवीय कृत्यों की उल्लंघना करने वाले को कौड़ों, लातों और घूसों से पीटा जाता, तरह-तरह की भयंकर यातनाएं दी जातीं. निम्न जाति के लोगों से बेगार करवाई जातीं, मैला ढुलवाया जाता, गन्दगी उठवाई जाती, मल-मूत्र साफ करवाया जाता, झूठे बर्तन साफ करवाए जाते और उन्हें दूर से ही नाक पर कपड़ा रखकर अपनी जूठन खाने के लिए दी जाती व बांस की लंबी नलिकाओं से पानी पिलाया जाता.
खांसने व थूकने के लिए उनके मुंह पर मिट्टी की छोटी कुल्हड़ियां बांधने के लिए मजबूर किया जाता. जिस स्थान पर कथित अछूत बैठते उसे बाद में उस स्थान को पानी से कई बार धुलवाया जाता ऐसी कुटिल व मानवता को शर्मसार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच दलितों, पिछड़ों और पीड़ितों के मुक्तिदाता और मसीहा बनकर अवतरित हुए डा. भीमराव रामजी अम्बेडकर जी का जन्म 14 अप्रैल , 1891 को मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट महू छावनी में एक महार जाति के परिवार में हुआ था.
बचपन से जाति और छुआछुत का दंश झेलने वाले भीमराव अम्बेडकर चाहते थे कि समाज के हर तबके के लोगों का अपने देश में एक जैसा व्यवहार हो इसके लिए दलितों के हक के लिए हमेशा लड़े और इनकी समानता के लिए सविंधान में कानून भी बनाये जिसके कारण भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा भी कहा जाता है.

1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था

 “जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा.”

वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्धार के लिए कार्य किया.वर्ष 1927 में उनके नेतृत्व में दस हजार से अधिक लोगों ने एक विशाल जुलूस निकाला और ऊँची जाति के लिए आरक्षित ‘चोबेदार तालाब’ के पीने के पानी के लिए सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की. इसी वर्ष उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पाक्षिक मराठी पत्रिका का प्रकाशन करके अछूतों में स्वाभिमान और जागरूकता का अद्भूत संचार किया. देखते ही देखते वे दलितों व अछूतों के बड़े पैरवीकार के रूप में देखे जाने लगे. इसी के परिणास्वरूप डॉ. भीमराव अम्बेडकर को वर्ष 1927 और 1932 में भी मुंबई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया.
वर्ष 1927 के अंत में सम्मेलन में, अम्बेडकर ने जाति भेदभाव और “अस्पृश्यता” को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए क्लासिक हिंदू पाठ, “मनुस्मृति” की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जला दीं. प्रतिवर्ष उनके समर्थक 25 दिसंबर को “मनुस्मृति बर्निंग डे”के रूप में मनाते हैं.
विधान परिषद में उन्होंने दलित समाज की वास्तविक स्थिति को न केवल उजागर किया, बल्कि शोषित समाज की आवाज को बखूबी बुलन्द किया. वर्ष 1929 में उन्होंने ‘समता समाज संघ’ की स्थापना की. अगले वर्ष 1930 में उन्होंने नासिक के कालाराम मंन्दिर में अछूतों के प्रवेश की पाबन्दी को हटाने के लिए जबरदस्त सत्याग्रह किया. इसके साथ ही दिसम्बर, 1930 में ‘जनता’ नाम से तीसरा पत्र निकालना शुरू किया. वर्ष 1931 में उन्होंने महात्मा गाँधी के विरोध के बावजूद दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में दलितों के लिए अलग निर्वाचन का अधिकार प्राप्त करके देशभर में हलचल मचा दी.
गांधी जी के अनशन के बाद डॉ. अम्बेडकर व कांग्रेस के बीच 24 सितम्बर, 1932 को ‘पूना पैक्ट’ के नाम एक समझौता हुआ और डॉ. अम्बेडकर को भारी मन से कई तरह के दबावों के चलते दलितों के लिए अलग निर्वाचन की माँग वापस लेना पड़ा.
लेकिन, इसके जवाब में उन्होंने वर्ष 1936 में ‘इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना करके अपने घोषणा पत्र में अछूतों के उत्थान का स्पष्ट एजेण्डा घोषित कर दिया. अब शोषित समाज डॉ. अम्बेडकर को अपने मसीहा के रूप में देखने लग गया था. इसी के परिणास्वरूप वर्ष 1937 के आम चुनावों में डॉ. अम्बेडकर को भारी बहुमत से अभूतपूर्व विजय हासिल हुई और कुल 17 सुरक्षित सीटों में से 15 सीटें नवनिर्मित ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ के खाते में दर्ज हुईं. वे 12 वर्ष तक बम्बई में विधायक रहे. इसी दौरान वे बम्बई कौंसिल से ‘साईमन कमीशन’ के सदस्य चुने गए.
उन्होंने लंदन में हुई तीन गोलमेज कांफ्रेंसों में भारत के दलितों का शानदार प्रतिनिधित्व करते हुए दलित समाज को कई बड़ी उपलब्धियां दिलवाईं. दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर का भारतीय राजनीति में कद बहुत ऊँचाई पर जा पहुंचा. वर्ष 1942 में उन्हें गर्वनर जनरल की काऊंसिल का सदस्य चुन लिया गया.
उन्होंने शोषित समाज को शिक्षित करने के उद्देश्य से 20 जुलाई, 1946 को ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी’ नाम की शिक्षण संस्था की स्थापना की. इसी सोसायटी के के तत्वाधान में सबसे पहले बम्बई में सिद्धार्थ कालेज शुरू किया गया और बाद में उसका विस्तार करते हुए कई कॉलेजों का समूह बनाया गया. ये कॉलेज समूह आज भी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणीय भूमिका निभा रहे हैं.
15 अगस्त, 1947 को देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिली. 29 अगस्त, 1947 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान निर्मात्री सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया. अपनी टीस के चलते ही उन्होंने संविधान में यह प्रावधान रखा कि, ‘किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता या छुआछूत के कारण समाज में असामान्य उत्पन्न करना दंडनीय अपराध होगा’.
इसके साथ ही उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली लागू करवाने में भी सफलता हासिल की. उन्होंने महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने पर पर बराबर बल दिया.26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया और इसे 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया.

इस संविधान के पूरा होने पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि,

‘‘मैं महसूस करता हूँ कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है, पर साथ ही इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़कर रख सके.वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था, बल्कि इसका उपयोग करने वाला अधम था.’’

वर्ष 1949 में उन्हें स्वतंत्र भारत का प्रथम विधिमंत्री बनाया गया. वर्ष 1950 में डॉ. अम्बेडकर श्रीलंका के ‘बौद्ध सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए गए और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से अत्यन्त प्रभावित होकर स्वदेश लौटे. उन्होंने वैचारिक मतभेदों के चलते वर्ष 1951 में विधिमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया. डॉ. अम्बेडकर वर्ष 1952 के आम चुनावों में हार गए. इसके बावजूद वे वर्ष 1952 से वर्ष 1956 तक राज्यसभा के सदस्य रहे.
अत्यन्त कठिन व अडिग संघषों के बाद , उनके मन में यह मलाल रहा कि वे शोषित समाज के उत्थान व समृद्धि के लिए जो अपेक्षाएं भारत सरकार से रखते थे, उनपर भारत सरकार खरा नहीं उतरीं और अपनी इच्छाओं को पूरा करने में वे पूरी तरह कामयाब नहीं हो सके.
इससे बढ़कर, देश में कानून बनने के बावजूद दलितों व शोषितों की दयनीय स्थिति देखकर उन्हें बेहद कुंठा व वेदना का गहरा अहसास हुआ. देश व समाज में दलितों, शोषितों व अछूतों को अन्य जातियों के समकक्ष लाने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने बहुत लंबा गहन अध्ययन और मंथन किया. इसके बाद  उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि एकमात्र बौद्ध धर्म ही ऐसा है, जो दलितों को न केवल सबके बराबर ला सकता है, बल्कि अछूत के अभिशाप से भी हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति दिला सकता है.
इसी निष्कर्ष को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने 1955 में ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ की स्थापना की और 14 अक्तूबर, 1956 में अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर एक नए युग का सूत्रपात कर दिया. उनका मानना था कि अछूतों के उत्थान और पूर्ण सम्मान के लिए यही एकमात्र अच्छा रास्ता है.
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने समाजसेवक, शिक्षक, कानूनविद्, पदाधिकारी, पत्रकार, राजनेता, संविधान निर्माता, विचारक, दार्शनिक, वक्ता आदि अनेक रूपों में देश व समाज की अत्यन्त उत्कृष्ट व अनुकरणीय सेवा की व अपनी अनूठी छाप छोड़ी. देश व समाज के लिए उनके आजीवन समग्र योगदान को नमन करते हुए भारत सरकार ने वर्ष 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत-रत्न’ से अलंकृत किया.
उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी पुस्तकों और ग्रन्थों की रचनाएं कीं.इन पुस्तकों में ‘कास्ट्स इन इण्डिया’, ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इण्डिया एण्ड देयर रेमिडीज’, ‘दि प्राबल्म ऑफ दि रूपी’, ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’, ‘मिस्टर गांधी एण्ड दि एमेन्सीपेशन ऑफ दि अनटचेबिल्स’, ‘रानाडे, गांधी एण्ड जिन्ना’, ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, ‘वाह्ट कांग्रेस एण्ड गांधी हैव इन टु दि अनटचेबिल्स’, ‘हू वेयर दि शूद्राज’, ‘स्टेट्स एण्ड माइनारिटीज’, ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डियन करेन्सी एण्ड बैंकिंग’, ‘दि अनटचेबिल्स’, ‘महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक स्टेट’, ‘थाट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स’ आदि शामिल थीं.
कई महत्पूर्ण पुस्तकें उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाईं. इन पुस्तकों में ‘लेबर एण्ड पार्लियामेन्ट्री डेमोक्रेसी’, ‘कम्युनल डेडलॉक एण्ड ए वे टु साल्व इट’, ‘बुद्ध एण्ड दि फ्यूचर ऑफ पार्लियामेंट डेमोक्रेसी’, ‘एसेशिंयल कन्डीशंस प्रीसीडेंट फॉर दि सक्सेसफुल वर्किंग ऑफ डेमोक्रेसी’, ‘लिंग्विस्टिक स्टेट्स: नीड्स फॉर चेक्स एण्ड बैलेन्सज’, ‘माई पर्सनल फिलॉसफी’, ‘बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’, ‘दि बुद्ध एण्ड हिज धम्म’ आदि शामिल हैं.
मधुमेह रोग से पीडि़त बाबा साहेब अपनी अंतिम कृति ‘बुद्ध और उनके धम्म’ को पूरा करने के तीन दिन बाद 6 दिसंबर 1956 को अपना शरीर त्याग दिया.  बाबा साहब कहते थे कि

“मैं  ऐसे  धर्म  को  मानता  हूँ  जो  स्वतंत्रता , समानता, और  भाईचारा  सिखाये.  अगर  धर्म  को  लोगो  के  भले  के  लिए  आवशयक  मान  लिया  जायेगा तो  और  किसी  मानक  का  मतलब  नहीं  होगा.”

उन्होंने जो कहा, उसका निर्वाह जीवन भर किया. आज भले ही बाबा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक आदर्श समाज की रचना करने का जो पथ वे आलौकित कर गये हैं, वे भारत को नित विकास के पथ पर आगे बढ़ाते रहेंगे.

Exit mobile version