हम राहुल गांधी को शिक्षा देने के लिए बड़े बेक़रार रहते हैं. क्या करें उम्मीद तो थक हार के कांग्रेस से ही बचती है एक सेकुलर टाइप की सरकार दे पाने की तो उसी में कम्युनिस्ट पार्टी में ढूँढने लगते हैं.
हम चाहते हैं राहुल मंदिर में न जाएँ. क्यों न जाएँ भाई? हमारे मुट्ठी भर वोट के लिए? और मान लीजिये वाकई उनकी आस्था हो तो? कभी घोषित तो किया नहीं ख़ुद को नास्तिक? हम होते कौन हैं ऐसी शिक्षाएँ देने वाले? अपना कुनबा तो संभलता नहीं हमसे. चालीस लाग चौवालिस संगठन नतीजा सिफ़र. वह हमारा नहीं उनका संगठन है. हमारी हो सकती थीं कम्युनिस्ट पार्टियाँ तो अब हो भी जाएँ तो सरकार बनाने की स्थिति में कहाँ हैं? लेकिन जो सलाह-मशविरा-उम्मीद करनी है, उनसे ही कर सकते हैं.
कांग्रेस एक मध्यमार्गी पार्टी रही है शुरू से एक हिन्दू रुझान के साथ. नेहरू को छोड़ दें तो इसके सभी नेता मंदिर जाते रहे हैं, नेहरू परिवार को ब्राह्मण क्लेम किया जाता रहा है और राहुल उसी परम्परा को बढ़ा रहे हैं. बस इतना कि एक सेकुलर आउटलुक रहा है जिसमें अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े सभी एकोमोडेट हो जाते हैं. अम्ब्रेला है तो इसके तले कुछ प्रगतिशील पल जाते हैं लेकिन ज़्यादातर ऐसे ही रहे हैं जिनके लिए भाजपा में शिफ्ट करना कभी मुश्किल नहीं. तो ये मंदिर, पूजा वगैरह तो वे करते ही रहेंगे. फ़ायदा नुक्सान की बात तो मैं क्या करूं लेकिन कुल मिलाकर वह नीति सफल ही कहूँगा. यहाँ तो हमने समाजवाद की कोख से उभरे लालू जी को बुढ़ौती में कर्मकांड करते देखा है, यह तो खैर कांग्रेस है.
मज़बूरी के जो महात्मा गांधी होते हैं वह बापू नहीं होते, उनसे काम चलाया जा सकता है उम्मीदें पालना बेकार है.