कल से सोशल मीडिया पर एक खबर चल रही है कि फ्रांस 580 करोड़ का एक राफेल लड़ाकू जहाज खरीद रहा है, कतर ने भी राफेल इसी के आसपास की दर पर खरीदा, पर हम खरीद रहे हैं, 1600 करोड़ में ! पहले हम भी लगभग 600 करोड़ के खरीद रहे थे, पर अब जब से अनिल अंबानी इस सौदे में आये हैं यह कीमत 1600 करोड़ की हो गयी। राफ़ेल विमान सौदे का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा. ताज़ा विवाद यह है कि भारत ने 36 विमानों के लिए 7.8 बिलियन यूरो पैसे दसॉल्ट को दिए हैं जबकि फ्रांस ने मात्र 2 बिलियन यूरो में 28 विमानों की खरीद की है. फ्रांस की एक समाचार वेबसाइट नेवी टाइम्स के मुताबिक फ्रांस सरकार ने दसॉल्ट एविएशन से 28 राफ़ेल विमान खरीदे हैं, जिसके लिए कुल 2 बिलियन डॉलर दिए गए हैं. समाचार के मुताबिक 2023 से फ्रांस को ये विमान मिलने शुरू हो जाएंगे. फ्रांस सरकार द्वारा खरीदा गया यह विमान भारत से अधिक उन्नत किस्म का बताया जाता है।
अमूमन हम यह मान के चलते हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी मामले में फैसले के बाद उक्त मामले से जुड़ा विवाद या तो थम जाता है या वह विवाद निरर्थक हो जाता है। पर राफेल मामले में ऐसा नहीं हुआ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर हुयी थीं, जिनमे से एक याचिका एमएल शर्मा एडवोकेट द्वारा दायर की गयी थी, जिसमे प्रार्थना की गयी थी कि इस सौदे को रद्द कर दिया जाय और दूसरी पूर्व मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और वरिष्ठ एडवोकेट प्रशांत भूषण द्वारा दायर की गयी थी, जिसमे एसआईटी गठित करके न्यायालय के पर्यवेक्षण के अंतर्गत विवेचना की मांग की गयी थी। 14 दिसंबर 2018 को अदालत ने उक्त दोनों याचिकाएं निरस्त कर दी। अदालत के फैसले से राफेल विवाद का शमन तो हुआ नहीं उल्टे फैसले पर ही नया विवाद उठ खड़ा हुआ। इस फैसले में एक संवैधानिक प्रश्न की अनदेखी की गयी है जो आज के विमर्श का विषय है।
राफेल विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने लोकतंत्र और संसद के बारे में एक नयी बहस को जन्म दे दिया है। राफेल की कीमतों के बारे में सरकार का कहना है इसकी कीमतें बताना जनहित और राष्ट्रहित में नहीं है। पर संवैधानिक प्राविधानों के अनुसार, जो भी धन व्यय किया गया है या व्यय किया जाएगा, वह राजकीय धन है जो बजट के आवंटन स्वीकृति के बाद ही व्यय किया जा सकता है। सीएजी हर खर्चे की ऑडिट करता है और रपट संसद की लोक लेखा समिति ( पीएसी ) को भेजता है। पीएसी उस व्यय का दुरुपयोग पाए जाने पर सरकार से जवाब तलब करती है और किसी विभाग की अगर उसे वित्तीय अनियमितता मिलती है वह वैधानिक कार्यवाही करती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। राफेल हो या अन्य रक्षा सौदे या अन्य खर्चे इन सबके ऑडिट की यह सामान्य प्रक्रिया है।
संसद को यह अधिकार कहां से मिला है इसकी पड़ताल करने के लिये थोड़ा देश के संवैधानिक इतिहास की ओर जाना पड़ेगा। भारतीय संवैधानिक परम्पराएं ब्रिटिश संविधान पर आधारित है। 1857 के विप्लव के विफल हो जाने के बाद, 1858 में जब ब्रिटेन की महारानी की घोषणा के अनुसार ब्रिटिश भारत ब्रिटेन के क्राउन का भाग बना तो, भारत को एक सुव्यवस्थित और अधिनियमित शासन प्रणाली मिली। भारत, अंग्रेजों का उपनिवेश था अतः अंग्रेज़ों ने इसे अपने देश जैसा उदार और स्वतंत्रचेता शासन व्यवस्था नहीं दिया। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल के ही समय उन्होंने कानून बनाने शुरू कर दिए थे। 1935 का गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट एक विस्तृत लोकतांत्रिक कानून तो बना पर उसमें भी अधिकांश निर्णायक शक्तियां ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि वायसराय के हांथ में थी। ब्रिटेन की सरकार, भारत मामलों के मंत्री के माध्यम से देश का शासन चलाती थी। 1937 में इसी एक्ट के अनुसार, असेम्बली के चुनाव हुए थे। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ और नया संविधान बना तो, 1935 का यही अधिनियम भारतीय संविधान का आधार बना।
दुनियाभर की आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था का बहुत योगदान है। उसे लोकतंत्र की जननी कहते हैं। ब्रिटेन के संवैधानिक इतिहास में 1688 ई का साल बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। ब्रिटेन का संविधान अलिखित संविधान है जो परंपराओं से विकसित हुआ है न कि किसी संविधान सभा ने उसे ड्राफ्ट और पारित किया है। आधुनिक लोकतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है कि जनता सर्वोच्च है। सारे नियम कायदे जनता के लिये और जनहित में ही बनाये जाएंगे। संघीय व्यवस्था में जनता का प्रतिनिधित्व उसके प्रतिनिधि करते हैं जो मिल कर संसद या विधानसभा का गठन करते हैं तो संसद या विधानसभा सर्वोच्च है। भारतीय संविधान में भी संसद या विधानसभा जिसे विधायिका कहते हैं सर्वोच्च है।
इंग्लैंड में 17 वीं सदी में एक विवाद खड़ा हुआ। यह विवाद इंग्लैंड की गौरव पूर्ण क्रांति के नाम से जाना जाता है। 1688 ईं की महान् अंग्रेजी क्रांति शांतिपूर्वक संपन्न हो गई और इंग्लैंड का राजा बदल गया,,इंग्लैंड की शासन व्यवस्था बदली,पर एक बूंद खून भी नहीं बहा। इसी रक्तहीनता के कारण इस बदलाव को गौरवपूर्ण क्रांति कहते हैं। सम्राट जेम्स द्वितीय द्वारा संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने के फलस्वरुप ही इंग्लैंड में 1688 ईस्वी मे यह क्रांति हुई थी। उसे अपने निरकुंश शासन संसद की अवहेलना करने तथा प्रोटेस्टैंट धर्म विरोधी नीति के कारण गद्दी छोड़नी पड़ी थी। इस गौरवपूर्ण क्रांति के फलस्वरुप इंग्लैंड में स्वछंद राजतंत्र की इमारत टूट चुकी थी। संसदीय शासन पद्धति की स्थापना हो जाने से जनसाधारण के अधिकार सुरक्षित हो गए, और राजनीतिक एवं धार्मिक अत्याचार के भय से मुक्ति पा कर लोग आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगे थे।
हमारा संविधान जब ड्राफ्ट किया जा रहा था तो हमारे संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन के इस गौरवपूर्ण क्रांति से भी प्रेरणा ग्रहण की और हमने भी यही सिद्धांत अपनाया कि संसद सर्वोच्च है। संविधान के अनुच्छेद 112 से 117 तक के प्राविधान, संसद को सरकार से धन व्यय करने के संबंध में पूछताछ करने की पूरी शक्ति प्रदान करते हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया और उसके ऑडिट पर गहन पड़ताल के लिये लोक लेखा समिति, पब्लिक एकाउंट्स कमेटी पीएसी का गठन किया गया है। पीएसी का चेयरमैन इसीलिये नेता विरोधी दल होता है, ताकि वह सरकार के व्यय की बिना किसी सरकार के प्रभाव में आये समीक्षा कर सके। एक रुपया भी बिना संसद की मंजूरी के सरकार व्यय नहीं कर सकती है। संविधान में वित्त विधेयक की मंजूरी के लिये लोकसभा ही महत्वपूर्ण है इसी लिये बजट लोकसभा में पेश होता है और उस पर बहसें एवं संशोधन होते हैं।
राफेल मामले में फैसला करते समय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में अंकित इस सिद्धांत को नज़रअंदाज़ कर यह बात मान ली कि राफेल की कीमत एक गोपनीय दस्तावेज है और इसे बताया नहीं जा सकता है। फैसले के पैरा 25 पर यह अंकित है, ” कीमतों का विवरण एक संवेदनशील प्रकरण है जिसे संसद को नहीं बताया जा सकता है ।” पैरा 25 का यह अंश संविधान की मूल भावना कि संसद से हर व्यय का अनुमोदन लेना होगा, के विपरीत है।
विधि के जानकारों के अनुसार, यह दृष्टिकोण कि कीमतों को संसद को भी नहीं बताया जा सकता , ही असंवैधानिक है और संसद के सर्वोच्चता के सिद्धांत को खंडित कर देता है। संसद के माध्यम से जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके टैक्स का पैसा कहां, किस प्रकार और किस मद में खर्च हो रहा है। अगर संवेदनशीलता की आड़ एक बार मान ली गयी तो सरकार हर व्यय को संवेदनशील बताने की कोशिश आगे कर सकती है और यह एक प्रकार से धन के दुरुपयोग को ही प्रोत्साहित करेगा। इसका एक उदाहरण सूचना के अधिकार में प्रस्तावित संशोधन से समझा जा सकता है। सरकार जिन सूचनाओं को नहीं देना चाहती और जिनसे वह असहज हो सकती है उसे संवेदनशील बता कर देने से मना करना चाहती है।
इसी फैसले में आगे यह कहा गया है कि राफेल सौदा की कीमतों का विवरण सीएजी को दिया जा चुका है और उन्होंने इसका परीक्षण करके इसे पीएसी को सौंप दिया है। पर जब यह झूठ खुला तो सरकार ने टाइपोत्रुटि का सहारा लिया और एक संशोधित हलफनामा सुप्रीम कोर्ट को सौंपा है। अभी सुप्रीम कोर्ट में शीतावकाश है जब सर्दियों की छुट्टी के बाद अदालत खुलेगी तभी यह पता लगेगा कि इस संशोधित हलफनामे पर अदालत का क्या दृष्टिकोण होता है। ऐसा लगता है कि निर्णय के पैरा 25 में दिया गया अंश इप्से दिक्सिट यानी जैसा बताया गया वैसा ही मान लिया गया है, कोई सुबूत नहीं मांगा गया और न ही उसका परीक्षण किया गया। आगे भी सभी खर्चे चाहे वे संवेदनशील बताए जा रहे राफेल खरीद से जुड़े हों या अन्य व्यय, अंततः सीएजी के पास ऑडिट के लिये भेजे ही जाएंगे और उसके बाद पीएसी यानी लोकलेखा समिति के पास परीक्षण के लिये जाएंगे और फिर जब संसद के पटल पर रखे जाएंगे तो स्वतः सार्वजनिक हो जाएंगे। सरकार का यह तर्क कीमतें सार्वजनिक करना सुरक्षा से समझौता करना है जब कि सभी को राफेल की यूपीए कालीन समझौते और अब के समझौते की कीमतें पता हैं।
इस मामले में एसआईटी गठित कर के जांच कराने के लिये पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट प्रशान्त भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। उसके जवाब में भी सरकार ने झूठा हलफनामा अदालत में पेश किया कि कीमतों के बारे में सीएजी महालेखा परीक्षक ने जांच कर लिया है और उसकी रपट को संसद की लोक लेखा समिति ने देख भी लिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मिथ्या तथ्य पर दिए गए हलफनामा और सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार के आधार पर यह याचिका रद्द कर दी। पर सत्य तो यह है कि अभी न तो सीएजी ने ऑडिट ही की है और न ही संसद की लोकलेखा समिति पीएसी को कुछ मालूम है। सरकार ने कहा कि यह टाइपोत्रुटि है। पर हलफनामे को ध्यान से पढ़े तो यह कोई टाइपोत्रुटि नहीं है बल्कि जानबूझकर किया गया है। सरकार ने इस झूठे हलफनामे के लिये भी कोई जांच नहीं करायी। और अगर करायी गयी तो क्या इसके लिये किसी अफसर को दोषी पाया गया और उसे उक्त दोष के लिये दंडित किया गया, यह भी नहीं पता है। अगर सब कुछ गुपचुप कर दिया जा रहा है तो इससे यह स्पष्ट सन्देह होता है कि सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए जवाब मे भी कुछ न कुछ गोलमाल है जिससे यह मामला और संदेहास्पद हो जाता है। अब इन्ही याचिकाकर्ताओं ने एक पुनरीक्षण याचिका भी दायर की है। वह अगर निरस्त भी हो जाती है तो भी संदेह उतपन्न करने वाले विंदु अंकुश की तरह ज़ीवित ही रहेंगे
जब विपक्ष का दबाव बढ़ा तो सरकार इस मामले पर संसद में चर्चा कराने को राजी हुयी। संसद में राहुल गांधी ने अपने उन्ही सवालों को प्रमुखता से उठाया जो वे पहले भी उठाते रहे हैं। वे सवाल 126 विमानों के सौदे को रद्द कर के 36 विमानों तक सीमित करने, एचएएल को साझीदार बनाने के बजाय अनुभवहीन अनिल अंबानी की कम्पनी को साझीदार बनाने, सॉवरेन गारंटी की शर्त समाप्त करने और कीमतों में तीन गुनी वृद्धि करने के हैं। सवालों पर वित्तमंत्री अरुण जेटली और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने भी जवाब दिए। बहस दो दिन चली फिर भी उपरोक्त सवाल आज तक अनुत्तरित हैं। विपक्ष की मांग यह है कि संयुक्त संसदीय समिति का गठन कर दिया जाय और उसी को इस सम्बंध में इन सारे सवालों का उत्तर ढूढ़ने और संदेह को दूर करने की जिम्मेदारी दे दी जाय। लेकिन सरकार संयुक्त संसदीय समिति जेपीसी के गठन पर राजी नहीं है। एक महत्वपूर्ण बात और है कि इस सौदे में सबसे प्रमुख भूमिका प्रधानमंत्री जी की स्वयं है। पर वे बहस के दिन संसद में नहीं थे। आरोप भी उपरोक्त सवालों के संदर्भ में उन्हीं पर हैं। जवाब भी उन्हें ही देने चाहिये।
इस मामले में एक ऑडियो टेप भी चर्चा में है, जिसमे कहा गया है कि राफेल से जुड़ी फाइल गोवा के मुख्यमंत्री और पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर के शयन कक्ष में है। नेताओं की साख इतनी गिर चुकी है कि इसे सभी सच और प्रमाणित मांग रहे हैं। पर सत्तारूढ़ दल और सरकार, को टेप की प्रमाणिकता पर सन्देह है और हो सकता है यह सन्देह सच भी हो। सरकार को चाहिये कि वह इस टेप की प्रमाणिकता की जांच कराए। जब तक जांच नहीं होगी और सच सामने नहीं आएगा राफेल के मामले में और भी भ्रम फैलता जायेगा। राफेल का विरोध राजनीतिक कारणों से भी हो सकता है किया जा रहा हो। यह कोई अजूबा नहीं है। सरकार के समर्थन और विरोध का उद्देश्य ही राजनीति होती है।
सरकार खुद ही राजनीति का एक परिणाम है। सरकार को चाहिये कि वह एक एक सन्देह के विंदु की जांच करा के जनता के सामने रख दे। सरकार और सत्तारूढ़ दल का यह दावा क़ि, यह सरकार पिछली सरकार से ईमानदार है तो वह ईमानदारी दिखनी भी चाहिये। यूपीए 2 के अपदस्थ होने का एक बड़ा कारण 2जी, सीडब्ल्यूजी, कोयला,वाड्रा भूमि आदि घोटाले थे। उन सब की जांच हुई। जेपीसी बैठी। मुक़दमा भी चला। पर अब राफेल मामले में सरकार ऐसा नहीं कर इसे वह, सुरक्षा कारणों से जोड़ रही है, जबकि बोफोर्स और ऑगस्टा वेस्टलैंड मामले की जांच हुई। जब उपरोक्त मामलों की जांच हो सकती है तो राफेल को ही क्यों इतना पवित्र माना जा रहा है कि उसकी जांच नहीं हो सकती है ? जांच से भागना, और सन्देह को और प्रबल बनाता है।
इस सौदे में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद मोदी की ही है। इसमे न रक्षा मंत्री शामिल हैं और न कोई और। 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री फ्रांस जाते हैं और 126 विमानों का सौदा रद्द होता है, नया सौदा 36 विमानों का होता है, तकनीकी हस्तांतरण का प्राविधान रद्द होता है और उसके स्थान पर सभी विमान उड़ने योग्य आने की बात तय होती है, विमान की कीमत पहले से तीनगुनी हो जाती है, एचएएल, जिसे दसाल्ट के सीईओ ने 25 मार्च 2015 को बैंगलुरू में समारोहपूर्वक यह घोषित किया था कि अब एचएएल के साथ बस करार पर दस्तखत होना बाकी है, अचानक इस सौदे से हट जाता है और अनिल अंबानी जिनकी कंपनी केवल पन्द्रह दिन पहले गठित है उसे दसाल्ट अपना ऑफसेट पार्टनर चुन लेती है। यह तर्क सही है कि दसाल्ट को अपनी मर्ज़ी से ऑफसेट पार्टनर चुनने का अधिकार है। पर डसाल्ट जैसी बडी और स्थापित कंपनी जब एविएशन के क्षेत्र में बिल्कुल नयी, बिना ज़मीन की कंपनी को जो महज कुछ हफ्ते पहले ही बनी है चुनती है तो यह निर्णय और भी अधिक संदेहास्पद हो जाता है।
ऊपर से फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने सुझाया था, और दसाल्ट के सीईओ एरिक ट्रेपियर का यह झूठ कि रिलायंस के साथ तो 2012 से ही बात चल रही थी केवल सन्देह को ही जन्म देता है। ओलांद ने आज तक अपने बयान का खंडन नहीं किया है। यह अलग बात है कि हम इसे नजरअंदाज कर जाएं। सरकार को चाहिये कि वह इस मामले में जेपीसी गठन कर के जांच कराए और जो भी सन्देह हों उनका निराकरण करें। जितना ही सरकार इस मामले की जांच से भागेगी उतनी ही वह दोषी समझी जाएगी है। ऐसी धारणा जनता में बन रही है। आज की तारीख में देश मे कोई भी राजनेता या राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसे अभ्रष्टनीय ( incortuptible ) माना जा सके। नरेंद मोदी और भाजपा भी अपवाद नहीं है। साफ हैं तो साफ दिखिये भी।
संसद में यह बहस आज भी चल रही है। सरकार अपने जवाब से विपक्ष को संतुष्ट नहीं कर पायी। आज ही 7 जनवरी 19 को कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने नियम 193 के अंतर्गत जेपीसी गठित करने की नोटिस दी। धीरे धीरे और विपक्षी दल भी इस मांग के साथ जुड़ रहे हैं। चूंकि यह चुनावी वर्ष है अतः यह मामला जानबूझकर भी गरमाया जाता रहेगा। अब यह सरकार को सोचना है कि कैसे वह खुद को इन आरोपों से बचाते हुये आगे बढ़ती है। जब निशाने पर सरकार के प्रधानमंत्री ही हों तो दुनिया मे किस लोकतांत्रिक देश का विपक्ष ऐसे अवसर पर चुप बैठा रहेगा ?.वह तो आरोप भी लगाएगा और आरोप अतिशयोक्ति पूर्ण भी हो सकते हैं। यह सरकार का दायित्व और उसकी कुशलता है कि वह इस धार को कैसे कुंद करे और खुद को बेदाग बचा ले जाये। पर वर्तमान सरकार अपनी जिद, अहंकार और अकुशल पैंतरे से रोज़ कुछ न कुछ ऐसे कार्य कर दे रही है जिससे यह मामला और संदेहास्पद होता जा रहा है।
सरकार ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में तो टाइपोत्रुटि और हलफनामा तैयार करने वाले अफसर के खिलाफ न तो कोई कार्यवाही किया, न ही ऑडिओ टेप के बारे में कोई जांच करायी, न ही सुप्रीम कोर्ट में गलती सुधार के लिये जल्द सुनवायी की बात आज तक कही, न ही फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद के बयान पर पीएम ने कोई विरोध दर्ज कराया, न ही ओलांद को खंडन जारी करने के लिये कहा, और न ही मिडियापार्ट के खुलासे पर उक्त अखबार से विरोध दर्ज कराया, बस आरोप का जवाब दिया तो आरोपों से। जब आरोप का जवाब आरोपों से मिलता है तो शक और गहरा हो जाता है । संदेह की कीचट बहुत मुश्किल से साफ होती है। विपक्ष तो हर मसले पर आरोप लगाएगा, गलत सही बातें कहेगा। पर यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह खुद को साफ साबित कर के विपक्ष को गैरजिम्मेदार ठहरा दे। अब सरकार खुद को किस प्रकार साफ प्रमाणित करती है यह सरकार को देखना है। लोकतंत्र में सरकार चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है और सरकार के गलतियों को उजागर करने की जिम्मेदारी विपक्ष की रहती है।