पुलिस राजनीतिक एजेंडा लागू करने का उपकरण नहीं है

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जब भी कभी आदिम युग के बाद सरकार या राज्य की अवधारणा की गयी होगी तो राज्य का पहला उद्देश्य ही, समाज मे शांति की स्थापना रहा होगा। राज्य या शासन के सामर्थ्य का पैमाना ही यह है कि लोग समाज में शांति और निश्चिंतता से रह सकें। पुलिस के इतिहास के अवलोकन के क्रम में,  प्राचीन भारतीय इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख आता है। यह पुलिस का आदिम स्वरूप था। डंडे और पुलिस का यही स्वरूप आज भी पुलिस का नाम लेते ही सामने आ जाता है। भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकास क्रम में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस CE POLITIजन के समकक्ष माना जा सकता है। प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था। नगर कम थे और जो थे वे मुख्यतः राजधानी थे, यानी राजा वहां बैठता था पर जनता का अधिकतर भाग गांवों में ही निवास करता था। गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थे। इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे।
यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे। यह लोकतंत्र का प्रारंभिक स्वरूप था, जो बाद में धीरे धीरे वंशानुगत हो गया और राजतंत्र के विकास का आमुख बना। ग्रामिकों के ऊपर 5 से10 गाँवों की व्यवस्था के लिए “गोप” एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए “स्थानिक” नामक अधिकारी होते थे। यह व्यवस्था लंबे समय तक रही। जब सिकन्दर का आक्रमण हुआ तो उसके साथ और उसके बाद आये इतिहासकारों ने ग्रामीण पुलिसिंग की इस व्यवस्था का उल्लेख किया है। कोई लिपिबद्ध विधि व्यवस्था नहीं थी। तत्कालीन समाज के जो नैतिक नियम थे उन्हीं का पालन होता है। दंड आदि का स्वरूप बहुत जटिल नहीं था। पर साक्ष्य प्रस्तुत करने, साक्ष्य के परीक्षण हेतु पूछताछ करने और दोषी का अपराध प्रमाणित करने की प्रथा थी जो आज के न्यायशास्त्र के  आधार के रूप में देखी जा सकती है।
सन 1205 में जब देश मे मुस्लिम सत्ता की शुरुआत हुयी तो समय के अनुसार, पुलिस व्यवस्था में भी बदलाव आया। अध्ययन की सुविधा और कालखंड के लिहाज से मुस्लिम काल दो खंडों, सल्तनत और मुगल काल में बांटा गया है। सल्तनत काल मे सत्ता परिवर्तन जल्दी जल्दी हुआ और सत्ता में स्थायित्व न रहने के कारण प्रशासनिक व्यवस्था जिसका एक अंग पुलिस भी है को बहुत मजबूती प्रदान नहीं की जा सकी। वह युद्धों का काल था। तब शासक का मुख्य कार्य ही अपने राज्य का विस्तार करना और उसे दूसरा न हड़प ले उससे बचाये रखना था। मुगल काल की शासन प्रणाली आने तक ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की चली आ रही परंपरा ही अक्षुण्ण रही।
मुगल काल में ग्राम के मुखिया को मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य और दायित्व सौंपा गया, तो वे यह काम ग्राम चौकीदारों की सहायता से सम्पन्न किया करते थे। उस समय के  चौकीदारों की दो श्रेणियां थीँ।  उच्च, और साधारण। उच्च श्रेणी के चौकीदार अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे और ग्राम में व्यवस्था रखने में सहायता देते थे। उनका यह भी कर्तव्य था कि एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक यात्रियों को सुरक्षापूर्वक पहुँचा दें। लोगों का आवागमन अबाध और बिना लुटे पिटे होता रहे यह उस क्षेत्र की कानून व्यवस्था का पैमाना भी माना जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लिखित एक श्लोक में यह स्पष्ट कहा गया है कि
” जिस राज्य में रात्रि में कोई युवती षोडश श्रृंगार कर के अपने आभूषणों के साथ अकेले निकले और अपने गंतव्य तक सुरक्षित पहुंच जाए तो समझना चाहिये कि उस राज्य की कानून व्यवस्था दुरुस्त है। ”
यह मापदंड अतिरंजना लग सकती है और है भी, पर राज्य से ऐसे ही सुरक्षित परिवेश की आशा की जाती है। मुगलकालीन व्यवस्था में साधारण कोटि के चौकीदारों द्वारा फसल की रक्षा और उनकी नाप जोख का कार्य भी किया जाता था। गाँव का मुखिया न केवल अपने गाँव में अपराध शासन का कार्य करता था वरन् समीपस्थ ग्रामों के मुखियों को उनके क्षेत्र में भी अपराधों के विरोध में सहायता प्रदान करता था। शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी।
मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही। यह अवश्य हुआ कि शासन की ओर से नियुक्त अधिकारियों की शक्ति क्रमश: लुप्तप्राय होती गई। सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया। लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधियों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है। इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिस क्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय। इस प्रकार थाना और दारोगा शब्द और पद का उद्भव हुआ। बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया। ब्रिटिश शासन में पुलिस का कार्य केवल कानून व्यवस्था को ही बनाये रखने का नहीं था, बल्कि उसका कार्य भू राजस्व के वसूलने में कलेक्टर की सहायता करना भी था अतः वह कलेक्टर के अधीन रखी गयी।
कानून व्यवस्था एक ऐसा शब्द है जो आए दिन खबरों की सुर्खियों में रहता है। अखबारों की सबसे पसंदीदा सुर्खियां अपराधों से जुड़ी खबरें रहती हैं। लॉ एंड आर्डर, अंग्रेजी में कानून व्यवस्था का यह शब्द केवल खबरों के लिहाज से ही नहीं बल्कि सामाजिक तौर पर भी महत्वपूर्ण है । किसी भी राज्य के शासन को अच्छा या बुरा मापने का पैमाना ही उस राज्य की कानून और व्यवस्था की स्थिति का आकलन है। बेहतर कानून व्यवस्था राज्य के प्रभावी शासन, अच्छे समाज और माहौल को प्रदर्शित करती है। कानून व्यवस्था के लिये भारत के प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश का अपनी अपनी अलग पुलिस होती  है। इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था।
वर्तमान काल में हमारे देश में अपराध निरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है। पुलिस व्यवस्था के लिये समय समय पर अनेक कानून बनते रहे हैं, पर मूल कानून 1861 का पुलिस एक्ट ही है।
पुलिस के इतिहास, पृष्ठभूमि और समय समय पर सुधार के प्रयास का विवरण यहां इस लिये दे दिया गया है ताकि प्रशासन के इस सबसे महत्वपूर्ण अंग के बारे में आप को इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी मिल सके। यहां उल्लिखित इतिहास के कतिपय अंश डॉ एपी गुप्त आईपी जो यूपी पुलिस के आईजी रह चुके हैं द्वारा लिखी पुस्तक पर आधारित है।
1861 के पुलिस एक्ट के अंतर्गत ही, राज्यों की पुलिस के पास कानून और व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है.। संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत ‘पुलिस’ और ‘लोक व्यवस्था’ राज्य के विषय हैं। राज्य में  अपराध रोकना, अपराध हो जाने पर उसका पता लगाना, अपराध दर्ज करना, विवेचना करना और अपराधियों के विरुद्ध मुकदमा चलाने की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों और पुलिस की है।संविधान के मुताबिक ही केन्द्र सरकार पुलिस के आधुनिकीकरण, अस्त्र-शस्त्र, संचार, उपस्कर, मोबिलिटी, प्रशिक्षण और अन्य अवसंरचना के लिए राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है.
कानून व्यवस्था और अपराधों से संबंधित घटनाओं को रोकने के लिए केन्द्रीय सुरक्षा और सूचना एजेंसियां राज्य की कानून और प्रवर्तन इकाईयों को नियमित रूप से जानकारी देती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) गृह मंत्रालय की एक नोडल एजेंसी है, जो अपराधों को बेहतर ढंग से रोकने और नियंत्रित करने के लिए राज्यों की सहायता करती है. और राज्यों को अपराध संबंधी आंकड़े जुटाने और उनका विश्लेषण करने का कार्य करती है। अपराध अपराधी सूचना प्रणाली (सीसीआईएस) के तहत देश के सभी जिलों में जिला अपराध रिकार्ड ब्यूरो (डीसीआरबी) और राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एससीआरबी) को कंप्यूटरीकृत प्रणाली से जोड़ दिया गया है. यह प्रणाली अपराध रोकने, उनका पता लगाने और सेवा प्रदाता तंत्रों में सुधार करने में सहायक है. इसकी मदद के पुलिस और कानूनी प्रवर्तन एजेंसियां अपराधों, अपराधियों और अपराध से जुड़ी संपत्ति का राष्ट्र स्तरीय डाटाबेस रखती हैं.
भारत की पुलिस 158 साल पुराने पुलिस अधिनियम के तहत ही काम कर रही है। आजादी के बावजूद किसी ने 1861 के पुलिस अधिनियम में बदलाव की जरूरत नहीं समझी। देश में पुलिस सुधारों पर बहस बहुत पुरानी है। वर्ष 1902-03 में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय पुलिस आयोग ने इस दिशा में पहला प्रयास किया था. उसके बाद इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर छह और राज्य स्तर पर पांच आयोगों का गठन किया जा चुका है. लेकिन उन सबकी सिफारिशें फाइलों में धूल फांक रही हैं। इसके पक्ष में आवाज तो तमाम राजनीतिक दल उठाते हैं. लेकिन जब इससे संबंधित सिफारिशों पर अमल करने की बात आती है तो सब बगलें झांकने लगते हैं। वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद पुलिस सुधार की सिफारिशों के लिए धरमवीर की अध्यक्षता में 15 नवंबर, 77 को राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था. आयोग ने चार साल बाद अपनी रिपोर्ट देने की शुरूआत की. मई,1981 तक इसने कुल आठ रिपोर्ट्स दीं. लेकिन उससे पहले वर्ष 1980 में ही जनता पार्टी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई. उसके बाद आयोग पर ही संकट के बादल मंडराने लगे.
आयोग की रिपोर्ट में हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन करने, उसके जांच कार्यों को शांति व्यवस्था संबंधी कामकाज से अलग करने और पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिए एक खास प्रक्रिया अपनाने की सिफारिश की गई थी ताकि इस पद पर योग्यतम उम्मीदवार का चयन किया जा सके. उसने पुलिस प्रमुख का कार्यकाल तय करने और एक नया पुलिस अधिनियम लागू करने का भी सुझाव दिया था. लेकिन इनमें से ज्यादातर सिफारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. दरअसल, सत्ता में आने वाली हर सरकार पुलिस के पुराने ढांचे को बनाए रखना चाहती थी कि ताकि वह इस सुरक्षा बल का मनमाने तरीके से इस्तेमाल कर सके. हालांकि उसके बाद भी इसी काम के लिए कई समितियों का गठन किया गया।
उत्तर प्रदेश व असम में पुलिस प्रमुख और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर अपील की थी कि तमाम राज्यों को राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्देश दिया जाए. इस याचिका पर एक दशक तक चली सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कई आयोगों की सिफारिशों का अध्ययन कर आखिर में 22 सितंबर, 2006 को पुलिस सुधारों पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राज्यों के लिए छह और केंद्र के लिए एक दिशानिर्देश जारी किए।
इनमें पुलिस पर राज्य सरकार का प्रभाव कम करने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करने, पुलिस महानिदेशक, आईजी और दूसरे वरिष्ठ अधिकारियों का न्यूनतम कार्यकाल दो साल तय करने, जांच और कानून व्यवस्था की बहाली का जिम्मा अलग-अलग पुलिस इकाइयों को सौंपने, सेवा संबंधी तमाम मामलों पर फैसले के लिए एक पुलिस इस्टैब्लिस्टमेंट बोर्ड का गठन करने और पुलिस अफसरों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन करने जैसे दिशानिर्देश शामिल थे. अदालत ने केंद्र सरकार को केंद्रीय पुलिस बलों में नियुक्तियों और कर्मचारियों के लिए बनने वाली कल्याण योजनाओं की निगरानी के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन का भी निर्देश दिया था. लेकिन अब तक इसका गठन नहीं हो सका है। कुछ राज्यों ने इसका गठन किया तो है पर वह भी एक प्रकार की फ़र्ज़ अदायगी ही है।
पुलिस अपने संगठन और कर्मियों की तमाम बुराइयों के बाद भी किसी भी सरकार की रीढ़ होती है। उसकी मजबूती और उसकी कमज़ोरी किसी भी सरकार को हटा बढ़ा सकती है। इसका कारण जनता के संपर्क में रहने वाले सबसे प्रमुख विभागों में से इसका सबसे महत्वपूर्ण होना भी है। अपराध का बढ़ना, कानून व्यवस्था का बिगड़ना आदि ऐसे सर्वकालिक मुद्दे हैं जो हमेशा सरकार को असहज करते रहते हैं पर सरकार बदलते समय, सामाजिक विन्यास और ज़रूरतों के अनुसार पुलिस की बढ़ती समस्याओं को पुलिस के ही मुद्दे पर आने वाली सरकार उसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर जाती है। पर यह कटु सत्य है कि कोई भी सरकार पुलिस सुधार के प्रति संवेदनशील नहीं है। पुलिस सुधार का आशय केवल पुलिसजन की बढ़ती तनख्वाह, सुविधाएं और कुछ कॉस्मेटिक परिवर्तन लाना ही नहीं होता है बल्कि पुलिस को उन स्वार्थी राजनैतिक दखलंदाजी से अलग करना भी होता है, जो राजनेताओं द्वारा उन पर अपने हित लाभ हेतु गैरकानूनी कार्य करने के लिये बाध्य किया जाता है। अनावश्यक राजनैतिक दखलंदाजी का असर कानून व्यवस्था पर सीधा पड़ता है और इसका परिणाम अपराध स्थिति पर होता है।
हर चुनाव में विरोधी दल सत्तारूढ़ दल के काल मे घटी अपराध की घटनाओं का उदाहरण देकर यह उम्मीद जगाते हैं कि आने वाली सरकार अपराध और कानून व्यवस्था के सवाल पर उल्लेखनीय काम करेगी। खुद उत्तर प्रदेश में भी यही हुआ। 2016 के चुनाव में जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब यह कहा गया कि कानून व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। तब दंगे और अन्य बड़ी घटनाएं भी हुयी थीँ। समाजवादी पार्टी से जुड़े लोगों के बारे में आम धारणा यह थी कि ये उद्दंड और पुलिस पर अनावश्यक दबाव डाल कर अपराध कराते हैं। भाजपा की क्षवि अपराध के मामले में बेहतर थी या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता है पर लोगों को यह ज़रूर लगा था कि यह उनसे बेहतर होंगे। परिणामस्वरूप स्वरूप सरकार बदली तो भाजपा सरकार में आ गयी। नए मुख्यमंत्री बनते ही सबका लगभग एक ही प्रकार का बयान आता है कि कानून व्यवस्था को सुधारा जाएगा। वर्तमान मुख्यमंत्री भी इस बयान के अपवाद नहीं निकले। पर बयान तो बयान ही रहता है। स्थिति सुधार के नाम पर कुछ तबादले, कुछ पदोन्नतियां, कुछ दंड और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं होता है।
जनता की अपेक्षा पुलिस व्यवस्था में सुधार हेतु बढ़ी ही रहती है। वह यह सोचती है कि नयी सरकार आते ही सब बदल जायेगा पर बदलता कुछ भी नहीं है। फिर सब जस का तस हो जाता है। फिर बैतलवा डार के डार । इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार तबादले कर के परिवर्तन की उम्मीद तो करती है, क्षणिक परिवर्तन होता भी है पर ढर्रा नहीं बदलता है। क्योंकि घूमफिरकर सरकार और सत्तारूढ़ दल फिर पुलिस को ही अपना राजनैतिक एजेंडा की पूर्ति का साधन समझने लगता है।
राजनीतिक दलों को विशेषकर सत्तारूढ़ दल को चाहिये कि वे अपने दल के लोगो को यह स्पष्ट निर्देश दें कि वे कम से कम कानून का तो पालन करें। सत्ता में रहने की हनक दिखाने के चक्कर मे ये राजनीतिक दल के कार्यकर्ता अपना ही नुक़सान करते हैं। दिन प्रतिदिन अखबारों में पुलिस के साथ उनकी अभद्रता की खबरें, थानों में घुस पर बदतमीजी आदि से जुड़ी खबरें न केवल पुलिसजन को उत्तेजित करती हैं बल्कि उन्हें अनुशासनहीन भी बना देती हैं। इसमें कोई भी दो राय नहीं है कि पुलिस में अनुशासनहीनता बढ़ी है। पर इस अनुशासनहीनता के बढ़ने का एक कारण पुलिसजन का राजनीतिक दलगत प्रतिबद्धता और धर्म तथा जाति के विभिन्न खांचों में बंट जाना भी।
सरकार को जब भी पुलिस विभाग के बारे में अपनी नीतियां बनानी होगी उसे यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि पुलिस सीधे तौर पर सरकार के अधीन रहते हुये भी वह सरकार के अधीन नहीं है। सरकार एक प्रशासनिक बॉस है पर पुलिस का मुख्य कार्य कानून को कानूनी प्राविधान के अनुसार ही लागू करना है। लेकिन राजनीतिक दलों के लोग यह मुगालता पाल लेते हैं कि पुलिस तो सरकार के अधीन है और सरकार उनके दल की है तो पुलिस उनके अधीन है। दलों के नेताओं को पुलिस व्यवस्था के गठन का यह महीन अंतर समझना होगा।
सरकार विकास के कई कार्यक्रम चलाती है। विकास के यह कार्यक्रम राजनीतिक दलों की विचारधारा से प्रभावित होकर दल विशेष के एजेंडे के अनुसार चलाये जा सकते हैं और चलाये भी जाते हैं। कमज़ोर वर्ग और स्थान के लिये कुछ खास योजनाएं अभिकल्पित की जा सकती हैं और उन्हें मूर्तिमान किया भी जा सकता है पर पुलिस विकास के अन्य विभागों की तरह एक विभाग नहीं है। यह राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति का कोई उपकरण नहीं है। यह समाज को अनुशासित, विधिनियमित, अपराध मुक्त रखने का एक उपादान है और इस प्रकार यह सरकार के अधीन रहते हुए भी सरकारी दल के एजेंडे की स्वार्थपूर्ति से अलग है। जिसदिन इसे पोलिटिकल एजेंडा लागू करने की एक मशीनरी मान लिया जाएगा उसी दिन से पुलिस जिन कामों और दायित्व के लिये गठित की गयी है, उससे अलग हट जाएगी और राज्य एक पुलिस स्टेट बन जायेगा।
पुलिस स्टेट से तात्पर्य यह है कि एक ऐसी पुलिस जो कानूनी प्राविधानों को कानूनी तौर पर लागू करने के बजाय उसे सरकार, सत्ता, और सत्तारूढ़ दल की मर्ज़ी, सनक और हनक के आधार पर लागू करती है। सरकार को स्वयं यह बराबर ख्याल रखना होगा कि पुलिस व्यवस्था निर्धारित विधि विधान से विचलित न हो और कोई भी राजनीतिक दल चाहे वह सत्तारूढ़ दल ही क्यों न हो पुलिस को अपने एजेंडे के अनुसार कमांड न कर सके।
हम अक्सर बढ़ते अपराध और बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति के लिये पुलिस को जिम्मेदार ठहराते हैं। पुलिस को जिम्मेदार ठहराने पर कोई आपत्ति भी नहीं है। पर यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि पुलिस आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अंग है जो अपराध के निरोधात्मक और गवेषणात्मक दोनों पहलुओं के लिये जिम्मेदार है पर अगर मुल्ज़िम को सज़ा न मिले, सज़ा न मिलने का कारण अगर गवाहों का टूट जाना रहे तो ऐसी परिस्थितियों में पुलिस फिर क्या करे।
न्यायालय, जेल, और पुलिस ये तीनों जब तक आपसी तालमेल से मिलकर अपराधिक न्याय व्यवस्था की हर कड़ी को मजबूत नहीं करेंगे तब तक अपराध और कानून व्यवस्था को बनाये रखना संभव ही नहीं होगा। चूंकि हर मामले में पुलिस ही सामने दिखती है अतः उसकी जिम्मेदारी अधिक नज़र आती है। लेकिन मेरे यह कहने का आशय बिल्कुल नहीं है कि पुलिस त्रुटि रहित है और वह अपना काम बखूबी कर रही है। पुलिस भी समाज से ही आती है। समाज के और सभी मानवीय गुणों और अवगुणों से यह भरी हुयी है, इसीलिए समय समय पर उन कानूनों में संशोधन करना आवश्यक है जिनसे पुलिस को अधिकार और शक्तियां मिलती हैं। राजनीतिक दलों को यह बात समझ लेनी पड़ेगी कि पुलिस उनके राजनीतिक विचारधारा से जुड़े एजेंडे को लागू करने का एक साधन नहीं है और न ही एक माध्यम है। वह समाज भयमुक्त होकर विधिविधान से चले इसीलिए पुलिस जैसी व्यवस्था की अवधारणा की गयी है।
© विजय शंकर सिंह