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व्यक्तित्व – वो बिहारी साहित्यकार, जिसने अपना जीवन भोपाल में गुजार दिया

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जैसा की आप जानते ही होंगे की गूगल कुछ खास मौक़ो पर ही अपना डूडल जारी करता है। आज से ठीक दो साल पहले आज की ही तारीख़ को मतलब 1 नवम्बर 2017 को गूगल ने अपना डूडल अब्दुल क़वी देसनवी को समर्पित किया था, आख़िर क्यों ? क्या है इनके बारे में ख़ास जो गूगल ने इन्हे याद किया है। आईए जानते हैं।
मशहूर वेब पोर्टल हेरिटेज टाइम्स के एडिटर उमर अशरफ़ और साहित्य पर गहरी पकड़ रखने वाले अब्दुर रशीद इब्राहिमी साहब लिखते हैं के अब्दुल क़वी देसनवी को उनकी उर्दू में लिखी गयी साहित्यिक पुस्तकों के लिए जाना जाता है;  उन्होने भारत में उर्दू साहित्य के प्रोत्साहन में अहम भूमिका निभाई।
अब्दुल क़वी देसनवी का जन्म बिहार के नालंदा ज़िले के देसना गांव में 1 नवम्बर 1930 को हुवा था। अब्दुल क़वी का जन्म प्रमुख मुस्लिम विद्वान सैयद सुलैमान नदवी के परिवार में हुआ था। सैयद सुलैमान नदवी ने हजरत मोहम्मद(स०) की जीवनी ‘सीरतुन्नबी’ लिखी थी, जिसे भोपाल की बेगम ने प्रकाशित करवाया था।
अब्दुल क़वी देस्नवी के वालिद साहब का नाम सैयद मुहम्मद सईद रज़ा था जो सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई मे उर्दू, फ़ारसी और अरबी के प्रोफ़ेसर थे। अब्दुल क़वी देसनवी ने शुरुआती तालीम आरा से हासिल करने के बाद ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई से किया जहां आपके वालिद प्रोफ़ेसर थे।

अब्दुल क़वी देसनवी ने अल्लामा इक़बाल , मौलाना आज़ाद और मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िन्दगी पर कई किताबें लिखीं उनकी कुछ रचनाएं कुछ इस तरह हैं

इक़बाल भोपाल मे, भोपाल और ग़ालिब, सात तहरीरे, इक़बाल उन्नीसवी सदी मे, इक़बाल और दिल्ली, मुतालाए ग़ुब्बारे ख़ातिर, अबुल कलाम आज़ाद, यादगार-ए-सुलैमान, एक शहर पांच मशाहीर, मता-ए-हयात (जीवनी), बंबई से भोपाल तक, उर्दू शायरी की ग्यारह आवाजें, इकबाल की तलाश, इकबाल और दारुल इकबाल भोपाल, तलाश-ओ-तास्सुर, सात तहरीरें, मुताला खुतूत-ए-गालिब, हसरत की सियासी जिंदगी, एक और मशरिकी कुतुबखाना, वग़ैरा। और भी दर्जन भर किताबे हैं। जिनकी तादाद पचास से अधिक है। अपने पचास साल के केरियर मे अब्दुल क़वी देसनवी ने उर्दु की बहुत ख़िदमत की। इसके अलावा उन्होंने कई कविताएं और फिक्शन भी लिखा।
अब्दुल कवी देसनवी के शागिर्द मे जावेद अख़्तर (हिंदी फिल्मों में गीतकार), कवी मुश्ताक़ सिंह, इक़बाल मसुद, प्रो मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, सेलानी सिलवटे, प्रो ख़ालिद महमूद सहित सैकड़ो नामी हस्तियां रही हैं। उर्दू के मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी अब्दुल कवी देसनवी के साथियों मे से थे।
बहुत सारे अवार्ड भी अपने झोली मे रखने वाले अब्दुल क़वी देसनवी साहब नवाब सिद्दीक़ी हसन ख़ान अवार्ड भोपाल, बिहार उर्दू एकेडमी अवार्ड, आल इंडिया परवेज़ शहीदी अवार्ड वेस्ट बंगाल से नवाज़े गए हैं।
अब्दुल क़वी देसनवी पैदा बिहार के एक गांव मे हुए पर पढ़ाई मुम्बई मे की और अपने जीवन के पचास साल भोपाल मे गुज़ारा। पहली बार उन्होने भोपाल का नाम बचपन मे सुना था; वही 1946 के आस पास जब देसना के रहने वाले मुस्लिम विद्वान सैयद सुलैमान नदवी भोपाल रियासत के क़ाज़ी थे।
उनके केरियर को नया आयाम मिला फ़रवरी 1961 मे; जब वो भोपाल के सैफ़िया कॉलेज से जुड़े और जल्द ही उर्दू भाषा के प्रोफ़ेसर हो गए साथ ही वहां के उर्दू डिपार्टमेनट के हेड बनाये गये।

  • 1977-78 के दौर मे कुल हिन्द अंजुमन तरक़्की ए उर्दु के मेम्बर भी रहे।
  • 1979 से 1984 तक मजलिस ए आम अंजुमन तरक़्की ए उर्दु (हिन्द) के चुने हुए मेम्बर रहे।
  • 1978 से 1979 के दौरान ऑल इंडिया रेडियो भोपाल के प्रोग्राम एडवाईज़री कमिटी के मेम्बर भी रहे।
  • 1977 से 1985 के बीच चार साल बरकतुललाह यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ़ स्टाडीज़ उर्दु, पर्शयन एैंड अरेबिक के चेयरमैन रहे।
  • 1980 से 1982 तक बरकतुललाह यूनिवर्सिटी के आर्ट फ़ैकल्टी के डीन रहे और साथ ही बरकतुललाह यूनिवर्सिटी के इसक्युटिव कांसिल के मेम्बर भी(1980–1982) के दौरान रहे
  • इसके बाद 1983 से 1985 तक सैफ़िया कॉलेज भोपाल के प्रिंसपल रहे।
  • अब्दुल क़वी देसनवी 1990 में अपने पद से रिटायर हुए।
  • साथ ही1991- 92 मे मध्यप्रदेश उर्दू बोर्ड के सेक्रेटरी रहे।
  • 7 जुलाई 2011 को भोपाल में उर्दु के इस अज़ीम सिपाहसालार ने दुनिया को अलविदा कहा।

देसना है जिसका नाम, यही गांव है हुज़ुर
जिसकी मची है धुम बहुत दुर दुर तक

अब्दुल क़वी देसनवी जिस गांव के रहने वाले थे वो अपने आप में अनूठा था। इस गांव की संस्कृति व विरासत बिलकुल अलग थी। सबसे अहम बात इस गांव में स्थित अल-इस्लाह उर्दू लाइब्रेरी जिसे देखने कभी देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद व तत्कालीन राज्यपाल डॉ.ज़ाकिर हुसैन भी इस गांव में पहुंचे थे।
एशिया के सबसे बड़े इस्लामिक स्कॉलर सैयद सुलैमान नदवी(र.अ) के गांव के नाम से मशहुर देसना बिहारशरीफ़(ज़िला हेड क्वाटर) से लगभग 14 किलोमीटर दूर स्थित है। ये गांव सड़क से काफ़ी दुर है तो रेलवे स्टेशन कहां से होगा ? फिर भी इस गांव ने इतने बड़े बड़े स्कॉलर पैदा किए जिसका आज भी कोई सानी नही; इस गांव के बारे में ऐसे तो बहुत सारी बातें कही जाती थीं जिसमें से कुछ है ‘एक पत्थर भी ज़रा संभल कर मारो यारो, नहीं तो पता नहीं किसी ग्रेजुएट के सर पर गिर जाए’, ‘अगर कुछ नहीं बना तो कम से कम दरोग़ा ज़रूर बनेगा’। एैसी बहुत सारी कहावतें इस गांव के लिए मशहूर थीं।
इस गांव की एक ख़ास बात यह थी के इस गांव में सात दरवाज़ा हुआ करता था जिससे हाथी गुजरने भर की जगह हुआ करती थी। दरवाज़ा बंद तो गांव सुरक्षित। पर अक्तुबर 1946 के फ़साद के बाद सब ख़त्म, बड़ी तादाद में लोग हिजरत कर गए। अब्दुल क़वी देसनवी भी उसी मे एक थे।
देस्ना में एक अल – इस्लाह नाम की एक मशहूर लाइब्रेरी हुआ करती थी जो उस वक़्त में कुछ बड़ी और बेहतरीन लाइब्रेरियों में शुमार थी। लेकिन 1946 के बाद अल-इस्लाह उर्दू लाइब्रेरी बुरे हाल में थी। जिसमे कभी हज़ारों किताबे हुआ करती थी वो अब जरजर हो रही थी। एक दिन तत्कालीन राज्यपाल डॉ. ज़ाकिर हुसैन को इस नायाब धरोहर की ख़बर मिली यहाँ पर रखी दुर्लभ पुस्तकों को सुरक्षा की दृष्टि से पटना के ख़ुदाबख़्श‌ लाइब्रेरी भेजने का निर्णय लिया। बैलगाड़ी से किताबों को बिहारशरीफ़ लाया गया तब लगभग सात ट्रक से हज़ारों किताबें ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी ले जाई गयी थी। इसके लिए वहां अलग से देसना सेक्शन बनाया गया है।
यहां हाथों से लिखी क़ुरान शरीफ़ का तुर्रा, इस्लामिक साहित्य पर लिखी हज़ारो पुस्तकें, पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ) की जीवनी आदि से सम्बंधित हज़ारों नायाब किताबें रखी थी। साल 2017 में मैं देस्ना गया और मुझे देख कर आश्चर्य हुआ के अपने समय की सबसे बेहतरीन लाइब्रेरी आज आज  अब्दुल क़वी देस्नवी के नाम पर सुर्ख़ियां बटोरने वालों।  ज़रा इसे भी देख लो।

हज़ारों साल नरगिस अपनी बे’नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदःह-वर पैदा

यह शेर इस लाइब्रेरी की मिनसिबत से बहुत सटीक है। मैं बात कर रहा हूँ देस्ना गांव की इस लाइब्रेरी की जो एक ज़माने में अपनी अलग पहचान रखती थी। जहाँ की अल्लामा सय्यद सुलेमान नदवी (र.अ) अब्दुल क़वी, प्रोफ़ेसर सय्यद मुहम्मद सईद रज़ा जैसे दीदा-वर पैदा हुए और अपनी शैक्षणिक योग्यता की बुनियाद पर पूरे आलम पर छा गए। जहाँ फ़ारसी और उर्दू की सदियों पुरानी किताबों का एक ज़ख़ीरा था। जहाँ एक ज़माने में भारत के राष्ट्रपति डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन साहब और डॉक्टर राजिंदर प्रसाद साहब जैसी हस्तियों की आमद हुई थी। और कह सकते हैं के एक वक़्त में यह लाइब्रेरी बिहार की शान थी। पढ़ने वाले लोगों के लिये यह एक नेमत से कम नहीं थी।
लेकिन जब मैं ने इस लाइब्रेरी का मुआयना किया तो हैरत और अफ़सोस के मिले जुले जज़्बात के साथ रोना आ गया। इसी गांव के एक मास्टर साहब ने मेरी मदद की और बताया के इस लाइब्रेरी में अभी भी ऐसी दुर्लभ किताबें मौजूद हैं जो शायद ही कहीं और मिल सके। उन्हों ने यह भी बताया के इस में रखी किताबें बहुत ही ख़राब हालत में है और कई किताबों की बाइंडिंग कराना बहुत ज़रूरी है। लेकिन पैसे की तंगी की वजह कर यह काम नहीं हो पा रहा है।साल में गर्मी के मौसम में यह किताबों को धुप दिखाते हैं जिस से इनकी लरज़ती साँसों में थोड़ी सी जान आ जाती है और यह फिर से जीने के लाएक़ हो जाती हैं।
एक वक़्त यह गांव इल्म का गहवारा था, लेकिन आज सिर्फ़ यह एक खंडर है इसका कोई पुरसान-ए-हाल नहीं है। ना ही गांव के लोग इसकी कोई सुध लेते हैं और ना ही बाहर के लोग। मैंने मास्टर साहब से पुछा भी के इसकी बाइंडिंग में किया ख़र्च आएगा। उन्हों ने बताया के ख़र्च तो काफ़ी है। तो मेरी एक अपील आप तमाम बिहार के अदबी लोगों से है के के इस लाइब्रेरी को बचाने के लिये आगे आएं। क्योंकि यह एक धरोहर है।
और धरोहरों को बचाने की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है।