गृहमंत्री ने कहा है कि, “भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता, चीन के लिए छोड़ दी।” उनका यह इल्जाम, जवाहरलाल नेहरू पर है। गृहमंत्री का यह बयान तथ्यात्मक रूप से झूठा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में पांच स्थाई सदस्यों की सदस्यता का निर्णय, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, 1945 में ही, जब यूएनओ का गठन किया गया था, तभी कर लिया गया था। जबकि भारत, 1945 में तो, आजाद ही नहीं हो पाया था। आजादी 15 अगस्त 1947 को मिली थी। आजादी के पहले ही कैसे स्थाई सदस्यता का ऑफर भारत को मिलता। भारत तो यूएनओ का सदस्य भी नहीं था। हालांकि, तकनीकी रूप से भारत संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों में से एक माना जा सकता है। क्योंकि 26 जून, 1945 को, भारत ने, अन्य भाग लेने वाले देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर की पुष्टि के बाद 30 अक्टूबर, 1945 को भारत को संयुक्त राष्ट्र में शामिल किया गया, लेकिन वह, आजाद और संप्रभु भारत नहीं था, वह ब्रिटिश के आधीन एक उपनिवेश था। 1972 में यूएनओ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता और चीन द्वारा किए गए 1962 से लेकर अब तक के हमले/झड़पों का कोई अंतर्संबंध नहीं है। यदि गृह मंत्री को लगता है कि ऐसा कोई गंभीर प्रस्ताव, यूएनओ की तरफ से, वास्तव में आया था तो वह दस्तावेजों में अब भी रखा होगा। उन्हे चाहिए कि, संसद में वे, उन दस्तावेजों को रखें और बताएं कि इस तारीख को यह, औपचारिक प्रस्ताव आया था और जवाहरलाल नेहरू ने, उसे ठुकरा कर, स्थाई सदस्यता लेने से मना कर दिया था।
वास्तविकता यह है कि, रिपब्लिक ऑफ चाइना, 1945 में संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा है। लेकिन, यही आरओसी, जब ताइवान तक ही सिमट गया, तो, 1971 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी पीआरसी यानी कम्युनिस्ट चीन से सुरक्षा परिषद की अपनी सीट गंवा बैठा था। चीन के दो नाम थे। एक रिपब्लिक ऑफ चाइना जिसके राष्ट्रध्यक्ष च्यांग काई शेक हुआ करते थे, दूसरे, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, जो माओ त्से दुंग के नेतृत्व में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद, 1948 में अस्तित्व में आया है। जब संयुक्त राष्ट्र संघ का 1945 में गठन हुआ था तब, इसी रिपब्लिक ऑफ चाइना को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का, स्थाई सदस्य बनाया गया था। तब तक भारत आजाद नहीं हुआ था।
संयुक्त राष्ट्र का चार्टर, यूएनओ का, मूल दस्तावेज़ माना जाता है और उक्त दस्तावेज के ही आधार पर, यूएनएससी में कोई संशोधन हो सकता है। उक्त चार्टर ने चीन के बारे में, ‘वन चाइना पॉलिसी’ (एक चीन की नीति) को मान्यता दी थी। यानी एक ही चीन के अस्तित्व को संयुक्त राष्ट्र ने आधिकारिक रूप से स्वीकार किया। चाहे वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का कम्युनिस्ट चीन हो या च्यांग काई शेक वाला रिपब्लिक ऑफ चाइना, जो ताइवान/फर्मोसा में था। यूएनओ ने इस नियम के अनुसार, कम्युनिस्ट चीन को असल चीन के रूप में मान लिया था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में ताइवान की सदस्यता पर ही सवाल खड़ा हो गया। वन चाइना पॉलिसी का मतलब यह हुआ कि, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना, चीन की वैध सरकार है और ताइवान उसका अभिन्न अंग है।
इसका कूटनीतिक परिणाम यह हुआ कि, जो देश, पीआरसी चीन से संबंध रखना चाहते हैं उन्हें, आरओसी ताइवान से संबंध तोड़ना होगा। वे एक ही चीन को मान्यता दे सकते हैं। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पर सवाल, जब चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हो गई तब भी उठा था और तब, चीन ने कहा था कि “एक ही संगठन (यूएनओ) में उसके हिस्से के लिए कोई अलग से सीट नहीं हो सकती।” आज की तारीख़ में ताइवान संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सामान्य सदस्य भी नहीं है और न ही इसके किसी भी उप-संगठनों का हिस्सा है। यह अलग बात है कि ताइवान, अब भी, यूएनओ में शामिल होने की इच्छा रखता है। चीन, ताइवान की इस इच्छा का ज़ोरदार विरोध करता है। चीन का तर्क है कि, “केवल संप्रभु देश ही संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बन सकता है।” चीन ताइवान को अलग देश मानता ही नहीं, वह उसे अपना ही हिस्सा मानता है।
1945 में चीन से लेकर ताइवान तक रिपब्लिक ऑफ़ चाइना सरकार का शासन शुरू हुआ था। इस सरकार के अपदस्थ होने के बाद 1949 में बीजिंग में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना, कम्युनिस्ट चीन, सत्ता में आया। इसके बाद दोनों प्रतिद्वंद्वियों, कम्युनिस्ट चीन और ताइवान ने, अपने को असली चीन के रूप में, अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के दावे करने शुरू कर दिए। दोनों ‘वन चाइना पॉलिसी’ का पालन करते थे. ऐसे में राजनयिक संबंधों में किसी दूसरे देश के लिए काफ़ी मुश्किल स्थिति बन गई थी। ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के लिए भी मुश्किल होने लगी। यह सवाल बड़ा और महत्वपूर्ण हो गया कि कौन सी सरकार चीन का वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व करती है? रिपब्लिक ऑफ़ चीन सरकार के च्यांग काई-शेक ने संयुक्त राष्ट्र में असली चीन होने का दावा किया लेकिन उन्हे कामयाबी नहीं मिली। समय के साथ साथ, उन देशों की संख्या बढ़ती गई, जिन्होंने बीजिंग (पीआरसी) को मान्यता देना शुरू कर दिया और ताइपे (ताइवान) के प्रति लोगों का रुझान कम होता गया और आख़िरकार ताइवान ख़ुद में ही सिमट कर रह गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ में दोहरा प्रतिनिधित्व रह सकता है, लेकिन यह तभी, जब उस देश का विभाजन हो, जैसे भारत पाकिस्तान या फिर पाकिस्तान और बांग्लादेश या यूएनओ, वन चाइना नीति न लागू करके, चीन और ताइवान को अलग अलग मान्यता दे दे। पर यूएनओ ने तो एक चीन की नीति स्वीकार कर के यह तय कर दिया था कि, रहेगा तो एक ही चीन। चाहे पीआरसी या आरओसी। यूएनओ ने पीआरसी को मान भी लिया था। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में 1971 में प्रस्ताव संख्या 2758 पास होने से पहले, ऐसी कोशिश भी हुई कि, दोनों चीनों, पीआरसी और आरओसी को, यूएनओ में सदस्यता मिल जाय। च्यांग काई-शेक ने संयुक्त राष्ट्र में यह कह कर कोशिश भी की थी कि, आरओसी (ताइवान) ही पूरे चीन का वैध प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन वे असफल हुए। च्यांग काई-शेक को लगता था कि टू-स्टेट सॉल्युशन से वो यूएन की सुरक्षा परिषद की सीट, वह अपने दुश्मन पीआरसी कम्युनिस्ट चीन को गंवा देंगे, क्योंकि, चीन ही मुख्य भूमि है। 1961 में च्यांग काई-शेक का यह बयान बहुत प्रसिद्ध हुआ था जब उन्होंने कहा था कि, “देशभक्त और देशद्रोही एक साथ नहीं सकते।” वे कम्युनिस्ट क्रांति को देशद्रोही मानते थे।
अब थोडा पीछे चलते हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय। जब हिटलर का उत्थान हो रहा था तो, हिटलर ने स्टालिन के साथ युद्ध न करने की एक संधि की थी। यह समझौता, मोलोटोव-रिबेंट्रॉप पैक्ट के रूप में जाना जाता है और द्वितीय विश्व युद्ध से कुछ समय पहले 1939 में नाजी जर्मनी और सोवियत संघ द्वारा हस्ताक्षरित एक गैर-आक्रमण समझौता था। इस संधि में, दोनों देश, 10 वर्षों तक एक दूसरे के खिलाफ किसी भी प्रकार की कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करने पर, सहमत हुए थे। इसी अनाक्रमण संधि के कारण, जब पूरे यूरोप में हिटलर ने आतंक मचा रखा था तब, जर्मनी – सोवियत रूस की सीमा पर शांति थी। तब मित्र देशों के रूप में, ब्रिटेन और फ्रांस ही मुख्य रूप से धुरी देशों से लोहा ले रहे थे। अमेरिका, उनके साथ तो था, पर भौगोलिक दूरी और कारणों से उसे युद्ध से पीड़ित होने का, कोई खतरा नहीं था। जब पेरिस सहित यूरोप के तमाम छोटे देश, हिटलर के कब्जे में आते जा रहे थे, तब इसी बढ़े मनोबल के कारण, हिटलर ने सोवियत रूस पर, 1939 की अनाक्रमण संधि को तोड़ते हुए हमला कर दिया। अब इस विश्वयुद्ध में, रूस भी शामिल हो गया। लेकिन कम्युनिस्ट रूस, मित्र देशों की वैचारिकी से अलग तो था ही, वह उनका वैचारिक शत्रु भी था। हालांकि, तब बड़ी समस्या, हिटलर था, जिसने यूरोप और ब्रिटेन में आतंक मचा रखा था। उधर पूर्व में जब जापान ने, 9 दिसंबर 1941 को, पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया तो, अमेरिका खुलकर युद्ध में कूद पड़ा और तब ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, सोवियत रूस, मित्र राष्ट्र के रूप में, एक तरफ और इटली, जर्मनी और जापान, धुरी राष्ट्र के रूप में, दूसरी तरफ हो गए। अंत में जापान के दो शहरों, हिरोशिमा पर 6 अगस्त 1945 और नागासाकी पर 9 अगस्त 1945 को, अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए जाने, सोवियत रूस द्वारा बर्लिन पर कब्जे और हिटलर द्वारा एक बंकर में घुस कर आत्महत्या कर लिए जाने और मुसोलिनी को, इटली की जनता द्वारा चौराहे पर मार कर लटका दिए जाने के बाद, यह विश्वयुद्ध खत्म हो गया। साथ ही सोवियत रूस की वैचारिकी के कारण, मित्र देश पुनः सोवियत यानी कम्युनिस्ट विरोधी हो गए। शीत युद्ध इसी वैचारिक मतभेद का परिणाम था।
इस प्रकार, जब 1945 में जब यूएनओ का गठन हुआ तो, उसमे, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तो स्थाई सदस्य बने ही, साथ ही अपने आकार और द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी भूमिका के कारण सोवियत रूस को भी स्थाई सदस्यता मिली। तब तक चीन में कम्युनिस्ट क्रांति नहीं हो पाई थी और चीन, रिपब्लिक ऑफ चाइना आरओसी के रूप में ही था, तो उसे भी जगह मिली। भारत तब गुलाम था और अपनी आजादी के लिए निर्णायक जंग लड़ रहा था। लेकिन जब चीन 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बन गया और च्यांग काई शेक वहां से भाग कर फर्मोसा/ताइवान चले गए तो, वे, रिपब्लिक ऑफ चाइना का टैग भी लेते गए और उनके ऊपर अमेरिका का हांथ था, जो अब भी ताइवान पर है को, यूएनएससी में, स्थाई सदस्यता का मिला पद बरकरार रहा। शुरू में सीआईए और अन्य पश्चिमी ताकतें चीन की कम्युनिस्ट क्रांति को पलट कर प्रतिक्रांति करना चाहती थी, पर वे सफल नहीं हुई और धीरे धीरे कम्युनिस्ट चीन को दुनिया के बहुत से देशों ने मान्यता दे भी दी। इसी बीच यूएनओ चार्टर ने, एक चीन की नीति, वन चाइना पॉलिसी की घोषणा की, तो यह तय हो गया कि, एक ही चीन रहेगा, चाहे वह पीआरसी के रूप में कम्युनिस्ट चीन हो या आरओसी के रूप में ताइवान का चीन।
धीरे धीरे, अमरीका ने भी बीजिंग से, अपने कूटनीतिक संबंध बढ़ाने शुरू कर दिये। जब अमरीका का ताइवान के साथ पूरी तरह राजनयिक संबंध कायम था, तभी अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 1972 में चीन की यात्रा की। 1971 से पहले तक ताइवान सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों में एक सदस्य बना रहा। तब दुनिया को लगता था कि च्यांग काई-शेक ही चीन, जिसे आरओसी कहते हैं, चीन के असली शासक हैं। 1972 में चीन के प्रति अमेरिकी कूटनीति में बदलाव भी इसलिए हुआ कि, चीन में तख्ता पलट संभव नहीं हो सका था, तब दुनिया के एक बड़े देश और बड़ी आबादी को कैसे अमेरिका नजरअंदाज कर सकता था, और तब पिंग पोंग खेल के द्वारा, यूएस चीनी, रिश्तों को सामान्य बनाने की शुरुआत हुई। तब रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) जिसे चीन के रूप में मान्यता देकर यूएनएससी में स्थाई सदस्यता दी गई थी, की जगह पर, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (कम्युनिस्ट चीन) को स्थाई सदस्य बनाया गया। चीन की शर्त ही यह थी कि वही असल चीन है, और ताइवान उसी की भूमि है, कोई अलग संप्रभु देश नहीं है। इसे पिंगपॉन्ग कूटनीति कहा गया था।
अमरीका नहीं चाहता था कि सुरक्षा परिषद की सीट ताइवान से चीन को मिले लेकिन ऐसा केवल अमरीका के चाहने भर से तो, संभव नहीं हो पाता। इसी क्रम में अमरीका ने नेहरू से अनौपचारिक तौर पर इच्छा जताई थी कि, भारत सुरक्षा परिषद में शामिल हो जाए। लेकिन यह भी इतना आसान नहीं था। 1949 में ही, जब विजयलक्ष्मी पंडित, यूएसए में भारत की राजदूत थीं तब उन्हें एक अनौपचारिक ऑफर जरूर अमेरिकी कूटनीतिक सर्किल से मिला था कि, अमेरिका, भारत को, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए प्रयास कर सकता है। जब यह खबर, जवाहरलाल नेहरु को भेजी गई तो, उनकी प्रतिक्रिया थी कि, यदि इस आशय का कोई प्रस्ताव, यूएनओ की तरफ से आता है तो वे इस पर अपनी बात रखेंगे। लेकिन यूएस ने ऐसा कोई प्रस्ताव यूएनओ में, न तो रखा और न ही ऐसी कोई बात हुई। यूएनओ की तरफ से भी ऐसा कोई प्रस्ताव कभी नहीं आया था।
ऐसा करना, इतना आसान भी नहीं था। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन करना पड़ता और सुरक्षा परिषद के पांचों देशों के बीच सहमति की, ज़रूरी शर्त थी। तब सोवियत संघ और चीन में कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण दोस्ती थी। कहा जाता है कि, अगर भारत के लिए ऐसा कोई संशोधन लाया भी जाता तो, सोवियत संघ, तब वीटो कर देता। यह बात भी सच है कि, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी चाहते थे कि, यूएनएससी की स्थाई सीट से, वन चाइना पॉलिसी के अनुसार, ताइवान को हटा कर, चीन को लाया जाय। यह कोई नई स्थाई सदस्यता का प्रस्ताव नहीं था बल्कि आरओसी के बजाय पीआरसी को, यूएनओ में स्थाई स्थान देना था और यह यूएन चार्टर के अनुरूप भी था। यदि ऐसा नहीं होता तो, यह चीन के साथ अन्याय ही होता क्योंकि असल चीन और चीन की मुख्य भूमि तो पीआरसी कम्युनिस्ट चीन के ही पास थी।
यूएनओ में, एक बार, आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर को चीन ने वैश्विक आतंकी घोषित कराने के मामले में भारत के ख़िलाफ़ वीटो कर दिया तो बीजेपी नेता और क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस नेता शशि थरूर की किताब का हवाला देकर आरोप लगाया था कि, “सुरक्षा परिषद में भारत की सीट, नेहरू ने चीन को दिलवा दिया था और इसी के दम पर चीन भारत को परेशान कर रहा है।”
इसके जवाब में शशि थरूर ने कहा था कि, “बीजेपी के दावों में कतई सच्चाई नहीं है।” और उन्होंने इस मसले में कई तथ्यों को साझा किया। शशि थरूर ने लिखा है, ”संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता में नेहरू की भूमिका पर मेरी किताब ‘नेहरू द इन्वेंशन ऑफ़ इंडिया’ का बीजेपी ने हवाला दिया है. उसके संदर्भ को यहाँ समझ सकते हैं,
‘चीन 1945 में यूएन चार्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही सुरक्षा परिषद में वास्तविक स्थायी सदस्य था। चीन 1949 में जब कम्युनिस्ट शासन के हाथ में आया तो सुरक्षा परिषद की सीट ताइवान स्थित च्यांग काई-शेक की सरकार यानी रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के जाने के बाद भी उसी के पास रही। नेहरू इस चीज़ को बिल्कुल सही महसूस करते थे कि, ताइवान जैसे छोटे से द्वीप का सुरक्षा परिषद में वीटो पावर के साथ स्थायी सदस्य रहना तार्किक नहीं होगा। इसके बाद नेहरू ने सुरक्षा परिषद के बाक़ी के स्थायी सदस्यों से कहा कि यह सीट कम्युनिस्ट चीन यानी पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को दिया जाए। अमरीका रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के सुरक्षा परिषद में बने रहने की आपत्तियाँ को समझ रहा था पर वो कम्युनिस्ट चीन को सुरक्षा परिषद में लाने को लेकर अनिच्छुक था। इसी संदर्भ में अमरीका ने भारत से सुरक्षा परिषद में चीन की स्थायी सीट लेने की इच्छा व्यक्त की थी. नेहरू को लगा कि ऐसा करना ग़लत होगा और यह चीन के साथ नाइंसाफ़ी होगी. उन्होंने कहा कि रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की सीट पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को मिलनी चाहिए और भारत को एक दिन अपने हक़ से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिलेगी।’
इस बात को याद रखना चाहिए कि यूएन चार्टर में बिना संशोधन के भारत सुरक्षा परिषद में चीन की जगह नहीं ले सकता था। तब इस तरह का संशोधन सोवियत संघ के पास वीटो पावर रहते किया भी नहीं जा सकता था। इससे यह स्पष्ट है कि,
- भारत को कभी भी यूएनओ की तरफ से, सुरक्षा परिषद में, स्थाई सदस्यता का ऑफर नहीं मिला था
- और भारत को ऐसी कोई भी मिलने वाली स्थायी सदस्यता, नेहरू ने, चीन को नहीं दी थी।
केवल अमरीकी सरकार की इच्छा से भारत को यह सीट नहीं मिल सकती थी। बीजेपी, जब भी वर्तमान की चुनौतियों का सामना नहीं कर पाती है तो वह, अतीत के तथ्यों से छेड़छाड़ कर, जनता को उलझाने लग जाती है। पसंद कर रही है।
27 सितंबर, 1955 को डॉ जेएन पारेख के सवालों के जवाब में नेहरू ने संसद में कहा था, ”यूएन में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के लिए औपचारिक या अनौपचारिक रूप से कोई प्रस्ताव नहीं मिला था। कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है जिसमें कोई सच्चाई नहीं है। संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद का गठन यूएन चार्टर के तहत किया गया था और इसमें कुछ ख़ास देशों को स्थायी सदस्यता मिली थी। चार्टर में बिना संशोधन के कोई बदलाव या कोई नया सदस्य नहीं बन सकता है. ऐसे में कोई सवाल ही नहीं उठता है कि भारत को सीट दी गई और भारत ने लेने से इनकार कर दिया. हमारी घोषित नीति है कि संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनने के लिए जो भी देश योग्य हैं उन सबको शामिल किया जाए।”
(विजय शंकर सिंह)